अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आत्मा
छन्दः - एकावसाना त्रिपदा यवमध्योष्णिक्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
57
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्यां॒ प्रसू॑त॒ आ र॑भे ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः॒। प्र॒ऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। प्रऽसू॑तः। आ। र॒भे॒ ॥५१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रसूत आ रभे ॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य। त्वा। सवितुः। प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। प्रऽसूतः। आ। रभे ॥५१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे शूर !] (देवस्य) प्रकाशमान, (सवितुः) सर्वोत्पादक [परमेश्वर] के (प्रसवे) बड़े ऐश्वर्य के बीच (अश्विनोः) सब विद्याओं में व्याप्त दोनों [माता-पिता] के (बाहुभ्याम्) दोनों भुजाओं से और (पूष्णः) पोषक [आचार्य] के (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों से (प्रसूतः) प्रेरणा किया हुआ मैं (त्वा) तुझको (आ रभे) ग्रहण करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
जो परमेश्वरभक्त विद्वान् पराक्रमी पुरुष माता-पिता और आचार्य से उत्तम शिक्षा पाकर उन्नति करे, सब मनुष्य उसका सदा सत्कार करते रहें ॥२॥
टिप्पणी
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-२०।३ और महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका राजप्रजाधर्म विषय में भी व्याख्यात है ॥ २−(देवस्य) प्रकाशमानस्य (त्वा) त्वां पुरुषार्थिनम् (सवितुः) सर्वोत्पादकस्य परमेश्वरस्य (प्रसवे) प्रकृष्टैश्वर्ये (अश्विनोः) सकलविद्याव्याप्तयोर्मातापित्रोः (बाहुभ्याम्) भुजयोः सकाशात् (पूष्णः) पोषकस्य आचार्यस्य (हस्ताभ्याम्) करयोः सकाशात् (प्रसूतः) प्रेरितः (आरभे) रभ राभस्ये। अहं गृह्णामि। स्वीकरोमि ॥
भाषार्थ
(सवितुः) समग्र ऐश्वर्यों के स्वामी, सर्वोत्पादक तथा सर्वप्रेरक (देवस्य) दिव्यगुणी परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न जगत् में वर्तमान, तथा (प्रसूतः) परमेश्वर द्वारा प्रेरित हुआ मैं (अश्विनोः) अश्विदेवताओं की (बाहुभ्याम्) बाहुओं द्वारा, और (पूष्णः) पूषा देवता के (हस्ताभ्याम्) हाथों द्वारा (त्वा) तुझ प्रत्येक कर्म को (आ रभे) मैं आरम्भ करता हूँ।
टिप्पणी
[सवितुः= षु प्रसवैश्वर्ययोः, षू प्रेरणे। प्रसवः =उत्पन्नं जगत्। अश्विनौ= “यद् व्यश्नुवाते सर्व रसेनान्यो ज्योतिषान्यः—सूर्याचन्द्रमसौ” (निरु० १२.१.१)। अर्थात् अश्विनौ हैं—सूर्य और चन्द्रमा। क्योंकि ये दोनों समग्र पार्थिव कार्यों में व्याप्त हैं, चन्द्रमा रसप्रदान द्वारा तथा सूर्य ज्योतिप्रदान द्वारा। मनुष्य को प्रत्येक कार्य के आरम्भ में यह भावना करनी चाहिए कि सूर्य और चन्द्रमा जैस निज किरणोंरूपी बाहुओं द्वारा सबका उपकार करते हैं, वैसे मैं भी सबके उपकार के लिए निज बाहुओं द्वारा कार्यारम्भ करता हूँ, निज स्वार्थ के लिए ही नहीं। पूष्णः= पूषा का अर्थ है—वायु (उणा० १.१५९) महर्षि दयानन्द। वायु प्राणशक्ति-प्रदान द्वारा, तथा वर्षा-प्रदान द्वारा सबका पालन-पोषण कर रही है। मनुष्य अपने हाथों में वायु के हाथों की भावना करता हुआ सर्वोपकार के कार्यों का आरम्भ करे। प्रसूतः= प्रत्येक कार्य के आरम्भ में मनुष्य यह भावना करे कि मैं परमेश्वर द्वारा प्रेरणा पाकर कार्यारम्भ करता हूँ, न कि निज रागद्वेष द्वारा प्रेरित हुआ। इस प्रकार मन्त्र १ और २ में उक्त भावनाएँ जीवनमार्ग का प्रदर्शन कराती हैं। “पूषा” का अर्थ पृथिवी भी है। पृथिवी सबको समग्र पोषक पदार्थों को प्रदान करती है। मनुष्य अपने हाथों को पृथिवी के हाथ समझकर इन हाथों के द्वारा सभी प्राणियों के पोषण के निमित्त कार्यों का आरम्भ करे। पृथिवी को माता कहा है— “माताः भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः” (अथर्व० १२.१.१२)। जैसे पृथिवी में माता की कल्पना की गई है, वैसे पृथिवी के हाथों की भी कल्पना की गई है।]
विषय
प्रभु की अनुज्ञा में
पदार्थ
१. यह ब्रह्मा जब किसी भी कार्य को प्रारम्भ करता है या किसी भी वस्तु का उपयोग करता है तब कहता है कि मैं (सवितः देवस्य) = प्रेरक, प्रकाशमय प्रभु की प्रसवे-अनुज्ञा में प्रेरणा में त्वा आरभे-तुझे प्रारम्भ करता हूँ [Undertake] अथवा ग्रहण करता हूँ [grasp]। अश्विनो: बाहुभ्याम्-प्राणापान के प्रयत्नों से मैं तुझे ग्रहण करता हूँ। अपने पुरुषार्थ से अर्जित धन का ही उपयोग करना चाहिए। २. पूष्णः हस्ताभ्याम्-पोषक के हाथों से, प्रसूत:-उस प्रभु से अनुज्ञा दिया हुआ मैं तुझे ग्रहण करता हूँ। हमें भौतिक वस्तुओं का प्रयोग पोषण के दृष्टिकोण से ही करना है, नकि स्वाद व सौन्दर्य के दृष्टिकोण से।
भावार्थ
संसार में हम प्रभु की अनुज्ञा में, प्राणापान के प्रयत्न से, पोषण के दृष्टिकोण से ही प्रत्येक वस्तु का ग्रहण करें। यही 'ब्रह्मा' बनने का मार्ग है। अगले सूक्त का ऋषि भी ब्रह्मा ही है -
विषय
आत्मसाधना।
भावार्थ
(सवितुः) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक परमेश्वर (देवस्य) देव के (प्रसवे) शासन में और (अश्विनोः) दोनों अश्विन् स्त्री पुरुषों प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बाहुओं से और (पूष्णः) सर्व पुष्टिकारक पालक पुरुष के हाथों से (प्रसूतः) मैं प्रेरित होकर (आरभे) तुझे ग्रहण करता हूं। या (आरभे) अपना कार्य प्रारम्भ करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। १ आत्मा। २ सविता च देवते। १ एकपदाऽनुष्टुप्। २ त्रिपदायवमध्योष्णिक्। (१, २ एकावसाने) द्वयृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Atma
Meaning
O man, O self, in this yajnic world order of Savita’s creation, with the arms of Ashvins, harbingers of light and knowledge, and with the hands of Pusha, generous powers of health and nourishment, I initiate and consecrate you, nobly born, to begin your holy life as a complete, whole, undivided human being.
Subject
Savita
Translation
At the impulsion of the divine impeller Lord, urged by the arms of the twins divine and by the hands of the nourisher Lord, I undertake (this work).
Translation
O Yajmana, I, the priest accept you who is initiated under the control of All-creating God with the hands of father and mother and through the hands of Pushan, the teacher (protector of knowledge) to begin with the Yajna.
Translation
O meditation, I (the devotee), being moved by the strong hands or the nourishing Father, the arms of the powerful forces of the Almighty, like electricity and air, father and mother, teacher and preacher, commence thee in the creation of the Divine Creator.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-२०।३ और महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका राजप्रजाधर्म विषय में भी व्याख्यात है ॥ २−(देवस्य) प्रकाशमानस्य (त्वा) त्वां पुरुषार्थिनम् (सवितुः) सर्वोत्पादकस्य परमेश्वरस्य (प्रसवे) प्रकृष्टैश्वर्ये (अश्विनोः) सकलविद्याव्याप्तयोर्मातापित्रोः (बाहुभ्याम्) भुजयोः सकाशात् (पूष्णः) पोषकस्य आचार्यस्य (हस्ताभ्याम्) करयोः सकाशात् (प्रसूतः) प्रेरितः (आरभे) रभ राभस्ये। अहं गृह्णामि। स्वीकरोमि ॥
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