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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    आ द॑धामि ते प॒दं समि॑द्धे जा॒तवे॑दसि। अ॒ग्निः शरी॑रं वेवे॒ष्ट्वसुं॒ वागपि॑ गच्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । द॒धा॒मि॒ । ते॒ । प॒दम् । सम्ऽइ॑ध्दे । जा॒तऽवे॑दसि । अ॒ग्नि: । शरी॑रम् । वे॒वे॒ष्टु॒ । असु॑म् । वाक् । अपि॑ । ग॒च्छ॒तु॒ ॥१२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ दधामि ते पदं समिद्धे जातवेदसि। अग्निः शरीरं वेवेष्ट्वसुं वागपि गच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । दधामि । ते । पदम् । सम्ऽइध्दे । जातऽवेदसि । अग्नि: । शरीरम् । वेवेष्टु । असुम् । वाक् । अपि । गच्छतु ॥१२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सबकी रक्षा के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे दुराचारी] (ते) तेरे (पदम्) पद [वा स्थान] को (समिद्धे) जलती हुई (जातवेदसि) वेदना अर्थात् पीड़ा देनेवाली अग्नि में (आ+दधामि) डाले देता हूँ। (अग्निः) अग्नि (शरीरम्) [तेरे] शरीर में (वेवेष्टु) प्रवेश करे और (वाक्) वाणी (अपि) भी (असुम्) [अपने] प्राण [अंश] में (गच्छतु) जावे ॥८॥

    भावार्थ

    दुराचारी मनुष्य राजदण्ड और ईश्वरनियम से ऐसा शारीरिक और मानसिक ताप पाता है, जैसे कोई प्रज्वलित अग्नि में जलकर कष्ट पाता है ॥८॥

    टिप्पणी

    ८–आ। समन्तात्। दधामि। स्थापयामि। ते। तव। त्वदीयम्। पदम्। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति पद गत्याम्–अच्। व्यवसायम्। स्थानम्। पादम्। समिद्धे। सम्+इन्धी दीप्तौ–क्त। प्रदीप्ते। जातवेदसि। अ० १।७।२। जात+विद वेदनायां, ज्ञाने, सत्तायाम्, यद्वा विद्लृ लाभे–असुन्। जातं वेदो वेदना दुःखं यस्मात् स जातवेदाः, तस्मिन् पीडाजनके अग्नौ। अग्निः। पावकः। शरीरम्। कॄशॄपॄकटिपटिशौटिभ्य ईरन्। उ० ४।३०। इति शॄ हिंसायाम्–ईरन्। शीर्य्यते हिंस्यते रोगादिना यत्। गात्रम्। कायम्। वेवेष्टु। विष्लृ व्याप्तौ। जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। णिजां त्रयाणां गुणः श्लौ। पा० ७।४।७५। प्रविशतु। असुम्। शॄस्वृस्निहित्रप्यसिवसि। उ० १।१०। इति असु क्षेपणे–उ प्रत्ययः। असुरिति प्राणनामास्तः शरीरे भवति–निरु० ३।८। प्राणम्। स्वकारणम्। वाक्। क्विप् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति वच कथने–क्विप्, दीर्घोऽसम्प्रसारणं च। वागिन्द्रियम्। गच्छतु। प्राप्नोतु ॥

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    विषय

    ज्ञानपूर्वक क्रियाएँ

    पदार्थ

    १. (ते पदम्) = तरे पाँच को-तेरी गति को (समिद्धे) = दीस (जातवेदसि) = ज्ञानाग्नि में [सब विषयों के जाननेवाले ज्ञान में] (आदधामि) = स्थापित करता हूँ, अर्थात् तेरे सब कार्य ज्ञानपूर्वक हों। ज्ञानपूर्वक होनेवाले कर्म पवित्र होते हैं। २. (अग्नि:) = यह ज्ञानाग्नि (शरीरम्) = तेरे शरीर को (वेवेष्ट) = व्याप्त करले, अर्थात् तेरी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ खुद ही ज्ञान-प्राप्ति में लगी हों और (वाक्) = तेरी वाणी (असुम् अपि गच्छतु) = प्राणशक्ति की ओर जानेवाली हो, तेरी वाणी में शक्ति हो। वस्तुत: जो पुरुष ज्ञानी बनता है, उसकी वाणी में बल होता है। वह शब्दों का प्रयोग इसप्रकार करता है कि वे प्रभावजनक होते हैं।

    भावार्थ

    हमारी सब क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक हों। ज्ञान से हमारा शरीर व्याप्त हो और हमारी वाणी में बल हो।

    विशेष

    सूक्त की मूल भावना यही है कि हमारा जीवन दीस होगा तो हमें संसार भी दीस व चमकता हुआ प्रतीत होगा, अतः हमारा सारा प्रयल जीवन को दीप्त बनाने में लगे। अगले सूक्त में जीवन को दीस बनाने के लिए कुछ नियमों का प्रतिपादन किया गया है। उनका पालन करनेवाला 'अथर्वा'-न डाँवाडोल वृत्तिवाला पुरुष सूक्त का ऋषि है। यह दीर्घ व सुन्दर जीवन के लिए प्रार्थना करता हुआ कहता है कि -

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    भाषार्थ

    हे मृत्युदण्डित ! (ते पदम् ) तेरे पैर को (समिद्धे) सम्यक्-प्रदीप्त (जातवेदसि) अग्नि में (आ दधामि ) मैं स्थापित करता हूँ । (अग्निः ) अग्नि (शरीरम्) तेरे शरीर में (वेवेष्टु) प्रविष्ट हो जाय, (वाक् अपि ) तेरी बाणी भी (असुम्) प्राणवायु में (गच्छतु) चली जाय। जातवेदसि = जाते जाते विद्यते इति जातवेदाः, तस्मिन् (निरुक्त ७।५।१९)

    टिप्पणी

    [मन्त्र ७ के अनुसार दण्डित को श्मशानभूमि में जीवितावस्था में लाया गया है, अर्थी१ पर मृतावस्था में नहीं। राजपुरुष ही दण्डानुसार उसका दाहकर्म करता है। पहिले वह दण्डित के परों को प्रज्वलित अग्नि में स्थापित करता है, ताकि जलन पीड़ा का अनुभव उसे हो; तदनन्तर उसके शेष शरीर को अग्नि में फेंक देता है। उसके दाह की यह विधि राजदण्ड के अनुसार निश्चित हुई है।] [१. वह फट्टा जिस पर शव को लेटा कर श्मशान भूमि तक पहुँचाया जाता है।]

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    विषय

    तपस्या की साधना

    भावार्थ

    हे आत्मन् ! ( ते ) तेरे ( पदं ) निज स्वरूप को (समिद्धे) अति दीप्त, उज्ज्वल, तेजोमय ( जातवेदसि ) सर्वज्ञ, सर्वोत्पादक, परम ब्रह्म में (आदधामि) स्थापित करता हूं। और ( शरीरं ) इस भौतिक शरीर को ( अग्निः ) यह अग्नि या योगाग्नि ( वेवेष्टु ) सब प्रकार से व्याप्त करले और ( वाक् अपि ) यह वाणी भी ( असुं ) प्राण में ( गच्छतु ) लीन हो जाय । इसी प्रकार सब इन्द्रियगण अपने कारण में लीन होकर आत्मा के बन्धन का कारण न हों और मैं आत्मा विदेह प्रकृति लय को प्राप्त होकर मोक्षानन्द को प्राप्त होजाऊं। वेदों का मुख्य प्रतिपाद्य अध्यात्म विषय होने से पूर्वमन्त्र भी उक्त प्रकार से अध्यात्म में ही लगते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजप्रव्रस्कं सूक्तम्। भरद्वाज ऋषिः। नाना देवताः। प्रथमया द्यावापृथिव्योः उरूगा यस्यान्तरिक्षस्य च स्तुतिः। द्वितीयया देवस्तुतिः। तृतीयया इन्द्रस्तुतिः। चतुर्थ्या आदित्यवस्वंगिरः पितॄणाम् सौम्यानां। पञ्चम्या, ब्रह्मविराट्तमोऽघ्न्यानां, पष्ठ्या मरुताम् सप्तम्या यमसदनात् ब्रह्मस्तुतिः। अष्टम्या अग्निस्तुतिः। २ जगती । १, ३-६ त्रिष्टुभः । ७, ८ अनुष्टुभौ। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self Protection and Development

    Meaning

    I set your station in the refulgent light and fire of ardent enlightenment with divinity. Let fire enter and envelop your body. Let your speech go to cosmic energy.

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    Subject

    Agni

    Translation

    I hereby set your path into the raging fire. May the fire engulf you, your life and your speech also.

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    Translation

    O Jiva! I set your mortals on the blazing fire. Let the fire penetrate its essence through your dead body and your organ of speech go to general breath.

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    Translation

    O soul, I set thy innate nature in the Refulgent Omniscient God. May yogic fire pervade this physical body, and voice be absorbed in breath. [1]

    Footnote

    [1] I refers to a yogi, who controls his organs, absorbs his soul in God through meditation, and attains to salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८–आ। समन्तात्। दधामि। स्थापयामि। ते। तव। त्वदीयम्। पदम्। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति पद गत्याम्–अच्। व्यवसायम्। स्थानम्। पादम्। समिद्धे। सम्+इन्धी दीप्तौ–क्त। प्रदीप्ते। जातवेदसि। अ० १।७।२। जात+विद वेदनायां, ज्ञाने, सत्तायाम्, यद्वा विद्लृ लाभे–असुन्। जातं वेदो वेदना दुःखं यस्मात् स जातवेदाः, तस्मिन् पीडाजनके अग्नौ। अग्निः। पावकः। शरीरम्। कॄशॄपॄकटिपटिशौटिभ्य ईरन्। उ० ४।३०। इति शॄ हिंसायाम्–ईरन्। शीर्य्यते हिंस्यते रोगादिना यत्। गात्रम्। कायम्। वेवेष्टु। विष्लृ व्याप्तौ। जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। णिजां त्रयाणां गुणः श्लौ। पा० ७।४।७५। प्रविशतु। असुम्। शॄस्वृस्निहित्रप्यसिवसि। उ० १।१०। इति असु क्षेपणे–उ प्रत्ययः। असुरिति प्राणनामास्तः शरीरे भवति–निरु० ३।८। प्राणम्। स्वकारणम्। वाक्। क्विप् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति वच कथने–क्विप्, दीर्घोऽसम्प्रसारणं च। वागिन्द्रियम्। गच्छतु। प्राप्नोतु ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    হে মৃত্যুদণ্ডিত ! (তে পদম্) তোমার পা কে (সমিদ্ধে) সম্যক্-প্রদীপ্ত (জাতবেদসি) অগ্নিতে (আ দধামি) আমি স্থাপিত করি। (অগ্নিঃ) অগ্নি (শরীরম্) তোমার শরীরে (বেবেষ্টু) প্রবিষ্ট হোক, (বাক্ অপি) তোমার বাণীও (অসুম্) প্রাণবায়ুতে (গচ্ছতু) চলে যাক। জাতবেদসি= জাতে জাতে বিদ্যতে ইতি জাতবেদাঃ, তস্মিন্ (নিরুক্ত ৭।৫।১৯)

    टिप्पणी

    [মন্ত্র ৭ এর অনুসারে দণ্ডিতকে শ্মশান ভূমিতে জীবিতাবস্থায় নিয়ে আসা হয়েছে, শবাধারে২ মৃতাবস্থায় নেই। রাজপুরুষই দণ্ডানুসারে তাঁর দাহকর্ম করে। প্রথমে সে দণ্ডিতের পাকে প্রজ্বলিত অগ্নিতে স্থাপিত করে, যাতে জলন-পীড়া এর অনুভব সে প্রাপ্ত করে; তদনন্তর তাঁর অবশিষ্ট শরীরকে অগ্নিতে নিক্ষেপ করে। তাঁর দাহের এই বিধি রাজদণ্ডের অনুসারে নিশ্চিত হয়েছে।] [২. সেই ছোট্ট খাটিয়া যার ওপর শবকে শুইয়ে শ্মশান ভূমি পর্যন্ত পৌঁছানো হয়।]

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    मन्त्र विषय

    সর্বরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে দুরাচারী] (তে) তোমার (পদম্) পদ [বা স্থান]কে (সমিদ্ধে) জলন্ত (জাতবেদসি) বেদনা অর্থাৎ পীড়াদায়ক অগ্নিতে (আ+দধামি) স্থাপন করি। (অগ্নিঃ) অগ্নি (শরীরম্) [তোমার] শরীরে (বেবেষ্টু) প্রবেশ করে/করুক এবং (বাক্) বাণী (অপি)(অসুম্) [নিজের] প্রাণ [অংশে] (গচ্ছতু) যাক ॥৮॥

    भावार्थ

    দুরাচারী মনুষ্য রাজদণ্ড ও ঈশ্বরনিয়ম দ্বারা এমন শারীরিক ও মানসিক তাপ প্রাপ্ত করে, যেমন কেউ প্রজ্বলিত অগ্নিতে জ্বলে কষ্ট পায় ॥৮॥

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