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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठः छन्दः - चतुरवसानाष्टपदाष्टिः सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
    46

    अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं॒ ततः॒ कुष्ठो॑ अजायत। स कुष्ठो॑ वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थः। दे॒व॒ऽसद॑नः। तृ॒तीय॑स्याम्। इ॒तः। दि॒वि। तत्र॑। अ॒मृत॑स्य। चक्ष॑णम्। ततः॑। कुष्ठः॑। अ॒जा॒य॒त॒। सः। कुष्ठः॑। वि॒श्वऽभे॑षजः। सा॒कम्। सोमे॑न। ति॒ष्ठ॒ति॒। त॒क्मान॑म्। सर्व॑म्। ना॒श॒य॒। सर्वाः॑। च॒। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡ ॥३९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि। तत्रामृतस्य चक्षणं ततः कुष्ठो अजायत। स कुष्ठो विश्वभेषजः साकं सोमेन तिष्ठति। तक्मानं सर्वं नाशय सर्वाश्च यातुधान्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थः। देवऽसदनः। तृतीयस्याम्। इतः। दिवि। तत्र। अमृतस्य। चक्षणम्। ततः। कुष्ठः। अजायत। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोगनाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवसदनः) विद्वानों के बैठने योग्य (अश्वत्थः) वीरों के ठहरने का देश (तृतीयस्याम्) तीसरी [निकृष्ट और मध्य अवस्था से परे, श्रेष्ठ] (दिवि) अवस्था में (इतः) प्राप्त होता है। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [अमरपन] का (चक्षणम्) दर्शन है, (ततः) उससे (कुष्ठः) कुष्ठ [मन्त्र १] (अजायत) प्रकट हुआ है। (सः) वह (विश्वभेषजः) सर्वौषध (कुष्ठः) कुष्ठ..... [म०५] ॥६॥

    भावार्थ

    जहाँ पर विद्वान् वीरों का निवास होता है, वहाँ कुष्ठ महौषध के उपयोग से आनन्द बढ़ता है ॥६॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र के पहिले दो भाग कुछ भेद से आचुके हैं-अ०५।४।३। और ६।९५।१॥६−(अश्वत्थः-अजायत) इति व्याख्यातः-अ०५।४।३ तथा ६।९५।१, पुनरपि शब्दार्थः क्रियते (अश्वत्थः) अ०३।६।१। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः (देवसदनः) महात्मनां स्थितियोग्यः (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां तृतीयस्यां श्रेष्ठायाम् (इतः) इण् गतौ-क्त। प्राप्तः (दिवि) गतौ। अवस्थायाम् (तत्र) तस्मिन् स्थाने (अमृतस्य) अमरणस्य। चिरजीवनस्य (चक्षणम्) दर्शनम् (ततः) तस्मात् स्थानात् (कुष्ठः) म०१। औषधविशेषः (अजायत) प्रादुरभवत्। अन्यत् पूर्ववत्-म०५॥

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    भाषार्थ

    (इतः) इस पृथिवी से (तृतीयस्यां दिवि) तीसरे अर्थात् द्युलोक में, (देवसदनः) द्योतमान तारागणों में स्थित (अश्वत्थः) अश्वत्थ नक्षत्रमण्डल है। (तत्र) उस में जब सूर्य स्थित होता है, तब (अमृतस्य) जीवनप्रद उदक (चक्षणम्) दृष्टिगोचर होता है। (ततः) उस उदक से (कुष्ठः) सर्वोत्तम कूट या कुठ (अजायत) पैदा होता है। (स कुष्ठो....यातुधान्यः) पूर्ववत् (मन्त्र १९.३९.५)

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह है कि “अश्वत्थ नक्षत्रमण्डल” द्युलोक में है। इस नक्षत्रमण्डल में, या इस दिशा में सूर्य जब अपनी वार्षिक गति से आता है, तब वर्षा-जल द्वारा सर्वोत्तम कुष्ठ उत्पन्न होता है। अमृतम्=उदकम् (निघं० १.१२)।]

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    विषय

    कुष्ठ में अमृत स्थापन

    पदार्थ

    १. (इत:) = यहाँ से-पृथिवीलोक से (तृतीयस्याम्) = तीसरे स्थान में स्थित [पृथिवी-अन्तरिक्ष धुलोक] (दिविः) = द्युलोक में (अश्वत्थः) = आदित्य [सूर्य] की स्थिति है। (अश्वत्थ) = अग्नि का महान् आश्रय, अर्थात् सूर्य। यह आदित्य (देवसदन:) = देवों का निवासस्थान है। [पृथिवीलोक में मयं, चन्द्रलोक में पितर, सूर्यलोक में देब]। (तत्र) = यहाँ सूर्य में (अमृतस्य चक्षणम्) = अमृत का दर्शन होता है। सूर्य में ही सम्पूर्ण प्राणशक्ति प्रतिष्ठित है। (ततः) = उस सूर्य से ही-सूर्य-किरणों के सम्पर्क से ही (कुष्ठ:) = यह कुष्ठ नामक ओषधि अजायत हुई है। २. (सः कुष्ठः विश्वभेषज:०) |

    भावार्थ

    द्युलोकस्थ सूर्य की किरणों के द्वारा कुष्ठ में अमृत का स्थापन होता है। इसी से कुष्ठ विश्वभेषज बन जाता है।

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    विषय

    कुष्ठ नामक ओषधि।

    भावार्थ

    (देवसदनः) दिव्य गुणों का आश्रय (अश्वत्थः) अग्नि का महान् आश्रय सूर्य (इतः) इस लोक से (तृतीयस्याम् दिवि) तीसरे द्यौलोक में विद्यमान है (तत्र) वहां ही (अमृतस्य) अमृत, परम जीवनप्रद रस का (चक्षणम्) स्रोत है। (ततः) उससे ही (कुष्ठः) कुष्ठ नाम ओषधि, या समस्त पृथिवीस्थ वनस्पति (अजायत) उत्पन्न होते हैं। (सः कुष्ठः०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    (च०) ‘देवाः कुष्ठमवन्वत’ इति पूर्वत्र पाठभेदः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृंग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तः कुष्ठो देवता। २, ३ पथ्यापंक्तिः। ४ षट्पदा जगती (२-४ त्र्यवसाना) ५ सप्तपदा शक्वरी। ६८ अष्टयः (५-८ चतुरवसानाः)। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure by Kushtha

    Meaning

    Ashvattha is a constellation of stars, a haven of divinities, in the third region from this earth, in heaven. Therein is the tangible birth of nectar, and it showers from the sun when the sun is there. From that nectar is born the Kushtha, a panacea, which grows with Soma. O Kushtha, destroy all kinds of consumptive cancerous diseases and eliminate all kinds of dangerous germs, bacteria and viruses.

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    Translation

    In the third heaven from here, there is the asvattha (the holy fig tree, ficus religiosa) tree, the seat of the enlightened ones. There is the source of immortality. Therefrom the kustha is born. That kustha is an all-cure remedy. It contains the curing principle. May you banish all the fever and all the painful diseases. (Av. V.4.3. Vari.)

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    Translation

    This Kustha is produced thriele from the clouds, thrice from the fires, thrice from the twelve months and thrice from the other natural forces. This Kustha is the healing medicine of multifarious diseases. This stands by the side of Soma, the soma group of the herbs.’ Let it vanish all the fevers and all the malignancies.

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    Translation

    In third shining heaven from here, is the Sun, the source of all energy and power and the store-house of all super-fine attributes. There is the fountain-head of the life prolonging juices, whence is born this kushtha, the curer of all diseases. It stays….body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र के पहिले दो भाग कुछ भेद से आचुके हैं-अ०५।४।३। और ६।९५।१॥६−(अश्वत्थः-अजायत) इति व्याख्यातः-अ०५।४।३ तथा ६।९५।१, पुनरपि शब्दार्थः क्रियते (अश्वत्थः) अ०३।६।१। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः (देवसदनः) महात्मनां स्थितियोग्यः (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां तृतीयस्यां श्रेष्ठायाम् (इतः) इण् गतौ-क्त। प्राप्तः (दिवि) गतौ। अवस्थायाम् (तत्र) तस्मिन् स्थाने (अमृतस्य) अमरणस्य। चिरजीवनस्य (चक्षणम्) दर्शनम् (ततः) तस्मात् स्थानात् (कुष्ठः) म०१। औषधविशेषः (अजायत) प्रादुरभवत्। अन्यत् पूर्ववत्-म०५॥

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