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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - याजुषी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    51

    तस्य॒व्रात्य॑स्य।योऽस्य॑ ष॒ष्ठोऽपा॒नः स य॒ज्ञः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । य: । अ॒स्य॒ । ष॒ष्ठ: । अ॒पा॒न: । स: । य॒ज्ञ: ॥१६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य।योऽस्य षष्ठोऽपानः स यज्ञः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । य: । अस्य । षष्ठ: । अपान: । स: । यज्ञ: ॥१६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथि के सामर्थ्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] का−(यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (षष्ठः) छठा (अपानः) अपान [प्रश्वास] है, (स यज्ञः) वह यज्ञ है [मानो वहपरमेश्वर और विद्वानों का सत्कार, परस्पर संयोग और विद्या आदि दान है] ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे सामान्य मनुष्यज्ञानप्राप्ति के लिये पौर्णमासी आदि यज्ञ करके श्रद्धावान् होते हैं, वैसे हीविद्वान् अतिथि संन्यासी उस कार्मिक यज्ञ आदि के स्थान पर अपनी जितेन्द्रियतासे मानसिक यज्ञ करके यज्ञफल प्राप्त करते हैं, अर्थात् ब्रह्मविद्या,ज्योतिषविद्या आदि अनेक विद्याओं का प्रचार करके संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं॥१-७॥

    टिप्पणी

    ६−(यज्ञः)यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ्। पा० ३।३।९०। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु-नङ्।परमेश्वरविद्वत्सत्कारपरस्परसंयोगविद्यादिदानव्यवहारः। अन्यत् पूर्ववत्स्पष्टं च ॥

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    विषय

    सात 'अपान' दोषापनयन साधन

    पदार्थ

    १. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (प्रथमः अपान:) = प्रथम अपान है (सा पौर्णमासी) = वह पौर्णमासी है (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (द्वितीयः अपान:) = द्वितीय अपान है (सा अष्टका) = वह अष्टका है। (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (तृतीयः अपाना:) = तीसरा अपान है (सा अमावास्या) = वह अमावास्या है (तस्य खात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (चतुर्थः अपान:) = चौथा अपान है (सा श्रद्धा) = वह श्रद्धा है (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (पञ्चमः अपान:) = पञ्चम अपान है (सा दीक्षा) = वह दीक्षा है (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (षष्ठः अपान:) = छठा अपान है, (सः यज्ञ:) = वह यज्ञ है और (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य का (यः अस्य) = जो इसका (सप्तमः अपान:) = सातवाँ अपान है (ताः इमा दक्षिणा:) = वे ये दानवृत्तियाँ हैं। २. व्रात्य ने अपने दोषों को दूर करने के लिए जिन साधनों को अपनाया, वे ही अपान हैं। पहला अपान पौर्णमासी है, अर्थात् व्रात्य संकल्प करता है कि जैसे पूर्णिमा का चाँद सब कलाओं से पूरिपूर्ण है, इसी प्रकार मैं भी अपने जीवन को १६ कलाओं से [प्राण, श्रद्धा, पंचभूत, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, मन्त्र, कर्म, लोक व नाम] परिपूर्ण बनाऊँगा। जीवन को ऐसा बनाने के लिए दूसरा 'अपान' अष्टक साधन बनता है। अष्टका से अष्टांगयोगमार्ग अभिप्रेत है। इस योगमार्ग को [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि] अपनाने से मानवजीवन पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। इस जीवन का तीसरा अपान है 'अमावास्या'। इसका अभिप्राय है 'सूर्य व चन्द्र' का एक राशि में होना। इस व्रात्य के जीवन में मस्तिष्क गगन में ज्ञानसूर्य का उदय होता है तो हृदय में भक्तिरस के चन्द्र का। एवं इसका जीवन प्रकाश व आनन्द से परिपूर्ण होता है। ४. इस अनुभव से इसके जीवन में 'श्रद्धा' का प्रवेश होता है। यह श्रद्धा उसके जीवन को पवित्र करती हुई उसके लिए कामायनी' बनती है। इस श्रद्धा के कारण ही यह 'दीक्षा' में प्रवेश करता है-कभी भी इसका जीवन 'अन्नती' नहीं होता। अल्पव्रतों का पालन करता हुआ यह महाव्रतों की ओर झुकता है। इसका जीवन 'यज्ञमय' बनता है। यज्ञों की पराकाष्ठा ही 'दक्षिणाएँ' व दानबृत्तियों होती हैं [यज् दाने] इनको अपनाता हुआ यह सब पापों को छिन्नकर लेता है और पूर्ण पवित्र जीवनवाला बनकर प्रभु की प्रीति का पात्र होता है।

    भावार्थ

    हम इस सूक्त में प्रतिपादित 'पौर्णमासी, अष्टका, अमावास्या, श्रद्धा, दीक्षा, यज्ञ, दक्षिणा' रूप सात अपानों को अपनाते हुए पवित्र जीवनवाला बनें।

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    भाषार्थ

    (तस्य) उस (व्रात्यस्प) व्रतपति तथा प्राणिवर्गों के हितकारी परमेश्वर की [सृष्टि में], (यः) जो (अस्य) इस परमेश्वर का (षष्ठः) छठा (अपानः) अपान है, (सः) वह है (यज्ञः) यज्ञकर्म।

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    विषय

    व्रात्य के सात अपानों का निरूपण।

    भावार्थ

    (यः अस्य षष्ठः अपानः) जो इस जीव का छठा अपान है वैसे ही (तस्य व्रात्यस्य) उस व्रात्य प्रजापति का पष्ठ अपान (सः यज्ञः) वह यज्ञ है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ सामन्युष्णिहौ, २, ४, ५ प्राजापत्योष्णिहः, ६ याजुषीत्रिष्टुप् ७ आसुरी गायत्री। सप्तर्चं षोडशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Of the Vratya, the sixth apana is yajna.

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    Translation

    Of that Vratya; what is his sixth out-breath, that is sacrifice.

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    Translation

    That which is the sixth Apana of that Vratya is yajna.

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    Translation

    His sixth outgoing breath is sacrifice.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यज्ञः)यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ्। पा० ३।३।९०। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु-नङ्।परमेश्वरविद्वत्सत्कारपरस्परसंयोगविद्यादिदानव्यवहारः। अन्यत् पूर्ववत्स्पष्टं च ॥

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