यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 2
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - गृहपतिर्मघवा देवता
छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
139
क॒दा च॒न स्त॒रीर॑सि॒ नेन्द्र॑ सश्चसि दा॒शुषे॑। उपो॒पेन्नु म॑घव॒न् भूय॒ऽइन्नु ते॒ दानं॑ दे॒वस्य॑ पृच्यतऽआदि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥२॥
स्वर सहित पद पाठक॒दा। च॒न। स्त॒रीः। अ॒सि॒। न। इ॒न्द्र॒। स॒श्च॒सि॒। दा॒शुषे॑। उपो॒पेत्युप॑ऽउप। इत्। नु। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। भूयः॑। इत्। नु। ते॒। दान॑म्। दे॒वस्य॑। पृ॒च्य॒ते॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र सश्चसि दाशुषे । उपोपेन्नु मघवन्भूय इन्नु ते दानन्देवस्य पृच्यतेऽआदित्येभ्यस्त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
कदा। चन। स्तरीः। असि। न। इन्द्र। सश्चसि। दाशुषे। उपोपेत्युपऽउप। इत्। नु। मघवन्निति मघऽवन्। भूयः। इत्। नु। ते। दानम्। देवस्य। पृच्यते। आदित्येभ्यः। त्वा॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तमेवाह॥
अन्वयः
हे इन्द्र परमैश्वर्ययुक्त पते! यतस्त्वं कदाचन स्तरीर्नासि, तस्माद् दाशुष इन्नुपोप सश्चसि। हे मघवन्! देवस्य ते तव यद् दानमिन्नु भूयः पृच्यते, अतोऽहं स्त्रीत्वेनादित्येभ्यः सदा सुखप्रापकं त्वा त्वामाश्रये॥२॥
पदार्थः
(कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि (स्तरीः) स्वभावाच्छादकः संकुचितः (असि) भवसि (न) निषेधे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यपते! (सश्चसि) प्राप्नोषि। सश्चतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰२।१४) (दाशुषे) दानशीलाय (उपोप) सामीप्ये। उपर्य्यध्यधसः सामीप्ये। (अष्टा॰८।१।७) इति द्वित्वम्। (इत्) एव (नु) क्षिप्रम्। न्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰२।१५) (मघवन्) प्रशंसितधनयुक्त (भूयः) अधिकम् (इत्) एव (नु) शीघ्रम् (ते) तव (दानम्) (देवस्य) विदुषः (पृच्यते) सम्बध्यते (आदित्येभ्यः) मासेभ्यः (त्वा) त्वां सुखदातारम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ३। ५। १०-११) व्याख्यातः॥२॥
भावार्थः
विवाहकामनया युवत्या स्त्रिया यच्छलकपटाचरणरहितः सत्यभावप्रकाशक एकस्त्रीव्रतो जितेन्द्रिय उद्योगी धार्मिको दाता विद्वान् भवेत्, तमुपयम्य निरन्तरमानन्दितव्यम्॥२॥
विषयः
पुनस्तमेवाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे इन्द्र=परमैश्वर्ययुक्तपते ! यतस्त्वं कदा कस्मिन् काले चन अपि स्तरी: स्वभावाच्छादक: संकुचितः न+असि भवसि, तस्माद् दाशुषे दानशीलाय इत एव नु क्षिप्रम् उपोप+सश्चसि समीपं प्राप्नोषि। हे मघवन् ! प्रशंसित-धनयुक्त ! देवस्य विदुषः ते=तव यद् दानमित् एव नु शीघ्रं भूयः अधिकंपृच्यते सम्बध्यते, अतोऽहं स्त्रीत्वेनादित्येभ्यः मासेभ्यःसदा सुखप्रापकं त्वा=त्वांत्वां सुखदातारम् आश्रये॥ ८ । २॥ [हे इन्द्र=परमैश्वर्ययुक्तपते ! यतस्त्वं कदाचन स्तरीर्नासि, तस्माद् दाशुष इन्नूपोपसश्चसि,......अतोऽहं स्त्रीत्वेनादित्येभ्यः सदा सुखप्रापकं त्वा=त्वामाश्रये]
पदार्थः
(कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि (स्तरीः) स्वभावाच्छादकः संकुचितः (असि) भवसि (न) निषेधे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यपते ! (सश्चसि) प्राप्नोषि । सश्चतीति गतिकर्मसु पठितम्॥ निघं० २। १४ ॥(दाशुषे) दानशीलाय (उपोप) सामीप्ये । उपर्य्यध्यधसः सामीप्ये ॥ अ० ८। १। ७॥ इति द्वित्वम्(इत्) एव (नु) क्षिप्रम् । न्विति क्षिप्रनामसु पठितम् ॥ निघं० २ । १५ ॥(मघवन्) प्रशंसितधनयुक्त (भूयः) अधिकम् (इत) एव (नु) शीघ्रम् (ते) तव (दानम्)(देवस्य) विदुषः (पृच्यते) संबध्यते (आदित्येभ्यः) मासेभ्य (त्वा) त्वां सुखदातारम् ॥अयं मन्त्र: शत० ४।३।५।१०-११ व्याख्यातः ॥२॥
भावार्थः
विवाहकामनया युवत्या स्त्रिया यश्छलकपटाचरणरहितः, सत्यभावप्रकाशक, एकस्त्रीव्रतो, जितेन्द्रिय, उद्योगी, धार्मिको, दाता, विद्वान् भवेत् तमुपयम्य निरन्तरमानन्दितव्यम् ॥ ८ । २॥
विशेषः
आङ्गिरसः ।गृहपतिर्मघवा=धनवान्गृहस्थी॥ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी गृहस्थों के धर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य से युक्त पति! जिस कारण आप (कदा) कभी (चन) भी (स्तरीः) अपने स्वभाव को छिपाने वाले (न) नहीं (असि) हैं, इस कारण (दाशुषे) दान देने वाले पुरुष के लिये (उपोप) समीप (सश्चसि) प्राप्त होते हैं। हे (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त भर्ता! (देवस्य) विद्वान् (ते) आप का जो (दानम्) दान अर्थात् अच्छी शिक्षा वा धन आदि पदार्थों का देना है, (इत्) वही (नु) शीघ्र (भूयः) अधिक करके मुझ को (पृच्यते) प्राप्त होवे, इसी से मैं स्त्रीभाव से (आदित्येभ्यः) प्रति महीने सुख देने वाले आपका आश्रय करती हूं॥२॥
भावार्थ
विवाह की कामना करने वाली युवती स्त्री को चाहिये कि जो छल-कपटादि आचरणों से रहित प्रकाश करने और एक ही स्त्री को चाहने वाला, जितेन्द्रिय, सब प्रकार का उद्योगी, धार्मिक और विद्वान् पुरुष हो, उसके साथ विवाह करके आनन्द में रहे॥२॥
विषय
परस्पर अर्पण
पदार्थ
गत मन्त्र के विषय को आगे बढ़ाती हुई पत्नी कहती है कि आप १. ( कदाचन ) = कभी भी ( स्तरीः ) = [ स्वभावाच्छादकः—द०, स्तढञ् आच्छादने ] अपने स्वभाव को छिपानेवाले न ( असि ) = नहीं हैं। पति-पत्नी में ऐसा सामञ्जस्य होना चाहिए कि उन्हें एक-दूसरे से कुछ छिपाने का विचार ही उत्पन्न न हो। उनमें किसी प्रकार का भेदभाव न हो।
२. हे ( इन्द्र ) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता शक्तिशाली पते! आप ( दाशुषे ) = दाश्वान् के लिए, आपके प्रति अपना समर्पण करनेवाले के लिए ( सश्चसि ) = प्राप्त होते हो [ सस्ज गतौ ]। कन्या पितृगृह को छोड़कर पति के घर को अपना घर बनाती है। वह पति के प्रति अपना अर्पण कर डालती है, अतः पति को भी उसे प्राप्त होना ही चाहिए, उसे कभी धोखा नहीं देना चाहिए।
३. हे ( मघवन् ) = ऐश्वर्यशालिन्! अथवा यज्ञशील! ( उप उप इत् नु ) = आप निश्चय से प्रभु के अधिकाधिक निकट हो, उसके उपासक बनो। प्रभु-प्रवणता भोग-प्रवणता को रोकती है।
४. ( देवस्य ) = [ देवो दानात् ] देनेवाले आपको ( भूयः इत् ) = अधिक ही ( दानम् ) = दान ( पृच्यते ) = प्राप्त होता है।
५. ( आदित्येभ्यः त्वा ) = मैं आदित्य तुल्य दीप्तिवाली सन्तानों के लिए आपको प्राप्त होती हूँ।
भावार्थ
भावार्थ — १. पति पत्नी से किसी प्रकार का छिपाव न रक्खे। यह छिपाव ही एक-दूसरे में शक पैदा करता है। २. पति पत्नी को पूर्णतया प्राप्त हो, क्योंकि पत्नी ने पति के प्रति अपना अर्पण किया है। ३. उसमें प्रभु-प्रवणता हो। ४. वह दानशील हो।
विषय
राजा का वैश्यों पर अधिकार और गृहस्थ का कर्तव्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! तू ( कदाचन ) कभी भी ( स्तरी: ) प्रजा का हिंसक ( न असि ) नहीं है। और ( दाशुषे ) दानशील कर प्रदाता के दिये कर को तू ( सश्वसि ) स्वीकार करता है ! हे ( मघवन् ) उत्तम धनैश्वर्यसम्पन्न ! ( ते देवस्य ) तुम देव दानशील का ( दानम् ) दिया हुआ दान ( उप उप इत् नु ) अति समीप और ( भूयः इत् ) बहुत अधिक ( पृच्यत ) हमें प्राप्त होता है । ( आदित्येभ्यः त्वा) तुझको मैं आदित्यों के समान तेजस्वी पुरुषों या आदान प्रतिदान करनेवाले वैश्य लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त करता हूं ॥ शत० ४ । ३ । ५ । ११ ॥
गृहस्थपत में - हे इन्द्र पते ! आप (स्तरी) कभी अपने भावों को नहीं छिपाते | आत्मसमर्पण करनेवाले को प्राप्त होते हैं । आप विद्वान् का दिया दान ही सदा मुझे प्राप्त हो। आपको मैं वरती हूं ॥
टिप्पणी
२- ऋ० बाल ० ३। ७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृहपतिर्मधवा इन्द्रो देवता । भुरिक् पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
गृहस्थ धर्म का फिर उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य से युक्त पते ! क्योंकि आप (कदा) कभी (चन) भी (स्तरी:) स्वभाव को छुपाने वाले छली, कपटी एवं संकोची (न) नहीं (असि) हो, इसलिये (दाशुषे ) दानशील के (इत्) ही (नु) शीघ्र (उपोप+सश्चसि) समीप पहुँच जाते हो । हे (मघवन्) प्रशंसनीय धन से युक्त पते ! (देवस्य) आप विद्वान् का जो दान है वह (इत्) ही (नु) शीघ्र (भूयः) अधिकता से (पृच्यते) सम्बद्धहोता है, इसलिये मैं स्त्री-भाव से (आदित्येभ्यः) बारह महीनों [सदा] के लिये (त्वा) सुख पहुँचाने वाले आप को मैं आश्रय ग्रहण करती हूँ॥ ८।२॥
भावार्थ
विवाह की कामना वाली युवती स्त्री को उचित है कि वह छल-कपट के आचरण से रहित, सत्य भावों का प्रकाशक, एक स्त्री का व्रती, जितेन्द्रिय, पुरुषार्थी, धार्मिक, दानशील और विद्वान् हो उसके साथ विवाह करके सदा आनन्द में रहे ।। ८ । २ ॥
प्रमाणार्थ
(सश्चसि ) 'सश्चति' पद निघं० (२ । १४) में गत्यर्थक क्रियाओं में पढ़ा है। (उपोप) यहाँ'उपर्य्यध्यधसः सामीप्ये’ (अ० ८ । १ । ७) इस सूत्र से द्वित्व है । (नु) यह शब्द निघं० (२ । १५) में क्षिप्र-नामों में पढ़ा है । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ५ । १०-११) में की गई है ॥ ८ । २ ॥
भाष्यसार
१. गृहस्थ--धर्म-विवाह की कामना करने वाली युवती स्त्री को उचित है कि वह इन्द्र अर्थात् परम ऐश्वर्य से युक्त, अपने स्वभाव को न छुपाने वाला अर्थात् छल-कपट के आचरण से रहित, सत्य भावों को प्रकाशित करने वाले, एक स्त्री के व्रती, जितेन्द्रिय पुरुषार्थी, धार्मिक, प्रशंसित, धनवान्, दानशील, विद्वान् हो उसके साथ विवाह करके सदा आनन्द में रहे । २. पति-- परम ऐश्वर्य से युक्त हो (इन्द्र) । प्रशंसित धन से युक्त हो (मघवा) ॥ ८ । २ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
विवाहेच्छू तरुणीने छळ करणाऱ्या, कपटी पुरुषाशी विवाह न करता एकाच स्त्रीशी प्रीती करणाऱ्या, जितेन्द्रिय, सर्व प्रकारे उद्योगी, धार्मिक व विद्वान पुरुषाशी विवाह करून आनंदात राहावे.
विषय
पुढील मंत्रात गृहस्थधर्माविषयी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (पत्नी म्हणते) हे ऐश्वर्यवान पतिराज, आपण (पदा) (चन) कधीही (स्तरी:) मनातील भाव वा स्वभावाला लपविणारे (न) असि) नाहींत. (आपण स्पष्ट व सत्य बोलता) आपण (दाशुषे) दान देणार्या (उपोय) जवळ (सश्चसि) प्राप्त होता (म्हणजे दान देण्यासाठी व घेण्यासाठी ही तत्पर असता) (मधवन्) प्रशंसनीय ऐश्वर्याचे स्वामी हे पतिराज, (देवस्य) (ते) आपल्यासारख्या विद्वानांचे जे (दामन्) दान आहे म्हणजे आपण जे उत्तम ज्ञान व धनादी पदार्थांचे दान करता (इत्) ते (नु) लवकरच (भूय:) अधिक वृद्धींगत होऊन मला (प्रच्यते) मिळावे (आपल्या दानवृत्तीमुळे आपले धन दुपटीने वाढावे) यासाठी मी आपली पत्नी म्हणून (आदित्येभ्य:) दरमहा मला सुख देणार्या अशा आपल्या आश्रयाला येते. (दरमहा आपल्याकडून मिळणार्या धनाने गृहाची व्यवस्था करते)॥2॥
भावार्थ
भावार्थ - विवाहेच्छू युवतीने कामना करावी की तिला असाच पती मिळावा की जो छळ-छद्मापासून दूर, एकच पत्नी इच्छा करणारा, जितेन्द्रिय, उद्योगशील, धार्मिक आणि विद्वान आहे. अशाच पुरुषाशी विवाह करून युवती स्त्रीने आनंदात रहावे. ॥2॥
टिप्पणी
(टीप- येथे ‘जितेन्द्रिय’ शब्दाचा ‘कुमार्गगामी वा व्यभिचारी नसलेला-अपकीर्ती नसलेला‘ हा अर्थ घ्यावा)
इंग्लिश (3)
Meaning
O glorious husband, thou never keepest anything secret from me, thou befriendest the charitably disposed person. O laudable wealthy husband thou art learned. May thy gift of knowledge and riches reach me soon. I select thee as my husband, as thou art always a source of comfort for me.
Meaning
Dear husband, man of excellence and power, wealth and generosity, you are never dry or stingy or non-obliging. You are always and readily with the generous Giver. Your gifts in cash and kind, instruction or advice, multiply and mature in no time and may they come to me too! I dedicate myself to you for a life-time year after year.
Translation
O resplendent Lord, you never injure a sacrificer. On the other hand, you favour him. O Lord of wealth, your divine donation to sacrifices always increases more and more. (1) You to the suns. (2)
Notes
Starih, а, one who injures. Maghavan, O Lord of wealth!
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেবাহ ॥
পুনরায় গৃহস্থ ধর্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (ইন্দ্র) পরমেশ্বরের সঙ্গে যুক্ত পতি! যে কারণে আপনি (কদা) (চন) কখনও (স্তরীঃ) নিজের স্বভাবকে লুকান (ন) না, এই কারণে (দাশুষে) দানদাতা পুরুষদের জন্য (উপোপ) সমীপ (সশ্চসি) প্রাপ্ত হউন । হে (মঘবন্) প্রশংসিত ধনযুক্ত ভর্ত্তা ! (দেবস্য) বিদ্বান্ (তে) আপনার যে (দানম্) দান অর্থাৎ ভাল শিক্ষা অথবা ধনাদি পদার্থসকলকে দিবার (ইৎ) তাহা (নু) শীঘ্র (ভূয়ঃ) অধিক করিয়া আমাকে (পৃচ্যতে) প্রাপ্ত হউক, এইজন্য আমি স্ত্রীভাবপূর্বক (আদিতেভ্যঃ) প্রতি মাসে সুখ দাতা আপনাকে আশ্রয় করি ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- বিবাহ কামনাকারিণী যুবতী স্ত্রীর উচিত যে, যে ছল-কপটাদি রহিত, সত্যভাব প্রকাশক, এক স্ত্রী কামনাকারী, জিতেন্দ্রিয় উদ্যোগী ধার্মিক, দাতা, বিদ্বান্ হইবে, তাহার সহিত বিবাহ করিয়া আনন্দে থাকুক ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ক॒দা চ॒ন স্ত॒রীর॑সি॒ নেন্দ্র॑ সশ্চসি দা॒শুষে॑ । উপো॒পেন্নু ম॑ঘব॒ন্ ভূয়॒ऽইন্নু তে॒ দানং॑ দে॒বস্য॑ পৃচ্যতऽআদি॒ত্যেভ্য॑স্ত্বা ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
কদা চন ইত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । গৃহপতির্মঘবা দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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