यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 33
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - आर्षी अनुष्टुप्,आर्षी उष्णिक्
स्वरः - गान्धारः, ऋषभः
91
आति॑ष्ठ वृत्रह॒न् रथं॑ यु॒क्ता ते॒ ब्रह्म॑णा॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॒ꣳ सु ते॒ मनो॒ ग्रावा॑ कृणोतु व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठआ। ति॒ष्ठ॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। रथ॑म्। यु॒क्ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॑म्। सु। ते॒। मनः॑। ग्रावा॑। कृ॒णो॒तु॒। व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३३॥
स्वर रहित मन्त्र
आतिष्ठ वृत्रहन्रथँयुक्ता ते ब्रह्मणा हरी । अर्वाचीनँ सुते मनो ग्रावा कृणोतु वग्नुना । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा षोडशिनेऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा षोडशिने ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। तिष्ठ। वृत्रहन्निति वृत्रऽहन्। रथम्। युक्ता। ते। ब्रह्मणा। हरीऽइति हरी। अर्वाचीनम्। सु। ते। मनः। ग्रावा। कृणोतु। वग्नुना। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। षोडशिने। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। षोडशिने॥३३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ प्रकारान्तरेण गृहस्थधर्म्ममाह॥
अन्वयः
हे वृत्रहन्! ग्रावेव सुखवर्षिता गृहस्थ! ते तव यत्र रथे ब्रह्मणा सह हरी युक्ता युक्तौ स्वीक्रियेते तं त्वमातिष्ठास्मिन् गृहाश्रमे ते तव यन्मनोऽर्वाचीनमनुत्कृष्टगति जायते तद् वग्नुना वेदवाचा भवान् शान्तं कृणोतु, यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतः षोडशिन इन्द्राय त्वा त्वामुपदिशामि। हे गृहाश्रममभीप्सो! एष ते योनिरस्ति। अस्मै षोडशिन इन्द्राय त्वा त्वां नियुनज्मीति॥३३॥
पदार्थः
(आ) (तिष्ठ) (वृत्रहन्) वृत्रान् शत्रून् हन्ति तत्सम्बुद्धौ (रथम्) रमणीयं विद्याप्रकाशं यानं वा (युक्ता) युक्तौ (ते) तव (ब्रह्मणा) जलेन धनेन वा (हरी) हरणशीलौ धारणाकर्षणगुणाविवाश्वौ (अर्वाचीनम्) अधोगामि (सु) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (ग्रावा) मेघः, ग्राव इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰१।१०) (कृणोतु) (वग्नुना) वाण्या, वग्नुरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) (उपयामगृहीतः) उपयामा सामग्री गृहीता येन सः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (षोडशिने) प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (एषः) गृहाश्रमः (ते) तव (योनिः) गृहम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्रदाय गृहाय (त्वा) त्वाम् (षोडशिने)। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ५। ४। १-९) व्याख्यातः॥३३॥
भावार्थः
गृहाश्रमाधीना एव सर्व आश्रमास्ते वेदोक्तसद्व्यवहारेण सेविताः सन्तोऽभ्युदयनिःश्रेयससुख-सम्पत्तये भवन्त्येवातः परमैश्वर्य्यप्राप्तये गृहाश्रम एव सेव्य इति॥३३॥
विषयः
अथ प्रकारान्तरेण गृहस्थधर्म्ममाह॥
सपदार्थान्वयः
हे वृत्रहन् ! वृत्रान्=शत्रून् हन्ति तत्सम्बुद्धौ ग्रावा मेघःइव सुखवर्षिता गृहस्थ ! ते=तव यत्र रथे ब्रह्मणा जलेन धनेन वा सह हरी हरणशीलौ धारणकर्षणगुणाविवाश्वौ युक्ता=युक्तौ, स्वीक्रियेते तं [रथम्] रमणीयं विद्याप्रकाशं मानं वा त्वमातिष्ठ । अस्मिन् गृहाश्रमे ते=तव यन्मनः अन्तःकरणम् अर्वाचीनम् अनुत्कृष्टगति अधोगामी जायते तद् वग्नुना=वेदवाचा वाण्या भवान् [सु]=शान्तं कृणोतु । यतस्त्वमुपयामगृहीतः उपयामा=सामग्री गृहीता येन सः अस्यतः षोडशिने प्रशस्ता: षोडशकला विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै इन्द्राय परमैश्वर्याय त्वा=त्वामुपदिशामि । हे गृहाश्रममभीप्सो ! एषः गृहाश्रमः ते तव योनिः गृहम् अस्ति । अस्मै षोडशिने प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै इन्द्राय ऐश्वर्यप्रदाय गृहाय त्वा=त्वां नियुनज्मीति ॥८ । ३३॥ [हे.....गृहस्थ!......यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतः षोडशिन इन्द्राय त्वामुपदिशामि, हे गृहाश्रममभीप्सो ! एष ते योनिरस्ति, अस्मै षोडशिन इन्द्राय त्वा=त्वां नियुनज्मि]
पदार्थः
(आ)(तिष्ठ)(वृत्रहन्) वृत्रान्=शत्रून् हन्ति तत्सम्बुद्धौ (रथम्) रमणीयं विद्याप्रकाशं यानं वा (युक्ता) युक्तौ (ते) तव(ब्रह्मणा) जलेन धनेन वा (हरी) हरणशीलौ धारणकर्षणगुणाविवाश्वौ(अर्वाचीनम्) अधोगामि(सु)(ते) तव (मनः) अन्तःकरणम्(ग्रावा) मेघः । ग्राव इति मेघना ॥ निघं० १ । १० ॥(कृणोतु)(वग्नुना) वाण्या । वग्नुरिति वाङ् ना० ॥ निघं० १ । ११॥(उपयामगृहीतः) उपयामासामग्री गृहीता येन सः (असि)(इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (षोडशिने) प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (एषः) गृहाश्रमः (ते) तव (योनिः) गृहम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्रदाय गृहाय (त्वा) त्वाम् (षोडशिने)॥अयं मन्त्रः शत० ४ । ५ । ४। १-९ व्याख्यातः ॥३३॥
भावार्थः
गृहाश्रमाधीना एव सर्व आश्रमास्ते वेदोक्तसद्व्यवहारेण सेविताः सन्तोऽभ्युदय- निःश्रेयससुखसम्पत्तये भवन्त्येवातः परमैश्वर्यप्राप्तये गृहाश्रम एव सेव्य इति ॥ ८ । ३३ ॥
भावार्थ पदार्थः
षोडशिने=अभ्युदयनिःश्रेयससुखसम्पत्तये । इन्द्राय=परमैश्वर्यप्राप्तये॥
विशेषः
गोतमः । गृहपतय:=गृहस्थाः । आर्ष्यनुष्टुप्। गान्धारः । उपयामेत्यस्य विराडार्ष्युष्णिक्। ऋषभः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब प्रकारान्तर से गृहस्थ का धर्म्म अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (वृत्रहन्) शत्रुओं को मारने वाले गृहाश्रमी! तू (ग्रावा) मेघ के तुल्य सुख बरसाने वाला है, (ते) तेरे जिस रमणीय विद्या प्रकाशमय गृहाश्रम वा रथ में (ब्रह्मणा) जल वा धन से (हरी) धारण और आकर्षण अर्थात् खींचने के समान घोड़े (युक्ता) युक्त किये जाते हैं, उस गृहाश्रम करने की (आतिष्ठ) प्रतिज्ञा कर, इस गृहाश्रम में (ते) तेरा जो (मनः) मन (अर्वाचीनम्) मन्दपन को पहुंचता है, उसको (वग्नुना) वेदवाणी से शान्त भलीप्रकार कर, जिससे तू (उपयामगृहीतः) गृहाश्रम करने की सामग्री ग्रहण किये हुए (असि) है, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूं, कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देने वाले गृहाश्रम करने के लिये (त्वा) तुझ को आज्ञा देता हूँ॥३३॥
भावार्थ
गृहाश्रम के आधीन सब आश्रम हैं और वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से जिस गृहाश्रम की सेवा की जाय, उससे इस लोक और परलोक का सुख होने से परमैश्वर्य्य पाने के लिये गृहाश्रम ही सेवना उचित है॥३३॥
विषय
रथाधिष्ठान
पदार्थ
१. माता-पिता ‘गत मन्त्र की भावना के अनुसार बन सकें’ उसके लिए प्रभु जीव को निर्देश करते हैं कि— हे ( वृत्रहन् ) = कामवासना को नष्ट करनेवाले जीव! तू ( रथम् ) = इस शरीररूप रथ पर ( आतिष्ठ ) = अधिष्ठित हो। तू ‘रथी’ है, अतः वास्तव में ही ‘रथी’ बन। कहीं तू सो जाए और तेरा जीवन सारथि की दया पर ही निर्भर रह जाए। नहीं! तू जाग और सारथि को इस रथ को उद्दिष्ट स्थल पर पहुँचाने के लिए निर्देश दे।
२. ( ते ) = तेरे इस रथ में ( ब्रह्मणा ) = प्रभु के द्वारा ( हरी ) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़े ( युक्ता ) = जोते गये हैं। अथवा ( ब्रह्मणा ) = ज्ञानपूर्वक बड़ी समझदारी से वे घोड़े जोते गये हैं।
३. ( ग्रावा ) = [ गृ ] वह हृदयस्थरूप से वेदज्ञान को देनेवाला परमात्मा ते ( मनः ) = तेरे मन को ( वग्नुना ) = इस वेदवाणी के द्वारा ( अर्वाचीनम् ) = अन्दर ही गति करनेवाला और विषयों में न भटकनेवाला ( सुकृणोतु ) = उत्तमता से करे। हमारा मन विषयों में भटकने की बजाय अन्दर ही स्थित हो और हृदयस्थ प्रभु की वाणी को सुननेवाला बने।
४. इस प्रकार ( उपयामगृहीतः असि ) = प्रभु की उपासना के द्वारा तू यम-नियमों से गृहीत है।
५. ( त्वा ) = तुझे मैंने इस संसार में ( इन्द्राय ) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनने के लिए ही भेजा है। ( षोडशिने ) = इन इन्द्रियों को वश में करके तूने अपने जीवन में सोलह कलाओं को धारण करना है।
६. ( एषः ) = यह शरीर ही ( ते ) = तेरा ( योनिः ) = घर है। इसमें रहते हुए तूने ऊपर उठना है। ( इन्द्राय त्वा षोडशिने ) = तुझे सोलह कलाओं से पूर्ण इन्द्र बनने के लिए ही यह शरीर दिया गया है।
७. सोलह कलाएँ प्रश्नोपनिषद् के अनुसार ये हैं—प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, ज्योति, जल, पृथिवी, इन्द्रियाँ [ १० ], मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक और नाम।
भावार्थ
भावार्थ — ‘गोतम’ वह बनता है जो इस शरीररूपी रथ पर इन्द्र बनकर अधिष्ठित होता है और अन्तःस्थित प्रभु की वाणी को सुनता है। जितेन्द्रिय बनकर जीव सोलह कलाओं को धारण करता है।
विषय
षोडशी इन्द्र का वर्णन ।
भावार्थ
शोडषी इन्द्र का वर्णन - हे (वृत्रहन् ) वृत्र मेघ के समान पुर के घेरने वाले शत्रु के या विघ्नकारी पुरुष के नाशकारिन् ! राजन् ! तू ( रथम् )
रमणीय राज्यासनरूप रथ पर ( आतिष्ठ) विराजमान हो । (ते) तेरे ( हरी हरणशील वेगवान् अश्वों के समान धारण, आकर्षण गुण ( ब्रह्मणा ) ब्रह्म, ज्ञान या ज्ञानी पुरुष ब्रह्मवेत्ता विद्वान् या ऐश्वर्य या बल से ( युक्ता ) युक्त हों । ( ग्रावा ) मेघ के समान सुखों का वर्षक, ज्ञानोपदेशक विद्वान् ( वग्नुना) उत्तम वाणी द्वारा ( अर्वाचीनम् ) अधोगामी ( ते मनः ) तेरे चित्त को ( सु कृणोतु ) उत्तम मार्ग में प्रवृत्त करे । हे पुरुष ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्य के नियमव्यवस्था द्वारा स्वीकृत है । ( त्वा ) तुझको ( पोडशिने इन्द्राय ) सोलहों कलाओं से सम्पन्न, इन्द्र परमैश्वर्यवान् राजा के लिये नियुक्त करता हूं। ( ते एषः योनिः ) तेरा यह आश्रय पद है । ( त्वा षोडशिने इन्द्राय ) तुझे योग्य पुरुष को षोडश कला वाले राज्य के प्रधान १६ पदाधिकार शक्तियों से युक्त अथवा १६ महामात्यों से युक्त इन्द के लिये नियुक्त करता हूं ॥ शत० ४ । ५ । ३ । ९ ॥
षोडष कला - स प्रजापतिः षोडशधा आत्मानं व्याकुरुत । भद्रं च समाप्तिश्चाऽऽभूतिश्व सम्भूतिश्च भूतं च सर्वं च रूपञ्चापरिमितं च श्रीश्च यशश्च नाम चाम्रञ्च, सजाताश्च पयश्च मही च रसश्च । जै० उ० १ । ४६ । २ ॥
प्रजापति का भद्र आदि १६ कला हैं। राज्य के १६ अमात्य १६ कला हैं। यज्ञ में १६ ऋत्विग् हैं । देह में शिर, ग्रीवा आदि १६ अंग हैं। ब्रह्म में सत् असत् वाक् मन आदि सोलह कला हैं । गृहपति पक्ष में मन्त्र स्पष्ट है।
टिप्पणी
१ आतिष्ठ २ उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतम ऋषिः । षोडशी इन्द्रो देवता । (१) आसुर्यनुष्टुप् । गान्धारः ।
(२) विराडार्ष्युष्णिक् । ऋषभः ॥
विषय
अब प्रकारान्तर से गृहस्थ धर्म का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (वृत्रहन्) शत्रुओं का हनन करने वाले, (ग्रावा) मेघ के समान सुख की वर्षा करने वाले गृहस्थ (ते) तेरे जिस रथ में (ब्रह्मणा) जल वा धन के सहित (हरी) हरणशील, धारण और आकर्षण गुण वाले (युक्ता) जुड़े हुये घोड़े स्वीकार किये जाते हैं उस [रथम् ] रथ में (प्रतिष्ठ) बैठ। इस गृहाश्रम में (ते) तेरा जो (मनः) अन्त:करण (अर्वाचीनम्) अधोगति को प्राप्त होता है उसे (वग्नुना) वेदवाणी से आप [सु] शान्त करो । जिससे तूने (उपयामगृहीतः) गृहस्थ-सामग्री को ग्रहण किया (असि) है इसलिये (षोडशिने) प्रशस्त सोलह कला वाले (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (त्वा) तुझे उपदेश करता हूँ। हे गृहाश्रम के अभिलाषी पुरुष! (एषः) यह गृहाश्रम (ते) तेरा (योनिः) घर है। इस (षोडशिने) प्रशस्त सोलह कला वाले (इन्द्राय) ऐश्वर्य को देने वाले घर के लिये (त्वा) तुझे नियुक्त करता हूँ ।। ८ । ३३ ।।
भावार्थ
सब आश्रम गृहाश्रम के ही अधीन हैं, वे वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से सेवन किये हुये ही अभ्युदय और निःश्रेयस सुख की सिद्धि के लिये होते हैं, अतः परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये गृहाश्रम का सेवन अवश्य करें ॥८ । ३३ ।।
प्रमाणार्थ
(ग्रावा) यह शब्द निघं० (१ । १०) में मेघ-नामों में पढ़ा है। (वग्नुः) यह शब्द निघं० (१ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ५ । ४ । १-९) में की गई है ।। ८ । ३३ ।।
भाष्यसार
गृहस्थ धर्म--गृहस्थ पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह शत्रुओं का हनन करनेवाला हो, मेघ के समान सुख की वर्षा करने वाला हो। उसके रथ में धारण और आकर्षण गुण वाले घोड़े जुड़े हों। वह रथ जल और धन से युक्त हो। गृहस्थ पुरुष ऐसे रथ में विराजमान होकर अपने कार्यों की सिद्धि किया करे। विद्याप्रकाश रूप रस से भी गृहस्थ पुरुष सुभूषित रहे, जिससे गृहस्थसम्बन्धी सब व्यवहारों में गतिमान् हो सके। इस गृहाश्रम में जब कभी गृहस्थ पुरुष का मन रथ के समान अधोगामी होवे तब उसे वेदज्ञान की लगाम से रोके, शान्त करे। सब सामग्री से युक्त गृहस्थ पुरुष सोलह कलाओं से युक्त परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये गृहाश्रम का सेवन करे। वास्तव में गृहाश्रम के अधीन ही अन्य सब आश्रम हैं। वेदोक्त विधि से अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति के लिये उनका सेवन करें।।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व आश्रम गृहस्थाश्रमावर आधारित आहेत. वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार करून गृहस्थाश्रम पार पाडल्यास इहलोक व परलोकाचे सुख प्राप्त होते म्हणून परम ऐश्वर्य प्राप्तीसाठी गृहस्थाश्रमच योग्य होय.
विषय
पुढील मंत्रात प्रकारान्तराने गृहस्थ धर्माविषयीच विधान केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (वृत्रहन्) शत्रूंना विनष्ट करणार्या गृहाश्रमी मनुष्या, तू (ग्रावा) ढगाप्रमाणे सुखाची वृष्टी करणारा आहेस. ते (विद्येने सजलेल्या अशा तुम्हा सुंदर गृहाश्रमात रुप रथात (ब्रह्मणा) जल अथवा धनाद्वारे (हरी) धारण-आकर्षणशक्तीरुप दोन घोडे (युक्ता) जुंपलेले आहेत (रथाला घोडे ओढतात, तसे धन, जल आदी पदार्थांचे धारण व संग्रह गृहाश्रमामुळे होतो.) अशा प्रकारचा गृहाश्रम करण्यासाठी (अतिष्ठ) तू प्रतिज्ञा केली आहेस, पण त्यात (ते) तुझे (मन:) मन (केव्हां केव्हां) (अर्वाचीनम्) मंदत्व वा शैथिल्य आणते, त्याला तू (बग्नुना) वेदवाणीद्वारे शांत कर. (उपसामगृहीत:) गृहाश्रमासाठी आवश्यक त्या साहित्य-सामग्रीचा तू संचय केलेला (असि) आहेस. यामुळे (षोडशिने) सोळा कलांनी पूर्ण अशा (इन्द्राय) ऐश्वर्यशाली गृहाश्रम करण्यासाठी मी (एक विद्वान) (त्वा) तुला आज्ञा करीत आहे. (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य प्राप्तीसाठी (त्वा) तुला उपदेश करीत आहे की (एष:) हे जे (ते) तुझे (योनि:) घर आहे, त्यात राहून (षोडशिने) सोळा कलांनी परिपूर्ण व (इन्द्राय) ऐश्वर्ययायी गृहस्थजीवन संपन्न करण्यासाठी मी (त्वा) तुला आज्ञा करीत आहे. ॥34॥
भावार्थ
भावार्थ - सर्व आश्रम गृहाश्रमाच्या अधीन आहेत. वेदात सांगितलेल्या श्रेष्ठ आचरणाप्रमाणे गृहाश्रमाचे सेवन-पालन केल्यामुळे लोक आणि परलोक दोन्हींकडे सुख मिळते. याकरिता परमैश्वर्य प्राप्तीसाठी गृहाश्रम-सेवन अवश्य करावे. ॥34॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O married man, thou art the dispeller of foes, and sprinkler of happiness like a cloud. In this chariot of thy life of a house-holder, possessing water and riches, are yoked two horses of restraint and attraction. Take a vow to lead the life of a householder. Appease thy drooping mind with the sayings of the Vedas. Thou art fully equipped with the requisites of married life. I order thee to lead married life full of prosperity and sixteen traits. This is thy home. I order thee to lead married life full of prosperity and sixteen traits.
Meaning
Man of the household, destroyer of the enemy, come and sit in this chariot of grihastha in which are yoked two ‘horses’, Draw and Hold (attraction and preservation or yoga and kshema). And if your mind sometime is down, then, with the voice of the Veda bring it up to peace, stand as a rock, and shower like a cloud with joy. You are accepted and consecrated in the matrimonial dharma for the sixteen fold honour and glory of life. This grihastha is now your haven. You are given up and dedicated to this sixteen fold programme of the family life.
Translation
O killer of the nescience, mount your chariot. Our prayers have yoked your horses. May the pressing stone with its sweet noise make your mind inclined towards us. (1) O devotional bliss, you have been duly accepted. You to the resplendent Lord with sixteen attributes. (2) This is your abode. You to the resplendent Lord with sixteen attributes. (3)
Notes
Vrtrahan, O killer of nescience. In legend, Vrtra is a demon. whom, Indra killed. According to Yaska, cloud also is called Vrtra, because it covers the sun. Brahmana, by prayers; by divine knowledge also. Arvachinam, inclined towards us. Sodagine, to one with sixteen attributes or accomplishments, सहस्रकलात्तम्पूर्णाय Also to one who is praised with sixteen praise-songs.
बंगाली (1)
विषय
অথ প্রকারান্তরেণ গৃহস্থধর্ম্মমাহ ॥
এখন প্রকারান্তরে গৃহস্থ ধর্ম্ম পরবর্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (বৃত্রহন্) শত্রুদিগকে হত্যাকারী গৃহাশ্রমী! তুমি (গ্রাবা) মেঘতুল্য সুখ বর্ষণকারী (তে) তোমার যে রমণীয় বিদ্যা প্রকাশময় গৃহাশ্রম বা রথে (ব্রহ্মণা) জল বা ধন দ্বারা (হরী) ধারণ ও আকর্ষণ অর্থাৎ টানিবার সমান অশ্ব (যুক্তা) যুক্ত করা হয়, সেই গৃহাশ্রম করিবার (অতিষ্ঠ) প্রতিজ্ঞা করিয়া, এই গৃহাশ্রমে (তে) তোমার যে (মনঃ) মন (অর্বাচীনম্) অধোগামী হয় উহাকে (বগ্নুনা) বেদবাণী দ্বারা শান্ত করিয়া যদ্দ্বারা তুমি (উপয়ামগৃহীতঃ) গৃহাশ্রম করিবার সামগ্রী গ্রহণ করিয়াছ । এই কারণে (ষোডশিনে) ষোল কলায় পরিপূর্ণ (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য প্রদানকারী গৃহাশ্রম করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে উপদেশ করি । (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য হেতু (ত্বা) তোমাকে উপদেশ করি । যে (এষঃ) এই (তে) তোমার (য়োনিঃ) ঘর, এই (ষোডশিনে) ষোল কলায় পরিপূর্ণ (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য প্রদানকারী গৃহাশ্রম করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে আজ্ঞা দিতেছি ॥ ৩৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- গৃহাশ্রমের অধীন সব আশ্রম এবং বেদোক্ত শ্রেষ্ঠ ব্যবহার দ্বারা যে গৃহাশ্রমের সেবা করা হয় তদ্দ্বারা এই লোক ও পরলোকের সুখ হওয়ায় পরমৈশ্বর্য্য পাইবার জন্য গৃহাশ্রমই সেবন করা উচিত ॥ ৩৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আ তি॑ষ্ঠ বৃত্রহ॒ন্ রথং॑ য়ু॒ক্তা তে॒ ব্রহ্ম॑ণা॒ হরী॑ । অ॒র্বা॒চীন॒ꣳ সু তে॒ মনো॒ গ্রাবা॑ কৃণোতু ব॒গ্নুনা॑ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা ষোড॒শিন॑ऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা ষোড॒শিনে॑ ॥ ৩৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অতিষ্ঠেত্যস্য গোতম ঋষিঃ । গৃহপতয়ো দেবতাঃ । আর্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ । উপয়ামেত্যস্য আর্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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