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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त
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    घृ॒तादुल्लु॑प्तो॒ मधु॑मा॒न्पय॑स्वान्भूमिदृं॒होऽच्यु॑तश्च्यावयि॒ष्णुः। नु॒दन्त्स॒पत्ना॒नध॑रांश्च कृ॒ण्वन्दर्भा रो॑ह मह॒तामि॑न्द्रि॒येण॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तात्। उत्ऽलु॑प्तः। मधु॑ऽमान्। पय॑स्वान्। भू॒मि॒ऽदृं॒हः। अच्यु॑तः। च्या॒व॒यि॒ष्णुः। नु॒दन्। स॒ऽपत्ना॑न्। अध॑रान्। च॒। कृ॒ण्वन्। दर्भ॑। आ। रो॒ह॒। म॒ह॒ताम्। इ॒न्द्रि॒येण॑ ॥३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतादुल्लुप्तो मधुमान्पयस्वान्भूमिदृंहोऽच्युतश्च्यावयिष्णुः। नुदन्त्सपत्नानधरांश्च कृण्वन्दर्भा रोह महतामिन्द्रियेण ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतात्। उत्ऽलुप्तः। मधुऽमान्। पयस्वान्। भूमिऽदृंहः। अच्युतः। च्यावयिष्णुः। नुदन्। सऽपत्नान्। अधरान्। च। कृण्वन्। दर्भ। आ। रोह। महताम्। इन्द्रियेण ॥३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उन्नति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (घृतात्) प्रकाश से (उल्लुप्तः) ऊपर खींचा गया, (मधुमान्) ज्ञानवान्, (पयस्वान्) अन्नवान्, (भूमिदृंहः) भूमि का दृढ़ करनेवाला, (अच्युतः) अटल, (च्यावयिष्णुः) शत्रुओं को हटा देनेवाला, (सपत्नान्) विरोधियों को (नुदन्) निकालता हुआ (च) और (अधरान्) नीचे (कृण्वन्) करता हुआ तू, (दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक परमेश्वर] (महताम्) बड़ों के (इन्द्रियेण) ऐश्वर्य के साथ (आ) सब ओर से (रोह) प्रकट हो ॥२॥

    भावार्थ

    जिस प्रकाशस्वरूप अविनाशी परमात्मा ने विघ्नों को हटाकर पृथिवी आदि लोक रचे और धारण किये हैं, उसीके आश्रय से सब लोग ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥२॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ०५।२८।१४ और प्रथम पाद आगे है-अ०१९।४६।६॥२−(घृतात्) प्रकाशात् (उल्लुप्तः) उद्घृतः (मधुमान्) ज्ञानवान् (पयस्वान्) अन्नवान् (भूमिदृंहः) पृथिव्या दृढीकर्ता (अच्युतः) अचलः। (च्यावयिष्णुः) णेश्छन्दसि। पा०३।२।१३७। च्युङ् गतौ-णिच्, इष्णुच्। च्यावयिता। पातयिता (नुदन्) प्रेरयन् (सपत्नान्) विरोधकान् (अधरान्) नीचान् (च) (कृण्वन्) कुर्वन् (दर्भ) हे शत्रुविदारक परमेश्वर (आ) समन्तात् (रोह) प्रादुर्भव (महताम्) पूजनीयानाम् (इन्द्रियेण) ऐश्वर्येण ॥

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    विषय

    मधुमान-पयस्वान्

    पदार्थ

    १. शरीर में रेत:कणों की ऊर्ध्वगति होकर जब ये ज्ञानाग्नि का ईधन बनते हैं-सारे रुधिर में व्याप्त हो जाते हैं तब ये अदृष्ट हो जाते हैं। यही इनका 'उल्लोपन' है। (घृतात्) = मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति के हेतु से (उल्लुप्तः) शरीर में ऊर्ध्वगति द्वारा अदृष्ट किया हुआ यह दर्भ (मधुमान्) = जीवन को माधुर्यवाला बनाता है। (पयस्वान्) = यह जीवन में प्रशस्त आप्यायन का कारण बनता है। (भूमिदृंहः) यह शरीररूप भूमि को दृढ़ बनाता है। (अच्युतः) = शत्रुओं से च्युत न किया जाता हुआ (च्यावयिष्णु:) = रोगरूप शत्रुओं को च्युत करनेवाला है। २. हे (दर्भ) = वीर्यमणे! (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को परे धकेलता हुआ (च) = और (अधरान् कृण्वन्) = उनको पाँवों तले रोंदता हुआ-पराजित करता हुआ तू (महताम्) = [मह पूजायाम्] इन प्रभु-पूजन करनेवालों के (इन्द्रियेण) = बल के हेतु से (आरोह) = शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला हो। शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला होता हुआ यह वीर्य सब इन्द्रियों को सबल बनाता है।

    भावार्थ

    जब शरीर में इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है और यह रुधिर में व्याप्त होकर अदृष्ट-सा हो जाता है, तब यह जीवन को मधुर बनाता है, शरीर को दृढ़ करता है, रोगों को विनष्ट करता है, एक-एक इन्द्रिय को सशक्त करता है।

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    भाषार्थ

    (घृतात्) घृत से (उल्लुप्तः) लुप्त न होनेवाली, अपितु प्रकाशित होनेवाली यज्ञियाग्नि के सदृश सुखदायी, (मधुमान्) मधुभरे छत्ते के सदृश मधुर, (पयस्वान्) आनन्दरस से नित्य सम्बद्ध, (भूमिदृंहः) भूमि को दृढ़ करनेवाले, (अच्युतः) स्वभाव से अटल, (च्यावयिष्णुः) शक्तिशालियों को भी परास्त करनेवाले, (सपत्नान्) कामादि शत्रुओं को (नुदन्) धकेलते हुए, (च) और इन्हें (अधरान्) धरा से रहित (कृण्वन्) करते हुए (दर्भ) हे रागद्वेष के विदारक परमेश्वर! (महताम् इन्द्रियेण) महाआध्यात्मिक सम्पत्तियों के साथ आप (आरोह) मुझ में प्रादुर्भूत हूजिए।

    टिप्पणी

    [उल्लुप्तः= उद्गतः लुप्तात्। आरोह=रुह प्रादुर्भावे। भूमिदृंहः=येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा (यजुः० ३२.६)। इन्द्रियम्=धननाम (निघं० २.१०)। धरा=पृथिवी।]

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    विषय

    ‘दर्भ’, ‘अग्नि’ नामक अभिषिक्त राजा।

    भावार्थ

    (घृतात्) घृत=तेज या प्रजा के प्रति स्नेह से (उल्लुप्त) आवृत, व्याप्त (मधुमान्) मधु अन्न आदि समृद्धि से युक्त (पयस्वान्) पुष्ट वीर्य से समर्थ, (भूमिदृंहः) भूमि, राष्ट्र को दृढ़ करने वाला, (अच्युतः) युद्धमें स्वयं अविचलित और (च्यावयिष्णुः) शत्रुओं को पदच्युत करने वाला, (सपत्नान्) शत्रुओं को (नुदन्) पीछे हटाता हुआ और उनको (अधरान् च कृण्वन्) नीचे गिराता हुआ, हे (दर्भः) शत्रुनाशक सेनापते तू (महताम्) बड़े नरपतियों, महापुरुषों के (इन्द्रियेण) बल वीर्य से (आ रोह) सबसे ऊंचे पद पर आरूढ़ हो।

    टिप्पणी

    (च०) ‘महता महेन्द्रियेण’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सर्वकामो भृगुर्ऋषिः। दर्भो देवता। १ जगती। २, ५ त्रिष्टुभौ। ३ आर्षी पंक्तिः। ४ आस्तारपंक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Darbha

    Meaning

    Like fire and light raised from ghrta, bearing sweets of joy as honey, abundant with delicious food and drink, firm as earth, unshakable shaker, throwing off adversaries and razing them down, may Darbha, destroyer of negativities for rehabilitation of positivities, arise in our consciousness along with the sense, mind and power of the Great.

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    Translation

    Besmeared with clarified butter, rich in sweetness and rich in sap, making the earth firm, unshaken and shaker of others, driving away the rivals and subjugating them, O darbha, may you ascend up with the effulgence of the mighty ones.

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    Translation

    Let this Darbha which is covered with splendour, sweet in effect, succulent and which keeps the earth firm, which is unshaken and over-throwing, throwing away diseases like foes, making them down-trended rise above them with the great organic power of the powerful limbs of the body.

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    Translation

    O darbha, besmeared with clarified butter, sweet, juicy, conserving the soil, unvenerable, capable of subduing others, pushing back and felling the enemies below, attain the high place through the valour and bravery of the great persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ०५।२८।१४ और प्रथम पाद आगे है-अ०१९।४६।६॥२−(घृतात्) प्रकाशात् (उल्लुप्तः) उद्घृतः (मधुमान्) ज्ञानवान् (पयस्वान्) अन्नवान् (भूमिदृंहः) पृथिव्या दृढीकर्ता (अच्युतः) अचलः। (च्यावयिष्णुः) णेश्छन्दसि। पा०३।२।१३७। च्युङ् गतौ-णिच्, इष्णुच्। च्यावयिता। पातयिता (नुदन्) प्रेरयन् (सपत्नान्) विरोधकान् (अधरान्) नीचान् (च) (कृण्वन्) कुर्वन् (दर्भ) हे शत्रुविदारक परमेश्वर (आ) समन्तात् (रोह) प्रादुर्भव (महताम्) पूजनीयानाम् (इन्द्रियेण) ऐश्वर्येण ॥

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