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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 124 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 124/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१२४
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    प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नय॒ञ्छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्। अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्कम् । अ॒न॒य॒न् । शची॑भि: । आत । इत् । स्व॒धाम् । इ॒षि॒राम् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न् ॥ अ॒या । वाज॑म् । दे॒वऽहि॑तम् । स॒ने॒म॒ । मदे॑म । श॒तऽहि॑मा: । सु॒ऽवीरा॑: ॥१२४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यञ्चमर्कमनयञ्छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन्। अया वाजं देवहितं सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्यञ्चम् । अर्कम् । अनयन् । शचीभि: । आत । इत् । स्वधाम् । इषिराम् । परि । अपश्यन् ॥ अया । वाजम् । देवऽहितम् । सनेम । मदेम । शतऽहिमा: । सुऽवीरा: ॥१२४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 124; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष पाने योग्य (अर्कम्) पूजनीय व्यवहार को (शचीभिः) अपने कर्मों से (अनयन्) उन [विद्वानों] ने प्राप्त कराया है, और (आत् इत्) तभी (इषिराम्) चलानेवाली (स्वधाम्) आत्मधारण शक्ति को (परि) सब ओर (अपश्यन्) देखा है। (अया) इसी [नीति] से (शतहिमाः) सौ वर्षों तक जीते हुए (सुवीराः) उत्तम वीरोंवाले हम (देवहितम्) विद्वानों के हितकारी (वाजम्) विज्ञान को (सनेम) देवें और (मदेम) आनन्द करें ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे विद्वान् लोग अपने उत्तम कर्मों से संसार का उपकार करते रहे हैं, वैसे ही हम श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति से मनुष्यों को वीर बनाकर आनन्द देवें ॥६॥

    टिप्पणी

    ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ६३।१-३ ॥

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    विषय

    व्याख्या २०.६३.१-३ पर द्रष्टव्य है

    पदार्थ

    गत सूक्त की भावना के अनुसार जीवन को सुन्दर बनाता हुआ यह व्यक्ति उत्तम यशवाला 'सुकीर्ति' बनता है। प्रभु का उत्तम कीर्तन करने से भी यह 'सुकीर्ति' होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (प्रत्यञ्चम्) प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त, (अर्कम्) अर्चनीय परमेश्वर को, उपासक (शचीभिः) निज स्तुतियों, कर्मों तथा प्रज्ञाओं द्वारा, (अनयन्) स्वाभिमुख कर लेते हैं (आत् इत्) तदनन्तर ही (इषिराम्) अभीष्ट (स्वधाम्) मोक्ष-रूपी स्वादु अन्न का (पर्यपश्यन्) लाभ करते हैं। (अया) इस रीति द्वारा (देवहितम्) परमेश्वर-देव द्वारा प्रदत्त (वाजम्) बल को, (सनेम) हम पाते हैं, और (सुवीराः) श्रेष्ठसन्तानोंवाले हम (शतहिमाः) सौ वर्षों तक (मदेम) प्रसन्न रहते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    When the divinities and nobilities of nature offer their yajnic homage at their best to Indra, then they see and experience divine inspiration and vigour descending on them from Divinity through nature to humanity. Thus may we too offer adoration and seek to share divine favour and inspiration fit for dedicated humanity and live a full happy hundred years blest with noble and heroic generations of progeny.

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    Translation

    These learned men through their wisdom and powers bring straight the act of righteousness and realize All impelling Svadham, the self-existent God. In this way may we living hundred autumns and blessed with heroes disseminate the knowledge benifitting the learned men and enjoy happiness.

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    Translation

    These learned men through their wisdom and powers bring straight the act of righteousness and realize all impelling Svadham, the self-existent God. In this way may we living hundred autumns and blessed with heroes disseminate the knowledge benefitting the learned men and enjoy happiness.

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    Translation

    O Brave and Mighty God of Protection and Destruction and Fortunes, or king, capable of warding off all forces of evil and ignorance or the enemy, drive away the enemies from the east, the west, from the north and from below, i.e., the south, so that we may be happy and pleasant under Thy vast shelter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ६३।१-३ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (প্রত্যঞ্চম্) প্রত্যক্ষ প্রাপ্তিযোগ্য (অর্কম্) পূজনীয় ব্যবহারকে (শচীভিঃ) নিজ কর্ম সমূহের দ্বারা (অনয়ন্) তারা [বিদ্বানগণ] প্রাপ্ত করিয়েছেন এবং (আৎ ইৎ) তখনই (ইষিরাম্) চালনাকারী (স্বধাম্) আত্মধারণ শক্তিকে (পরি) সকল দিক হতে (অপশ্যন্) অবলোকন করেছেন। (অয়া) এই [নীতি] দ্বারা (শতহিমাঃ) শত বর্ষ জীবিত থেকে (সুবীরাঃ) শ্রেষ্ঠ বীরযুক্ত আমরা যেষ (দেবহিতম্) বিদ্বানদের হিতকারী (বাজম্) বিজ্ঞান (সনেম) প্রদান করি এবং (মদেম) আনন্দ করি ॥৬॥

    भावार्थ

    যেমন বিদ্বানগণ নিজেদের উত্তম কর্মের মাধ্যমে সংসারের উপকার করতে থাকে, তেমনই আমরা যেন শ্রেষ্ঠ জ্ঞানের প্রাপ্তি দ্বারা মনুষ্যকে বীর করে আনন্দ প্রদান করি॥৬॥

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    भाषार्थ

    (প্রত্যঞ্চম্) প্রত্যেক পদার্থের মধ্যে ব্যাপ্ত, (অর্কম্) অর্চনীয় পরমেশ্বরকে, উপাসক (শচীভিঃ) নিজ স্তুতি, কর্ম তথা প্রজ্ঞা দ্বারা, (অনয়ন্) স্বাভিমুখ করে নেয় (আৎ ইৎ) তদনন্তরই (ইষিরাম্) অভীষ্ট (স্বধাম্) মোক্ষ-রূপী স্বাদু অন্ন (পর্যপশ্যন্) লাভ করে। (অয়া) এই রীতি দ্বারা (দেবহিতম্) পরমেশ্বর-দেব দ্বারা প্রদত্ত (বাজম্) বল, (সনেম) আমরা প্রাপ্ত করি, এবং (সুবীরাঃ) শ্রেষ্ঠসন্তানসম্পন্ন আমরা (শতহিমাঃ) শত বর্ষ পর্যন্ত (মদেম) প্রসন্ন থাকি।

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