यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 58
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - भूरिक् आर्षी जगती,
स्वरः - निषादः
137
विश्वे॑ दे॒वाश्च॑म॒सेषून्नी॒तोऽसु॒र्होमा॒योद्य॑तो रु॒द्रो हू॒यमा॑नो॒ वातो॒ऽभ्यावृ॑तो नृ॒चक्षाः॒ प्रति॑ख्यातो भ॒क्षो भक्ष्यमा॑णः पि॒तरो॑ नाराश॒ꣳसाः॥५८॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑। दे॒वाः। च॒म॒सेषु॑ उन्नी॑त॒ इत्युत्ऽनी॑तः। असुः॑। होमा॑य। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। रु॒द्रः। हू॒यमा॑नः। वातः॑। अभ्यावृ॑त॒ इत्य॑भि॒ऽआवृ॑तः। नृ॒चक्षा॒ इति॑ नृ॒ऽचक्षाः॑। प्रति॑ख्यात॒ इति॒ प्रति॑ऽख्यातः। भ॒क्षः। भ॒क्ष्यमा॑णः। पि॒तरः॑। ना॒रा॒श॒ꣳसाः ॥५८॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे देवा श्चमसेषून्नीतोसुर्हामायोद्यतो रुद्रो हूयमानो वातो भ्यावृत्तो नृचक्षाः प्रतिख्यातो भक्षो भक्ष्यमाणः पितरो नाराशँसाः सन्नः सिन्धु॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वे। देवाः। चमसेषु उन्नीत इत्युत्ऽनीतः। असुः। होमाय। उद्यत इत्युत्ऽयतः। रुद्रः। हूयमानः। वातः। अभ्यावृत इत्यभिऽआवृतः। नृचक्षा इति नृऽचक्षाः। प्रतिख्यात इति प्रतिऽख्यातः। भक्षः। भक्ष्यमाणः। पितरः। नाराशꣳसाः॥५८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण विद्वद्विषयमाह॥
अन्वयः
यैर्होमाय यज्ञविधानेन चमसेषु सुगन्ध्यादिरुन्नीतोऽसुरुद्यतो रुद्रो हूयमानो नृचक्षाः प्रतिख्यातो वातोऽभ्यावृतस्तच्छोधितो भक्ष्यमाणो भक्षः कृतस्ते विश्वे देवा नाराशंसाः पितरश्च वेद्याः॥५८॥
पदार्थः
(विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (चमसेषु) मेघेषु। चमस इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰१।१०) (उन्नीतः) ऊर्ध्वं नीतः सुगन्धादिपदार्थः (असुः) प्राणः (होमाय) दानायादानाय वा (उद्यतः) प्रयत्नेन प्रेरितः (रुद्रः) जीवः (हूयमानः) स्वीकृतः (वातः) बाह्यो वायुः (अभ्यावृतः) आभिमुख्येनाङ्गीकृतः (नृचक्षाः) नॄन् मनुष्यान् चष्ट इति (प्रतिख्यातः) ख्यातं ख्यातं प्रतीति (भक्षाः) भोज्यसमूहः (भक्ष्यमाणः) भुज्यमानः (पितरः) ज्ञानिनः (नाराशंसाः) नारानाशंसन्ति नराशंसानामिम उपदेशकाः। अयं मन्त्रः (शत॰ १२। ३। १। २७-३३) व्याख्यातः॥५८॥
भावार्थः
ये विद्वांसः परोपकारबुद्ध्या विद्यां विस्तार्य्य सुगन्धिपुष्टिमधुरता रोगनाशकगुणयुक्तानां द्रव्याणां यथावन्मेलनं कृत्वाऽग्नौ हुत्वा वायुवृष्टिजलौषधी सेवित्वा शरीरारोग्यं जनयन्ति, त इह पूज्यतमाः सन्ति॥५८॥
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण विद्वद्विषयमाह॥
सपदार्थान्वयः
यैर्होमाय दानायादानाय वा यज्ञविधानेन चमसेषु मेघेषु सुगन्ध्यादिरुन्नीतः ऊर्ध्वं नीतः सुगन्धादिपदार्थ:, असुः प्राणः उद्यतः प्रयत्नेन प्रेरितः रुद्र: जीव हूयमानः स्वीकृतः, नृचक्षा:नॄन्=मनुष्यान् चष्ट इति प्रतिख्यातः ख्यातं ख्यातं प्रतीति, वातः बाह्यो वायु: अभ्यावृतः आभिमुख्येनाङ्गीकृतः, तच्छोधितो भक्ष्यमाणः भुज्यमान: भक्षः भोज्यसमूह: कृतस्ते विश्वे सर्वे देवाः विद्वांस: नाराशंसाः नरानाशंसन्ति नराशंसानामिम उपदेशका: पितर: ज्ञानिनः च वेद्याः॥ ८ । ५८॥ [यैर्होमाय यज्ञविधानेन चमसेषु सुगन्ध्यादिरुन्नीतः....ते विश्वे देवा नाराशंसाः पितरश्च जायन्ते]
पदार्थः
(विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (चमसेषु) मेघेषु। चमस इति मेघना० ॥ निघं० १। १० ॥(उन्नीतः) ऊर्ध्वं नीतः सुगन्धादिपदार्थ: (असुः) प्राणः (होमाय) दानायादानाय वा (उद्यतः) प्रयत्नेन प्रेरितः (रुद्रः) जीवः (हूयमानः) स्वीकृतः (वातः) बाह्यो वायुः (अभ्यावृतः)आभिमुख्येनाङ्गीकृतः (नृचक्षाः) नॄन् मनुष्यान् चष्ट इति (प्रतिख्यातः) ख्यातं ख्यातं प्रतीति (भक्षः) भोज्यसमूह: (भक्ष्यमाणः) भुज्यमान: (पितरः) ज्ञानिनः (नाराशंसाः) नारानाशंसन्ति नराशंसानामिम उपदेशकाः ॥ अयं मन्त्र: शत० १२। ३। १। २७-३३ व्याख्यातः ॥ ५८ ॥
भावार्थः
ये विद्वांस: परोपकारबुद्ध्या विद्यां विस्तार्य्य सुगन्धिपुष्टिमधुरतारोगनाशकगुणयुक्तानां द्रव्याणां यथावन्मेलनं कृत्वाऽग्नौ हुत्वा वायुवृष्टिजलोषधीः सेवित्वा शरीरारोग्यं जनयन्ति त इह पूज्यतमा: सन्ति ॥ ८ । ५८ ॥
भावार्थ पदार्थः
नाराशंसा:=पूज्यतमाः ॥
विशेषः
वसिष्ठः । विश्वेदेवा:=सर्वेविद्वांसः। भुरिगार्षी जगती । निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर प्रकारान्तर से विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जिन विद्वानों ने यज्ञ-विधान से (चमसेषु) मेघों में सुगन्धित आदि वस्तुओं को (उन्नीतः) ऊँचा पहुंचाया (असुः) अपना प्राण (उद्यतः) अच्छे यत्न से लगाया (रुद्रः) जीव को पवित्र कर (हूयमानः) स्वीकार किया, (नृचक्षाः) मनुष्यों को देखने वाले का (प्रतिख्यातः) जिन्होंने वादानुवाद किया (वातः) बाहर के वायु अर्थात् मैदान के कठिन वायु के सह वायु शुद्ध किये फल (भक्ष्यमाणः) कुछ भोजन करने योग्य पदार्थ (भक्षः) खाइये (नाराशंसाः) प्रशंसाकर मनुष्यों के उपदेशक (विश्वेदेवाः) सब विद्वान् (पितरः) उन सब के उपकारकों को ज्ञानी समझने चाहियें॥५८॥
भावार्थ
जो विद्वान् लोग परोपकार बुद्धि से विद्या का विस्तार, करने, सुगन्धि पुष्टि मधुरता और रोगनाशक गुणयुक्त पदार्थों का यथायोग्य मेल अग्नि, के बीच में उन का होम कर शुद्ध वायु वर्षा का जल वा ओषधियों का सेवन कर के शरीर को आरोग्य करते हैं वे इस संसार में अत्यन्त प्रशंसा के योग्य होते हैं॥५८॥
विषय
विश्वेदेवाः पितरः
पदार्थ
१. ( चमसेषु ) = ‘सत्य, यश व श्री’ [ truth, glory and prosperity ] के आचमनों के होने पर ( उन्नीतः ) = यह ऊपर ले-जाया गया होता है, उन्नति के शिखर पर पहुँचता है। वस्तुतः यह ( विश्वेदेवाः ) = सब दिव्य गुणोंवाला हो जाता है। इस मन्त्रभाग का अर्थ इस प्रकार भी होता है कि ( चमसेषु ) = अन्नमयादि कोशों में [ तिर्यग् बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नः ] ( उन्नीतः ) = ऊर्ध्वगति को प्राप्त कराया गया सोम ( विश्वेदेवाः ) = सब दिव्य गुणों का कारण बनता है।
२. ( होमाय उद्यतः ) = सदा अग्निहोत्रादि यज्ञों में लगा हुआ यह ( असुः ) = [ असु क्षेपणे ] सब रोगों को अपने से परे फेंकनेवाला बनता है।
३. ( हूयमानः ) = लोगों से पुकारा जाता हुआ यह ( रुद्रः ) = [ रुत्+र ] उपदेश देनेवाला, ज्ञान देनेवाला होता है।
४. ( वातः ) = निरन्तर कार्यों में लगा हुआ यह ( अभ्यावृतः ) = सब ओर से विषयों से व्यावृत्त होता है।
५. ( प्रतिख्यातः ) = लोगों में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ-हुआ यह ( नृचक्षाः ) = [ looks after men ] लोगों का रक्षण करनेवाला होता है, अर्थात् लोगों में इसकी ऐसी प्रसिद्धि हो जाती है कि यह सबका ध्यान करता है।
६. ( भक्ष्यमाणः भक्षः ) = खानेवाले लोगों के खा लेने पर ही यह खानेवाला होता है, अर्थात् यह कभी अकेला नहीं खाता। इसकी आय में ‘आध्र [ आधार देने योग्य ग़रीब लोग ], मन्यमानः, तुरः [ आदरणीय अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाला पुरुष ] और राजा—इन सभी को भाग मिलता है। यह ग़रीबों की मदद करता है, मान्य विद्वानों की सेवा करता है, राजा को कर देता है और बचे हुए को खाता है।
७. ( नाराशंसाः ) = मनुष्यों के प्रति ज्ञान का शंसन करनेवाला यह सचमुच ( पितरः ) = लोगों का रक्षक होता है। सच्चे पिता ऐसे ही व्यक्ति होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — लोकहित में प्रवृत्त हुए-हुए ज्ञान के देनेवाले लोग ही सच्चे पिता होते हैं।
विषय
प्रजापति के कर्तव्य भेद से भिन्न २ रूप । पक्षान्तर में सोमयाग का वर्णन ।
भावार्थ
( चमसेषु उन्नीतः ) भिन्न २ पात्रों में अर्थात् राज्य के भिन्न भिन्न अंगों में बंटा हुआ राजपद ( विश्वे देवाः ) ' विश्वेदेव' अर्थात् समस्त विद्वान् राज्यदाधिकारियों के रूप से रहता है । ( होमाय उधतः ) होम
आहुति करने के लिये उद्यत अर्थात् युद्ध करने के लिये उद्यत राजा (असुः ) ' असु' शस्त्र प्रक्षेता धनुर्धर के रूप में होता है | ( हूयमानः रुद्धः ) जब वह युद्ध में आहुति होजाता है तब वह 'रुद' दुष्टों को रुलाने में समर्थ ' रुद्र' रूप होजाता है । ( अभि आवृत्तः ) जब साक्षात् सामने वेग से आक्रमण कर रहा होता है तब वह ( वातः ) 'वात', प्रचण्ड वायु के समान 'वात' रूप साक्षात् 'आँधी' होता है । अथवा (अभि आवृतः ) जब राजा प्रजा को या परराष्ट्र को चारों ओर से घेर लेता है तब वह ( वात: ) बात वायु के समान उसको घेरता है । ( प्रतिख्यातः प्रत्येक पुरुष को देखनेवाला होने से वह ( नृचक्षा : ) मनुष्यों का निरीक्षक 'नृचक्षा' कहाता है । ( भक्ष्यमाणः भक्षः) जब समस्त प्रजाजन उसके राजत्व का सुख भोगते हैं तब वह 'भक्ष' सब राष्ट्र का भोक्ता कहाता है । तब ( नाराशंसाः ) सभी उसकी प्रजा के लोग उसकी प्रशंसा करते हैं और नाना प्रकार से वह प्रजा का पालन करता है इसलिये वही राजा ( पितरः ) पितृगणों या प्रजापालकों के रूप में प्रकट होता है ।
टिप्पणी
५८-० भक्षः पीतः पितरो नाराशंसाः साद्यमानः, इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिदेव पूर्वोक्ते । भुरिगार्षी जगती | निषादः ॥
विषय
फिर प्रकारान्तर से विद्वानों के विषय में उपदेश किया है।।
भाषार्थ
जिन्होंने (होमाय) दान वा आदान क्रिया के लिये यज्ञानुष्ठान से (चमसेषु) बादलों में (उन्नीतः) सुगन्ध आदि पदार्थों को ऊपर पहुँचाया है, (असुः) प्राण को (उद्यतः) प्रयत्न से प्रेरित किया है, (रुद्रः) जीव को (हूयमानः) स्वीकार किया है, (नृचक्षाः) मनुष्यों को उपदेश करने वाले वा देखने वाले ईश्वर को (प्रतिख्यातः) प्रत्येक पदार्थ में बतलाया है, (वातः) बाह्य वायु को (अभ्यावृतः) सम्मुखता से अङ्गीकार किया है, यज्ञ से शुद्ध किये (भक्ष्यामाणः) भोज्य पदार्थों को (भक्षः) भक्ष्य रूप में स्वीकार किया है वे (विश्वे)सब लोग (देवाः) विद्वान् (नाराशंसाः) श्रेष्ठ नरों को प्रशंसा करने वालों के उपदेशक, और (पितरः) ज्ञानी हैं, ऐसा समझें ॥ ८ । ५८ ।।
भावार्थ
जो विद्वान् लोग परोपकार-बुद्धि से विद्या का विस्तार करके सुगन्धि, पुष्टि, मधुरता, रोगनाशक गुणों से युक्त द्रव्यों को यथावत् मिलाकर उन्हें अग्नि में होम करके वायु, वर्षाजल और औषधियों के सेवन से शरीर को नीरोग करते हैं वे इस जगत् में पूज्यतम हैं।।८ । ५८॥
प्रमाणार्थ
(चमसेषु ) 'चमस्' शब्द निघं० (१ । १०) में मेघ-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१२ । ३ । १ । २७-३३) में की गई है । ८ । ५८ ।।
भाष्यसार
विद्वान् गृहस्थ--जो गृहस्थ परोपकार बुद्धि से विद्या का विस्तार करके सुगन्धित, पुष्टिकारक, मधुर, रोगनाशक आदि गुणों से युक्त द्रव्यों को होम के लिये यथावत् मिला अग्नि में आहुति देते हैं और उन्हें मेघों में ऊपर पहुँचाते हैं वे सब प्राणियों के प्राण को बलवान बनाते हैं, सब जीवों को अपनाते हैं मनुष्यों के द्रष्टा ईश्वर को प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान देखते हैं, वायु को सब ओर से शुद्ध करते हैं, जल आादि पेय तथा औषधि आदि भक्ष्य पदार्थों को शुद्ध करते हैं, वे देव और पितर लोग सबके पूज्यतम हैं।।८ । ५८ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
जे विद्वान लोक परोपकारी बुद्धीने विद्या वाढवितात. सुगंधित, मधुर, पुष्टिकारक, रोगनाशक पदार्थ अग्नीमध्ये टाकून वायू शुद्ध होण्यास मदत करून पर्जन्याच्या साह्याने वृक्षांचे पोषण करून शरीराचे आरोग्य राखण्यास मदत करतात ते या जगात अत्यंत प्रशंसनीय असतात.
विषय
पुन्हा वेगळ्या रुपाने विद्वानांविषयीच कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - ज्या विद्वानांनी यज्ञाचे आयोजन करून (चमसेषु) मेघांमधे सुवासिक (औषधयुक्त होम सामुग्री धृत आदी) पदार्थ (उन्नीत:) वर आकाशात पाठविले आणि (असु:) आपले जीवन (उद्यत:) उद्यम आणि उत्तम यत्न करीत व्यतीत केले, तसेच (रुद्र:) आपल्या जीवास (जीवनाम) पवित्र करण्यासाठी हे विद्वद्व्रत (हूयमान:) स्वीकारले आणि (नृचक्ष:) मनुष्यांना आनंदित करणारे तत्त्वज्ञान (प्रतिख्यात:) वादानुवाद, चर्चाद्वारे प्रकट केले, (वात:) स्वत: (ग्राम व नगराच्या) बाहेरच्या निवांत स्थानी, मुक्त हवेत वायुमय प्रदेशात निवास करून (भक्ष्यमाण:) खाण्याकरिता (भक्ष:) वनातील शुद्ध स्वच्छ फळांचे सेवन केले, अशा प्रशंसनीय, (सर्वत्यागी, तपस्वी) हितोपदेशक (विश्वेदेवा:) सर्व विद्वानांना (पित्य:) महान् लोकापकारक व ज्ञानी मानले पाहिजे. ( सर्व मनुष्यांवर त्या विद्वानांचे अनंत उपकार आहेत) ॥58॥
भावार्थ
भावार्थ - जे विद्वद्गण परोपकार भावनेने विद्येचा विस्तार करतात, सुगंधियुक्त, पुष्टिकारक, मधुर आणि रोगनाशक पदार्थांचे यथोचित सम्मिश्रण करून यज्ञाग्रीमध्ये त्या पदार्थांची आहुती देतात व परिणामीं वायुला शुद्धकरून शुद्ध वृष्टिजल व औषधींचे सेवन करून (स्वत:च्या व सर्वांच्या शरीरास नीरोग करतात, ते विद्वद्गण या जगात अत्यंत प्रशंसनीय होतात ॥58॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Those who through Homa spread wide up to clouds the fragrant spices, have devoted their lives to noble deeds, are accepted as mighty souls, are the well known seers of men, and are known as powerful like a storm, are eaters of eatables, and should all be recognised as wise, learned preachers of humanity.
Meaning
Learned, wise and generous people of the world, those who raised the libations in the ladles for the fire and sent up the fragrance to the clouds, who dedicated and raised their mind’s energy for sacrifice and service, who respected and served life as sacred, who spoke in praise of the divine omnipresence of the all-seeing eye of the Lord of existence, who enjoyed the soothing touch of the air around and received the food sanctified by yajna, they are the noble and brilliant ‘devas’, learned and parental seniors, and reverential friends of humanity.
Translation
You are visvedevah (all the bounties of Nature) when held in the ladles. (1) You are asu (the vital breath) when ready for libation. (2) You are rudra (the punisher) when being invoked. (3) You are vata (the wind) when as remnant brought back. (4) You are nrcaksas (the overseer of men) when requested for partaking. (5) You аге bhaksa (food) when being consumed. (6) You are pitarah narasamsah (the elders, the benefactors of men) when deposited. (7)
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ প্রকারান্তরেণ বিদ্বদ্বিষয়মাহ ॥
পুনঃ প্রকারান্তরে বিদ্বদ্বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যে বিদ্বান্গণ যজ্ঞ-বিধান দ্বারা (চমসেষু) মেঘে সুগন্ধিতাদি বস্তু (উন্নীতঃ) উন্নীত করিয়াছেন, (অসুঃ) নিজের জীবন (উদ্যতঃ) ভাল প্রযত্নে লাগাইয়াছেন, (রুদ্রঃ) জীবকে পবিত্র করিয়া (হূয়মানঃ) স্বীকার করিয়াছেন, (নৃচক্ষঃ) মনুষ্যদিগকে প্রসন্নকারী (প্রতিখ্যাতঃ) যাহারা বাদানুবাদ দ্বারা চাহিয়াছেন, তাহারা (বাতঃ) বাহিরের বায়ু অর্থাৎ ময়দানের কঠিন বায়ু সহ বায়ু শুদ্ধ কৃত ফল (ভক্ষ্যমাণঃ) কিছু ভোজন করিবার যোগ্য পদার্থ (ভক্ষঃ) ভক্ষণ করুন । (নারাশংস) প্রশংসাকারী মনুষ্যদিগের উপদেশক (বিশ্বেদেবাঃ) সকল বিদ্বান্ (পিতরঃ) সেই সব উপকারকদিগকে জ্ঞানী বোধ করা উচিত ॥ ৫৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে বিদ্বান্গণ পরোপকার বুদ্ধি দ্বারা বিদ্যার বিস্তার করিয়া, সুগন্ধি, পুষ্টি, মধুরতা ও রোগনাশক গুণযুক্ত পদার্থের যথাযোগ্য মিলন করিয়া অগ্নিমধ্যে তাহার হোম করিয়া শুদ্ধ বায়ু বর্ষার জল বা ঔষধি সমূহের সেবন করিয়া শরীরকে আরোগ্য করেন তাঁহারা এই সংসারে অত্যন্ত প্রশংসার যোগ্য হইয়া থাকেন ॥ ৫৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বিশ্বে॑ দে॒বাশ্চ॑ম॒সেষূন্নী॒তোऽসু॒র্হোমা॒য়োদ্য॑তো রু॒দ্রো হূ॒য়মা॑নো॒ বাতো॒ऽভ্যাবৃ॑ত্তো নৃ॒চক্ষাঃ॒ প্রতি॑খ্যাতো ভ॒ক্ষো ভ॒ক্ষ্যমা॑ণঃ পি॒তরো॑ নারাশ॒ꣳসাঃ ॥ ৫৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বিশ্বে দেবোশ্চেত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃদার্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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