अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - हिरा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
85
श॒तस्य॑ ध॒मनी॑नां स॒हस्र॑स्य हि॒राणा॑म्। अस्थु॒रिन्म॑ध्य॒मा इ॒माः सा॒कमन्ता॑ अरंसत ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तस्य॑ । ध॒मनी॑नाम् । स॒हस्र॑स्य । हि॒राणा॑म् । अस्थु॑: । इत् । म॒ध्य॒मा: । इ॒मा: । सा॒कम् । अन्ता॑: । अ॒रं॒स॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतस्य धमनीनां सहस्रस्य हिराणाम्। अस्थुरिन्मध्यमा इमाः साकमन्ता अरंसत ॥
स्वर रहित पद पाठशतस्य । धमनीनाम् । सहस्रस्य । हिराणाम् । अस्थु: । इत् । मध्यमा: । इमा: । साकम् । अन्ता: । अरंसत ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(शतस्य धमनीनाम्) सौ प्रधान नाड़ियों में से और (सहस्रस्य हिराणाम्) सहस्र शाखा नाड़ियों में से (इमाः) ये सब (मध्यमाः) बीचवाली (इत्) भी (अस्थुः) ठहर गयीं, (अन्ताः) अन्त की [अवशिष्ट नाड़ियाँ] (साकम्) एक साथ (अरंसत) क्रीड़ा करने लगी हैं ॥३॥
भावार्थ
सिराछेदन से असंख्य धमनी और सिरा नाड़ियों का रुधिर यथाविधि चिकित्सक निकाल कर बन्ध कर देवे, जिससे कि नाड़ियाँ पहिले के समान चेष्टा करने लगें ॥ २−मनुष्य अपनी अनन्त चित्तवृत्तियों को कुमार्ग से रोक कर सुमार्ग में चलावें ॥३॥
टिप्पणी
३−शतस्य।– शतसंख्यानाम् अपरिमितानाम्। धमनीनाम्। म० २। हृदयगतानां प्रधाननाडीनाम्। सहस्रस्य। अपरिमितानाम्। हिराणाम्। म० १। सिराणाम्। सूक्ष्मशाखानाडीनाम्। अस्थुः। १।१६।१। स्थिता अभूवन् मध्यमाः। म० २। मध्यभवाः। साकम्। युगपत्। अन्ताः। अम गतौ−तन्। अन्तिमाः, अवशिष्टाः सर्वा नाड्यः। अरंसत। रमु क्रीडायाम्−लुङ्। यथापूर्वं रमन्ते स्म, चेष्टां कृतवत्यः ॥
विषय
धमनियों और हिराओं के बीच की नाड़ियाँ
पदार्थ
१. नाडीचक्र में एक और धमनियों हैं, दूसरी और हिराएँ हैं। धमनियों रुधिर को शरीर में भेज रही हैं और हिराएँ उसे पुन: हृदय में लौटा रही हैं। इनके बीच की नाड़ियों को रोकर कई बार इनके अन्तिम प्रदेशों [दोनों सिरों] को ठीक करना होता है। उसी का वर्णन करते हैं-(धमनीनां शतस्य) = सौं धमनियों के तथा हिराणां (सहस्त्रस्य) = हजारों हिराओं के (मध्यमाः इमा:) = बीच में होनेवाली नाड़ियाँ (इत:) = निश्चय से (अस्थुः) = रुक गई हैं। अब (अन्ता:) = इनके अन्तभाग (साकम) = साथ-साथ ही (अरंसत) = रुक गये हैं [रम्-to Pause] २. नाड़ीचक्र में धमनियों व हिराओं के बीच में होनेवाली योजक नाड़ियों का ठीक होना नितान्त आवश्यक है। इनके अन्तिम भाग भी ठीक होने आवश्यक हैं।
भावार्थ
धमनियों और हिराओं के बीच की नाड़ियों के कार्य का ठीक होना नितान्त आवश्यक है।
भाषार्थ
(शतस्य धमनीनाम) सौ धमनियों की नाड़ियां और हजार हिराओं अर्थात् सिराओं की (अस्थुः इत्) स्व-स्व स्थान में स्थित ही हैं । (इमाः मध्यमाः) इन दो प्रकार की नाड़ियों के मध्यगत नाड़ियां भी स्व-स्व स्थान में स्थित ही हैं। (साकम् ) साथ ही, (अन्ताः) अवशिष्ट नाड़ियाँ भी (अंरसत) यथापूर्व रमण कर रही हैं। अर्थात् ये सब प्रकार की नाड़ियां स्व-स्व स्थान में रमण कर रही हैं, स्व-स्व स्थान से प्रच्युत नहीं हुई ।
टिप्पणी
[शतस्य= "शतं चैका हृदयस्य नाड्यास्तासां मूर्धानं अभि-निःसृतैका" (कठ उप० ६।१६)। सहस्रम्="अत्रैतद् एकशतं नाडीनां तासां द्वासप्तति द्वासप्तति प्रतिशाखा सहस्राणि आसु व्यानश्चरति" (प्रश्नोपनिषद् ३।६)। धमनियों की नाड़ियां नडवत् खोखली होती है, जिनमें रक्त गति करता है और सहस्रम् द्वारा सुषुम्णा से निर्गत हजारों ज्ञान-वाहिनी तथा क्रियावाहिनी सूक्ष्म तन्तुओं का वर्णन अभिप्रेत है, इन्हें NERVES कहते हैं, ये तन्तु की तरह कठोर होती हैं, नाड़ियों की तरह खोखली नहीं। इस सम्बन्ध में निम्न श्लोक सायण ने उद्धृत किया है— मध्यस्थायाः सुषुम्नायाः पर्वपञ्चकसंभवाः। शाखोपशाखतां प्राप्ताः सिरा लक्षत्रयात् परम्। अर्धलक्षम् इति प्राहु: शरीरार्थविचारका:॥ सुषुम्ना२ लगभग एक फुट लम्बी होती है और स्थूलकाय होती है और पांच पर्वों अर्थात केन्द्रों में विभक्त होती है। कुण्डलिनी सर्पिणी प्रथम पर्व या केन्द्र है।] [१. व्यानः सर्वशरीरगः। २. सुषुम्ना=सु + सुम्नं सुखनाम (निघं० ३।६)। मध्यस्था= यह सुषुम्ना पीठ के मध्यमाग में स्थित है। पञ्चपर्वा= सुषुम्ना के ५ पर्व, अर्थात् केन्द्र होते हैं । एक केन्द्र पेट को नर्व अर्थात् "ज्ञान और-क्रिया तन्तु" प्रदान करता है। दूसरा केन्द्र हृदय को, तीसरा फेफड़ों को, चौथा कण्ठ को, पांचवां मस्तिष्क को ज्ञान और क्रिया तन्तु प्रदान करता है।]
विषय
शरीर की नाडियों और स्त्रियों का वर्णन ।
भावार्थ
( शतस्य ) सैकड़ों (धमनीनां) स्थूल नाडियों और ( हि राणां सहस्रस्य ) हजारों सूक्ष्म नाडियों के ( मध्यमाः ) बीच के परिमाण की और ( इमाः ) ये ( अन्ताः ) अति सूक्ष्म नाडियां भी (अस्थुः) इस शरीर में अपने अपने स्थान में स्थित रहें । वे सब ( साकं ) एक साथ ही ( अरंसत ) इस शरीर में अपना अपना कार्य करती रहें ।
टिप्पणी
‘साकमन्त्या’ इति हिटनीकामितः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । योषितो लोहितवाससो हिरा वा मन्त्रोक्ता देवताः। १ भुरिक् अनुष्टुप् २, ३ अनुष्टुप्। ४ त्रिपदा आर्षी गायत्री चतुऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Stop Bleeding
Meaning
Of the hundreds of arteries and thousands of veins, let the middle ones stop, and then at the end let all of them stop together (and when the surgery is done, let all of them resume the flow as normal).
Translation
Amidst hundreds of the arteries and thousands of the veins these medium ones have stopped still and with it their ends have become joined (and they thus vest together).
Translation
Hundreds of large nerves and thousands of the nerves and the central nerves are stopped by the effect of medicine (at the time of medical operation) and afterwards all the nerves do their normal work simultaneously.
Translation
Among hundreds of bigger veins charged with blood, among thousands of smaller veins, even these the middlemost have stopped bleeding. Let all the rest perform their function jointly.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−शतस्य।– शतसंख्यानाम् अपरिमितानाम्। धमनीनाम्। म० २। हृदयगतानां प्रधाननाडीनाम्। सहस्रस्य। अपरिमितानाम्। हिराणाम्। म० १। सिराणाम्। सूक्ष्मशाखानाडीनाम्। अस्थुः। १।१६।१। स्थिता अभूवन् मध्यमाः। म० २। मध्यभवाः। साकम्। युगपत्। अन्ताः। अम गतौ−तन्। अन्तिमाः, अवशिष्टाः सर्वा नाड्यः। अरंसत। रमु क्रीडायाम्−लुङ्। यथापूर्वं रमन्ते स्म, चेष्टां कृतवत्यः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(শতস্য ধমনীনাং) শত প্রধান নাড়ীর মধ্যে এবং (সহস্রস্য হিরাণাং) সহস্র শাখা নাড়ীর মধ্যে (ইমাঃ) এই সব (মধ্যমাঃ) মধ্যম স্থানীয় নাড়ী (ইৎ) ও (অদ্ভুঃ) স্থির হইয়াছে। (অন্তাঃ) অবশিষ্ট নাড়ী (সাকং) একসঙ্গে (অরংসত) ক্রীড়া করিতে আরম্ভ করিয়াছে।।
भावार्थ
প্রধান শত নাড়ীর মধ্যে এবং শাখা অপ্রধান নাড়ীর মধ্যে এই সব মধ্যস্থিত নাড়ীও স্থির হইয়াছে। এখন অবশিষ্ট নাড়ী এক সঙ্গে ক্রীড়া করিতে আরম্ভ করিয়াছে।।
मन्त्र (बांग्ला)
শতস্য ধমনীনাং সহস্রস্য হিরাণাম্। অঙ্কুরিন্মধ্যমা ইমাঃ সাকমন্তা অরংসত।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্ৰহ্মা। যোষিতো ধমন্যশ্চ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(নাডীছেদনদৃষ্টান্তেন কুবাসনানাশঃ) নাড়ীছেদনের দৃষ্টান্ত দ্বারা দুর্বাসনাসমূহের নাশের উপদেশ
भाषार्थ
(শতস্য ধমনীনাম্) শত প্রধান নাড়ীসমূহ থেকে এবং (সহস্রস্য হিরাণাম্) সহস্র শাখা নাড়ী সমূহ থেকে (ইমাঃ) এই সব (মধ্যমাঃ) মধ্যে/মাঝখানে অবস্থিত (ইৎ) ও (অস্থুঃ) থেমেছে, (অন্তাঃ) অন্তের [অবশিষ্ট নাড়ীসমূহ] (সাকম্) এক সাথে (অরংসত) ক্রীড়া/রমন/সঞ্চারণ করেছে ॥৩॥
भावार्थ
শিরাছেদন দ্বারা অসংখ্য ধমনী এবং শিরা নাড়ীসমূহের রক্ত যথাবিধি চিকিৎসক বের করে বন্ধ করে দিবেন, যার দ্বারা নাড়ীসমূহ পূর্বের ন্যায় [রোহবিহীন রক্ত সংবহনের] চেষ্টা করা শুরু করবে॥ ২−মনুষ্য নিজের অনন্ত চিত্তবৃত্তিসমূহকে কুমার্গ থেকে আটকিয়ে সুমার্গে চালনা করবে॥৩॥
भाषार्थ
(শতস্য ধমনীনাম্) শত ধমনির নাড়ি এবং (সহস্রস্য হিরাণাম্) সহস্র হিরার অর্থাৎ শিরার (অস্থুঃ ইৎ) স্ব-স্ব স্থানে স্থিত রয়েছে। (ইমাঃ মধ্যমাঃ) এই দুই প্রকারের নাড়ির মধ্যগত নাড়িও স্ব-স্ব স্থানে স্থিত রয়েছে। (সাকম্) সাথে-সাথেই (অন্যঃ) অবশিষ্ট নাড়িও (অংরসত) যথাপূর্ব রমণ করছে। অর্থাৎ এই সকল প্রকারের নাড়ি স্ব-স্ব স্থানে রমণ করছে, স্ব-স্ব স্থান থেকে প্রচ্যুত হয়নি।
टिप्पणी
[শতস্য = "শতং চৈকা হৃদয়স্য নাড্যাস্তাসাং মূর্ধানং অভি নিঃসৃতৈকা" (কঠ উপ০ ৬/১৬)। সহস্রম্= "অত্রৈতদ্ একশতং নাড়ীনাং তাসাং শতং শতমেকৈকস্যাং দ্বাসপ্ততির্দ্বাসপ্ততিঃ প্রতিশাখানাডীসহস্রাণি ভবন্ত্যাসু ব্যানশ্চরতি"১ (প্রশ্নোপনিষদ্ ৩।৬)। ধমনির নাড়ি ফাঁপা হয়, যার মধ্যে রক্ত প্রবাহিত হয় এবং সহস্রম্ দ্বারা সুষুম্না থেকে নির্গত সহস্র-সহস্র জ্ঞান-বাহিনী তথা ক্রিয়া বাহিনী সূক্ষ্ম তন্তুর বর্ণনা অভিপ্রেত রয়েছে, এগুলোকে NERVES বলে, এগুলো তন্তুর মতো কঠোর হয়, নাড়ির মতো ফাঁপা নয়। এই বিষয়ে নিম্ন শ্লোক সায়ণ উদ্ধৃত করেছেন— মধ্যস্থায়াঃ সুষুম্নায়াঃ পর্বপঞ্চকসম্ভবাঃ। শাখোপশাখতাং প্রাপ্তাঃ সিরা লক্ষত্রয়াৎ পরম্। অর্ধলক্ষম্ ইতি প্রাহুঃ শরীরার্থবিচারকাঃ ॥ সুষুম্না২ প্রায় এক ফুট লম্বা/দীর্ঘ হয় এবং স্থূলকায় হয় এবং পাঁচ পর্ব অর্থাৎ কেন্দ্রে বিভক্ত হয়। কুণ্ডলিনী সর্পিণী প্রথম পর্ব বা কেন্দ্র।] [১. ব্যানঃ সর্বশরীরগঃ। ২. সুষুম্না = সু+ সুম্নং সুখনাম (নিঘ০ ৩।৬)। মধ্যস্থা=এই সুষুম্না পিঠের মধ্য ভাগে স্থিত রয়েছে। পঞ্চপর্বা= সুষুম্নার ৫ পর্ব, অর্থাৎ কেন্দ্র হয়। এক কেন্দ্র পেটকে স্নায়ু অর্থাৎ "জ্ঞান ও ক্রিয়া তন্তু" প্রদান করে। অপর কেন্দ্র হৃদয়কে, তৃতীয় ফুসফুসকে, চতুর্থ কণ্ঠকে, পঞ্চম মস্তিষ্ককে জ্ঞান ও ক্রিয়া তন্তু প্রদান করে।]
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal