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यजुर्वेद अध्याय - 8

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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 59
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत् जगती,विराट आर्षी गायत्री, स्वरः - निषादः
    70

    स॒न्नः सिन्धु॑रवभृ॒थायोद्य॑तः समु॒द्रोऽभ्यवह्रि॒यमा॑णः सलि॒लः प्रप्लु॑तो॒ ययो॒रोज॑सा स्कभि॒ता रजा॑सि वी॒र्येभिर्वी॒रत॑मा॒ शवि॑ष्ठा। या पत्ये॑ते॒ऽअप्र॑तीता॒ सहो॑भि॒र्विष्णू॑ऽअग॒न् व॑रुणा पू॒र्वहू॑तौ॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒न्नः। सिन्धुः॑। अ॒व॒भृ॒थायेत्य॑वऽभृ॒थाय॑। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। स॒मु॒द्रः। अ॒भ्य॒व॒ह्रि॒यमाण॒ इत्य॑भिऽअवह्रि॒यमा॑णः। स॒लि॒लः। प्रप्लु॑त॒ इति॒ प्रऽप्लु॑तः। ययोः॑। ओज॑सा। स्क॒भि॒ता। रजा॑सि। वी॒र्येभिः॑। वी॒रत॒मेति॑ वी॒रऽत॑मा। शवि॑ष्ठा। या। पत्ये॑ते॒ऽइति॒ पत्ये॑ते। अप्र॑ती॒तेत्यप्र॑तिऽइता। सहो॑भि॒रिति॒ सह॑ऽभिः। विष्णूऽइति॒ विष्णू॑। अ॒ग॒न्। वरु॑णा। पू॒र्वहू॑ता॒विति॑ पू॒र्वऽहू॑तौ ॥५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सन्नः सिन्धुरवभृथायोद्यतः समुद्रो भ्यवहि््रयमाणः सलिलः प्रप्लुतो ययोरोजसा स्कभिता रजाँसि वीर्येभिर्वीरतमा शविष्ठा । या पत्येतेऽअप्रतीता सहोभिर्विष्णूऽअगन्वरुणा पूर्वहूतौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सन्नः। सिन्धुः। अवभृथायेत्यवऽभृथाय। उद्यत इत्युत्ऽयतः। समुद्रः। अभ्यवह्रियमाण इत्यभिऽअवह्रियमाणः। सलिलः। प्रप्लुत इति प्रऽप्लुतः। ययोः। ओजसा। स्कभिता। रजासि। वीर्येभिः। वीरतमेति वीरऽतमा। शविष्ठा। या। पत्येतेऽइति पत्येते। अप्रतीतेत्यप्रतिऽइता। सहोभिरिति सहऽभिः। विष्णूऽइति विष्णू। अगन्। वरुणा। पूर्वहूताविति पूर्वऽहूतौ॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ गार्हस्थ्यकर्म्मणि यज्ञादिव्यवहारमाह॥

    अन्वयः

    यैरवभृथायाभ्यवह्रियमाणः सलिल उद्यतः सिन्धुः सन्नः समुद्रः प्रप्लुतः क्रियते, ययोरोजसा रजांसि स्कभिता स्कभितानि, या वीर्य्येभिर्वीरतमा शविष्ठा सहोभिरप्रतीता विष्णू वरुणा पूर्वहूतौ पत्येते तावगंस्ते सुखिनो भवन्ति॥५९॥

    पदार्थः

    (सन्नः) अवस्थापितः। सन्न इति पदं महीधरेण भ्रान्त्या पूर्वस्य मन्त्रस्यान्ते स्वीकृतम् (सिन्धुः) नदी। सिन्धव इति नदीनामसु पठितम्। (निघं॰१।१३) (अवभृथाय) पवित्रीकरणाय यज्ञान्तस्नानाय वा (उद्यतः) उत्कृष्टतया यतः (समुद्रः) अन्तरिक्षम्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। (निघं॰१।३) (अभ्यवह्रियमाणः) भुज्यमानः (सलिलः) शुद्धं जलं विद्यते यस्मिन् सः। अर्शआदित्वादच्। सलिलमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१।१२) (प्रप्लुतः) प्रकृष्टगुणैः प्राप्तः (ययोः) होतृयजमानयोः प्रशंसिता गुणाः सन्ति (ओजसा) बलेन (स्कभिता) स्तम्भितानि धृतानि (रजांसि) लोकाः (वीर्य्येभिः) (वीरतमा) अतिशयेन वीरौ। अत्र सर्वत्राकारादेशः (शविष्ठा) अतिशयेन नित्यबलसाधकौ (या) यौ (पत्येते) श्रेष्ठैः प्राप्येते (अप्रतीता) अप्रतीतगुणौ (सहोभिः) बलादिभिः (विष्णू) व्याप्तिशीलौ (अगन्) गच्छन्तु प्राप्नुवन्तु, अत्र गमधातोर्लोडर्थे लुङ् । मन्त्रे घसह्वरणश॰। (अष्टा॰२।४।८०) इति च्लेर्लुगनुनासिकलोपश्च (वरुणा) श्रेष्ठौ (पूर्वहूतौ) पूर्वैः शिष्टैर्विद्वद्भिराहूतौ। अयं मन्त्रः (शत॰ १२। ६। १। ३४-३६) व्याख्यातः॥५९॥

    भावार्थः

    मनुष्याणां यज्ञादिव्यवहारेण विना गार्हस्थ्यकर्म्मणि सुखं न जायते॥५९॥

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    विषयः

    अथ गार्हस्थ्यकर्म्मणि यज्ञादिव्यवहारमाह॥

    सपदार्थान्वयः

    यैरवभृथाय पवित्रीकरणाय यज्ञान्तस्नानाय वा अभ्यवह्रियमाणः भुज्यमानः सलिल: शुद्धं जलं विद्यते यस्मिन् सः, उद्यतः उत्कृष्टतया यतः सिन्धुः नदी सन्नः अवस्थापितः, समुद्रः अन्तरिक्षं, प्रप्लुतः प्रकृष्टगुणैः प्राप्तः क्रियते, ययोः होतृयजमानयोः प्रशंसिता गुणा: सन्ति ओजसा बलेन रजांसि लोका: स्कभिता=स्कभितानि स्तम्भितानि=धृतानि, या यौ वीर्येभिर्वीरतमा अतिशयेन वीरौ शविष्ठा अतिशयेननित्यबलसाधकौ, सहोभि: बलादिभि: अप्रतीताअप्रतीतगुणौ विष्णू व्याप्तिशीलौ वरुणा श्रेष्ठौ पूर्वहूतौ पूर्वै:=शिष्टैर्विद्वद्भिराहूतौ प्रत्येते श्रेष्ठैः प्राप्येते, तावगन् गच्छन्तु=प्राप्नुवन्तु ते सुखिनो भवन्ति॥ [यैरवभृथायाभ्यवह्रियमाणः सलिलः.....क्रियते......ते सुखिनो भवन्ति]

    पदार्थः

    (सन्नः) अवस्थापितः। सन्न इति पदं महीधरेण भ्रान्त्या पूर्वस्य मन्त्रस्यान्ते स्वीकृतम्(सिन्धुः) नदी। सिन्धव इति नदीना० ॥ निघं० १। १३ ॥(अवभृथाय) पवित्रीकरणाय यज्ञान्तस्नानाय वा (उद्यतः) उत्कृष्टतया यतः (समुद्रः) अन्तरिक्षम्। समुद्र इत्यन्तरिक्षना०॥ निघं० १।३ ॥(अभ्यवह्रियमाणः) भुज्यमान: (सलिलः) शुद्धं जलं विद्यते यस्मिन् सः। अर्शआदित्यादच् । सलिलमित्युदकना० ॥ निघं० १ । १२॥(प्रप्लुतः) प्रकृष्टगुणैः प्राप्तः (ययोः) होतृयजमानयोः प्रशंसिता गुणा: सन्ति (ओजसा)बलेन (स्कभिता) स्तम्भितानि धृतानि (रजांसि) लोका: (वीर्य्येभिः)(वीरतमा) अतिशयेन वीरी। अत्र सर्वत्राकारादेशः(शविष्ठा) अतिशयेन नित्यबलसाधकौ (या) यौ (पत्येते) श्रेष्ठैः प्राप्येते (अप्रतीता) अप्रतीतगुणौ(सहोभिः)बलादिभि: (विष्णू) व्याप्तिशीलौ(अगन्) गच्छन्तु प्राप्तुवन्तु । अत्र गमधातोर्लोडर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणश० ॥ अ० २।४ । ८० ॥ इति च्लेर्लुगनुनासिकलोपश्च (वरुणा) श्रेष्ठौ (पूर्वहूतौ) पूर्वैः शिष्टैर्विद्वद्भिराहूतौ । अयम्मन्त्र: शत० १२। ६।१। ३४-३६ व्याख्यातः ॥ ८ । ५९ ॥

    भावार्थः

    मनुष्याणां यज्ञादिव्यवहारेण विना गार्हस्थ्यकर्मणि सुखं न जायते ॥ ८। ५९॥

    विशेषः

    सन्न इत्यस्य वसिष्ठ: ऋृषिः। विश्वेदेवाः=सर्वे विद्वांसः। आर्षी बृहती। निषादः।यापत्येते इत्यस्य विराडार्षी गायत्री ॥ षड्जः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब गृहस्थ के कर्म्म में यज्ञादि व्यवहार का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जिन्होनें (अवभृथाय) यज्ञान्त स्नान और अपने आत्मा के पवित्र करने के लिये (अभ्यवह्रियमाणः) भोगने योग्य (सलिलः) जिसमें उत्तम जल है, वह व्यवहार (उद्यतः) नियम से सम्पादन किया (सिन्धुः) नदियां (सन्नः) निर्माण कीं (समुद्रः) समुद्र (प्रप्लुतः) अपने उत्तमों गुणों से पाया है, वे विद्वान् लोग (ययोः) जिन के (ओजसा) बल से (रजांसि) लोक-लोकान्तर (स्कभिता) स्थित हैं, (या) जो (वीर्येभिः) और पराक्रमों से (वीरतमा) अत्यन्त वीर (शविष्ठा) नित्य बल सम्पादन करने वाले (सहोभिः) बलों से (अप्रतीता) मूर्खों को जानने अयोग्य (विष्णू) व्याप्त होनेहारे (वरुणा) अतिश्रेष्ठ स्वीकार करने योग्य (पूर्वहूतौ) जिस का सत्कार पूर्व उत्तम विद्वानों ने किया हो, जो (पत्येते) श्रेष्ठ सज्जनों को प्राप्त होते हैं, उन यज्ञकर्म्म, भक्ष्य पदार्थ और विद्वानों को (अगन्) प्राप्त होते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं॥५९॥

    भावार्थ

    यज्ञ आदि व्यवहारों के विना गृहाश्रम में सुख नहीं होता॥५९॥

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    विषय

    स्व-स्वामित्व

    पदार्थ

    १. ( सिन्धुः ) = [ स्यन्दते ] अपने कार्यमार्ग पर नदी-जल की भाँति निरन्तर चलनेवाला यह ( सन्नः ) = एक दिन प्रभु की गोद में बैठा हुआ होता है, निरन्तर आगे बढ़ता हुआ प्रभु को प्राप्त कर लेता है। 

    २. प्रभु को प्राप्त करने पर ( समुद्रः ) = [ स-मुद्र ] अत्यन्त आनन्द से युक्त यह ( अवभृथाय उद्यतः ) = यज्ञान्त स्नान के लिए उद्यत होता है। आज इसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण होता है, उसी पूर्ति के उपलक्ष्य में यह यज्ञान्त स्नान होता है। 

    ३. आज इसके जीवन में ( सलिलः प्रप्लुतः ) = प्रभु-प्राप्ति के आनन्द का अथाह जल ही उमड़ पड़ा है और यह ( अभ्यवह्रियमाणः ) = इन सांसारिक भोगों व स्वर्गादि के सुखों से पराङ्मुख हो गया है। प्रभु-प्राप्ति के आनन्द के सामने ये सब आनन्द अत्यन्त तुच्छ हैं। 

    ४. इस प्रकार जिन पति-पत्नियों के जीवन में वे ३४ जीवन-सूत्र मिलते हैं, वे ऐसे होते हैं कि ( ययोः ) = जिनके ( ओजसा ) = ओज से, शक्ति से, ( रजांसि ) = ये लोक ( स्कभिता ) = थामे गये हैं। वस्तुतः संसार ऐसे सुन्दर जीवनवाले पुरुषों के सहारे ही स्थित है। ये पति-पत्नी ( वीर्येभिः ) = शक्तियों से ( वीरतमा ) =  अतिशयेन शक्तिशाली होते हैं। ( शविष्ठा ) = अत्यन्त बलवान् व क्रियाशील होते हैं [ शवस् = बल, शव् गतौ ]। 

    ५. ( या पत्येते ) = ये वे पति-पत्नी हैं जो अपना स्वामित्व करते हैं, जितेन्द्रिय होते हैं। ( सहोभिः ) = अपने बलों से ये ( अप्रतीता ) = [ अ प्रति इत ] अद्वितीय matchless होते हैं। ( विष्णू ) = व्यापक मनोवृत्तिवाले होते हैं ( वरुणा ) = श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि ( पूर्वहूतौ ) = [ हूति   = आकारण =  आह्वान ] प्रभु की प्रार्थना में ये सर्वप्रथम ( अगन् ) = प्राप्त होते हैं। इनके जीवन में प्रतिदिन का पहला कार्य प्रभु का आराधन होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारा दैनिक जीवन प्रभु-प्रार्थना से ही प्रारम्भ हो।

    टिप्पणी

    सूचना — ५३ मन्त्र के ‘युवं तमिन्द्रापर्वता’ से पति-पत्नी का वर्णन ५९ मन्त्र के ‘ययोरोजसा’ तक चल रहा है। बीच के मन्त्र जीवन में लाने योग्य ३४ तन्तुओं का उल्लेख करते हैं। परमात्मा-जैसा तो बनना ही है। शेष ३३ देवों को भी हमें जीवन में धारण करना है। ये ३३ दिव्य गुण ही ५४ से ५९ मन्त्र के प्रारम्भ तक वर्णित हुए हैं।

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    विषय

    प्रजापति के कर्तव्य भेद से भिन्न २ रूप । पक्षान्तर में सोमयाग का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अवभृथाय ) राष्ट्र के पालन करने के लिये ( उद्यतः ) उत्कृष्ट नियमकारी राजा ( सन्नः ) अपने राज्यासन पर अभिषिक्त होकर विराजा हुआ साक्षात् ( सिन्धुः ) महान् समुद्र के समान अति गम्भीर और अगाध गुगलों से युक्त भयंकर भी होने से 'सिन्धु' रूप है । ( अभ्यवाहियमाण: ) जब प्रजाजनों द्वारा राजपद पर बैठा दिया जाता है और प्रजा उसका उपभोग करती है, तब वह ( समुद्रः ) समस्त पदार्थों का उत्तम रीति से प्रदान करनेवाला, अनन्त रत्नों का आकर होने से 'समुद्र' होता है । (प्रप्लुतः सलिल: ) वह राजा सर्वत्र प्रजाओं में समान भाव से व्यापक होकर पानी के समान फैल जाता है अतः 'सलिलः' अर्थात् मानो दयाभाव से पानी २ हो जाता है । 
     
    ( ययोः ) जिन दोनों के ( ओजसा ) पराक्रम से ( रजांसि ) समस्त लोक ( स्कभिता ) स्थिर हैं और (या ) जो दोनों ( वीर्येभिः ) अपने वीय, सामर्थ्यों से ( वीरतमा ) सबसे अधिक वीर और ( शविष्ठा ) सबसे अधिक बलशाली हैं । और ( या ) जो दोनों ( अप्रतीतौ ) सर्व साधारण द्वारा न पहचाने गये, जिनके गुण वीर्य को कोई नहीं जानता कि कितना है, अथवा (अप्रतीतौ ) शत्रुओं द्वारा मुकाबले पर न पराजित अर्थात् जिन पर शत्रु आक्रमण करने में समर्थ न हों ऐसे ( सहोभिः ) अपने पराजय करनेवाले बलों सेनाओं सहित जो ( पत्येते ) शत्रु पर जा टूटते हैं वे दोनों ही (विष्णु) व्यापक सामर्थ्यवान् और ( वरुणा ) वरुण सर्वश्रेष्ट वरण करने योग्य एवं शत्रुओं के वारण में समर्थ, (पूर्वहूतौ ) सर्व प्रथम, मुख्यरूप से विद्वानों द्वारा स्वीकार किये जाते हैं । उनको ( अगनू ) समस्त प्रजाजन प्राप्त होते हैं । अथवा उनको समस्त राष्ट्र प्राप्त है। 

    टिप्पणी

     १ स॒न्नः २ `या पत्ये॑ते॒ऽअप्र॑तीता॒।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवता च पूर्वोक्ते । विष्णुर्वरुणश्च देवते । ( १ ) आर्षी बृहती । निषादः । ( २ ) विराडार्षी गायत्री । षड्जः ॥ 

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    विषय

    अब गृहस्थ के कर्म्म में यज्ञादि व्यवहार का उपदेश किया जाता है॥

    भाषार्थ

    जो लोग (अवभृथाय)पवित्र करने वा यज्ञान्त स्नान करने के लिये (अभ्यवह्रियमाण:) उपभोग के योग्य (सलिलः) शुद्ध जल वाली (उद्यतः) सुनियमित (सिन्धुः) नदी को (सन्नः) स्थापित करने एवं (समुद्रः) अन्तरिक्ष को (प्रप्लुतः) यज्ञ से उत्तम गुणों वाला प्राप्त करते हैं, और (ययोः) प्रशंसित गुणों वाला होता और यजमान के (ओजसा) बल से (रजाँसि) लोकों को (स्कभिता) धारण किये रहते हैं, और (या) जो होता और यजमान (वीर्येभिः) वीर-कर्मों से (वीरतमा) अत्यन्त वीर तथा (शविष्ठा) सदा अत्यन्त बल के साधक हैं, (सहोभिः) बल आदि गुणों के कारण (अप्रतीता) अपने गुणों की स्वयं प्रसिद्धि न करने वाले (विष्णू) व्याप्ति-स्वभाव वाले, (वरुणौ) श्रेष्ठ और (पूर्वहूतौ) शिष्ट विद्वान् लोग जिन्हें निमन्त्रित करते हैं तथा (पत्येते) जिन्हें श्रेष्ठ लोग प्राप्त करते हैं उन्हें (अगन्) आप प्राप्त करें, जो ऐसा करते हैं वे सुखी होते हैं ॥ ८। ५९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को यज्ञ आदि व्यवहार के बिना गृहस्थ के कार्यों में सुख नहीं होता ॥८। ५९ ॥

    प्रमाणार्थ

    (सन्नः) इस पद को महीधर ने भ्रान्ति से पूर्व मन्त्र के अन्त में स्वीकार किया है। (सिन्धुः) यह शब्द निघं० (१ । १३) में नदी नामों में पढ़ा है। (समुद्रः) यह शब्द निघं० (१ । १३) में अन्तरिक्ष-नामों में पढ़ा है। (सलिलः) यहाँ 'अश आदिभ्योऽच्[अ० ५ । २ । १२७] इस सूत्र से 'अच् प्रत्यय है। 'सलिल' शब्द निघं० (१ । १२) में जल नामों में पढ़ा है। (वीरतमा) यहाँ सर्वत्र आकार आदेश है । (अगन्) यहाँ'गम्' धातु से लोट् अर्थ में लुङ् लकार है। 'मन्त्रे घसह्वरणश० (अ० २।४ । ८० ) इस सूत्र से च्लि का लुक् और अनुनासिक का लोप है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१२ । ६ । १ । ३४-३६) में की गई है ॥ ८ । ५९॥

    भाष्यसार

    गृहस्थकर्म में यज्ञादि व्यवहार--जो विद्वान् गृहस्थ लोग पवित्र करने के लिये एवं यज्ञान्त स्नान के लिये सागर और अन्तरिक्ष को यज्ञ से उत्तम गुणवान् बनाते हैं वे गृहस्थ कर्म में सुखी रहते हैं। होता और यजमान के यज्ञानुष्ठान आदि प्रशंसनीय गुणों के बल से लोक स्थिर हैं। ये होताऔर यजमान अपने वीर कर्मों से वीर हैं, अत्यन्त बलवान् हैं, सहन-शक्ति आदि गुणों के कारण अपने गुणों की स्वयं प्रसिद्धि करने वाले नहीं हैं, यज्ञ आदि कर्मों में व्याप्त रहने वाले हैं, समाज में श्रेष्ठ कहलाते हैं, शिष्ट विद्वान् लोग इन्हें यज्ञादि शुभ कार्यों में निमन्त्रित करते हैं और श्रेष्ठ पुरुष इनके पास आते हैं। जो गृहस्थ लोग होता और यजमान होकर यज्ञादि व्यवहार करते हैं वे सदा सुखी रहते हैं ।। ८ । ५९ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    यज्ञ इत्यादी कर्माशिवाय गृहस्थाश्रमात अत्यंत सुख प्राप्त होऊ शकत नाही.

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    विषय

    आता गृहस्थकर्मामधे यज्ञ आदी व्यवहाराविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ज्या लोकांनी (अवभृथाय) यज्ञानंतर स्नान करण्यासाठी आणि आपल्या आत्म्याला पवित्र करण्यासाठी (अभ्यवहिृयमाण:) उपयोग करण्यास योग्य अशा (अलिल:) श्रेष्ठजल असलेल्या (सिन्धु:) नद्यांचे (उद्यत:) नियमाप्रमाणे (योग्य रीती आणि योजनेद्वारे) (सन्न:) निर्माण केले (नद्या शुद्ध व उपभोगयोग्य असतील, यांची व्यवस्था केली वा रीतीबद्ध योजनेने नद्यांचे प्रवाह आणि कालवे यांची रचना केली) (समुद्र:) ज्यांनी समुद्राला (प्रस्तुत:) आपल्या श्रेष्ठ योग्यतेद्वारे (वरील उद्दिष्टांच्या पूर्वतेसाठी) प्राप्त केले आहे, (ज्याचा उपयोग केला आहे) तसेच ज्या विद्वानांच्या (ओजसा) शक्ती, बुद्धी आणि योजनेने (रंजासि) लोक-लोकांतर (स्कविता) स्थित आहेत (लोक-लोकांतरांच्या भ्रमणादी गुणांचे ज्ञान प्राप्त केले आहे) तसेच (या) जे लोक (वीर्येभि:) पराक्रमाद्वारे (वीरतमा) अत्यंत वीर आणि (शविष्ठा) बल संपादित करून (सहोभि:) विद्वानांसह पण (अप्रतीता) मूर्खांनी जाणण्यास अयोग्य अशा (विष्णू) व्यापक (वरूणा) अतिश्रेष्ठ व स्वीकरणीय तसेच (पूर्वहूतौ) पूर्ववर्ती उत्तम विद्वानांनी ज्यांचा सत्कार केला आहे अशा (पत्येते) श्रेष्ठ विद्वज्जनांना प्राप्त होतात, तसेच यज्ञकर्मासाठी आवश्यक भक्ष्य पदार्थ आणि विद्यावन यांना (अगन्) प्राप्त करतात, (जे गृहस्थजन पूर्ववर्ती श्रेष्ठ जनांना, त्यांच्या वचनांना मान देतात, यज्ञकर्म करतात) ते नेहमी सुखी असतात)

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञ आदी उत्तम कार्याशिवाय गृहाश्रम सुखाकारक होऊ शकत नाही. ॥59॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Those, who for their bath manage to get pure water, construct canals, soar high in space, by their strength maintain the worlds, who in their prowess are most brave and powerful, whose power is not known to ordinary mortals, who are comprehensive in character and noble in nature, and whose praise is sung by the ancient sages, are received by the learned. They always remain happy.

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    Meaning

    Hosts and participants of yajna who dig, design and construct canals for sacramental bath, who launch upon the sea for voyaging, who fill the sky with yajna vapour, who stabilize people and their regions with their power and lustre, who are most heroic with exploits of their superior prowess, who are men of constancy and forbearance, who are unostentatiously social and universally friendly : these venerables are invited and welcomed by people. Meet them. Those who do so are happy and fortunate.

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    Translation

    When deposited, you are sindhu (the clean river) ready for the sacrificial bath. (1) You are samudra (an ocean) when being approached by all. (2) You аге salila (the water) when in flood all around. (3) May we be able to obtain favour of the venerable Lord and the sacrifice with whose power these worlds are kept steady, and who are most mighty and most vigorous in their strength; who rule over this universe, who are unchallengeable in their resistless might and who are invoked first of all. (4)

    Notes

    Rajamsi, worlds, लोका रजांसि उच्यंते (Nir. IV. 19). Aprafita sahobhih, unchallengeable in their resistless might. Patyete, (those two) rulc. Purvahutau, invoked first of all.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ গার্হস্থ্যকর্ম্মণি য়জ্ঞাদিব্যবহারমাহ ॥
    এখন গৃহস্থ কর্ম্মে যজ্ঞাদি ব্যবহারের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যিনি (অবভৃথায়) যজ্ঞান্ত স্থান এবং স্বীয় আত্মাকে পবিত্র করিবার জন্য (অভ্যবহ্রিয়মাণাঃ) ভোগ করিবার যোগ্য (সলিলঃ) যাহাতে উত্তম জল আছে সেই ব্যবহার (উদ্যতঃ) নিয়মপূর্বক সম্পাদন করিয়াছেন, (সিন্ধুঃ) নদীগুলি (সন্নঃ) নির্মাণ করিয়াছেন, (সমুদ্রঃ) সমুদ্র (প্রপ্লুতঃ) নিজের উত্তম গুণ দ্বারা পাইয়াছেন, সেই বিদ্বান্গণ (য়য়োঃ) যাহাদের (ওজসা) বল দ্বারা (রজাংসি) লোক-লোকান্তর (স্কভিতা) স্থিত আছে (য়া) যাহারা (বীর্য়েভিঃ) পরাক্রম দ্বারা (বীরতমা) অত্যন্ত বীর (শবিষ্ঠা) নিত্য বল সম্পাদনকারী (সহোভিঃ) বল দ্বারা (অপ্রতীতা) মূর্খদিগকে জানিবার অযোগ্য (বিষ্ণু) ব্যাপ্তিশীল (বরুণা) অতিশ্রেষ্ঠ স্বীকার করিবার যোগ্য (পূর্বহূতৌ) যাহার সৎকার পূর্ব উত্তম বিদ্বান্গণ করিয়াছেন যাহা (পত্যেতে) শ্রেষ্ঠ সজ্জনদিগকে প্রাপ্ত হয় সেই সব যজ্ঞকর্ম্ম ভক্ষ্য পদার্থ ও বিদ্বান্দিগকে (অগন্) প্রাপ্ত হয়, তাহারা সর্বদা সুখী হইয়া থাকে ॥ ৫ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যজ্ঞাদি ব্যবহার ব্যতীত গৃহাশ্রমে সুখ হয় না ॥ ৫ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒ন্নঃ সিন্ধু॑রবভৃ॒থায়োদ্য॑তঃ সমু॒দ্রো᳖ऽভ্যবহ্রি॒য়মা॑ণঃ সলি॒লঃ প্রপ্লু॑তো॒ য়য়ো॒রোজ॑সা স্কভি॒তা রজা॑ᳬंসি বী॒র্য়ে᳖ভির্বী॒রত॑মা॒ শবি॑ষ্ঠা । য়া পত্যে॑তে॒ऽঅপ্র॑তীতা॒ সহো॑ভি॒র্বিষ্ণূ॑ऽঅগ॒ন্ বর॑ুণা পূ॒র্বহূ॑তৌ ॥ ৫ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সন্ন ইত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । য়া পত্যেতে ইত্যস্য বিরাডার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ॥
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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