अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा
देवता - हरिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-३२
47
आ त्वा॑ ह॒र्यन्तं॑ प्र॒युजो॒ जना॑नां॒ रथे॑ वहन्तु॒ हरि॑शिप्रमिन्द्र। पिबा॒ यथा॒ प्रति॑भृतस्य॒ मध्वो॒ हर्य॑न्य॒ज्ञं स॑ध॒मादे॒ दशो॑णिम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ह॒र्यन्त॑म् । प्र॒ऽयुज॑: । जना॑नाम् । रथे॑ । व॒ह॒न्तु॒ । हरि॑ऽशिप्रम् । इ॒न्द्र॒ ॥ पिब॑ । यथा॑ । प्रति॑ऽभृतस्य । मध्व॑: । हय॑न् । य॒ज्ञम् । स॒ध॒ऽमादे॑ । दश॑ऽश्रोणिम् ॥३२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा हर्यन्तं प्रयुजो जनानां रथे वहन्तु हरिशिप्रमिन्द्र। पिबा यथा प्रतिभृतस्य मध्वो हर्यन्यज्ञं सधमादे दशोणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । हर्यन्तम् । प्रऽयुज: । जनानाम् । रथे । वहन्तु । हरिऽशिप्रम् । इन्द्र ॥ पिब । यथा । प्रतिऽभृतस्य । मध्व: । हयन् । यज्ञम् । सधऽमादे । दशऽश्रोणिम् ॥३२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (जनानाम्) मनुष्यों की (प्रयुजः) प्रार्थनाएँ (हरिशिप्रम्) सिंह के समान मुखवाले (हर्यन्तम्) कामनायोग्य (त्वा) तुझको (रथे) रथ पर (आ वहन्तु) लावें। (यथा) जिससे (सधमादे) उत्सव के बीच (दशोणिम्) दस दिशाओं में क्लेश मिटानेवाले (यज्ञम्) यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] को (हर्यन्) चाहता हुआ तू (प्रतिभृतस्य) प्रत्यक्ष रक्खे हुए (मध्वः) ज्ञान का (पिब) पान करे ॥२॥
भावार्थ
राजा सभा के बीच प्रजा की प्रार्थनाओं को सुनकर उनके दुःखों को मिटाकर राज्य की उन्नति का विचार करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(आ वहन्तु) आनयन्तु (त्वा) त्वाम् (हर्यन्तम्) कमनीयम् (प्रयुजः) युजिर् योगे-क्विप्। प्रयोजनाः। प्रार्थनाः (जनानाम्) मनुष्याणाम् (रथे) रमणसाधने याने (हरिशिप्रम्) अ०२०।३०।४। सिंहसमानमुखयुक्तम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (पिब) पानं कुरु (यथा) येन प्रकारेण (प्रतिभृतस्य) प्रत्यक्षधृतस्य (मध्वः) मधुनः। ज्ञानस्य (हर्यन्) कामयमानः (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (सधमादे) सहमोदस्थाने। उत्सवे (दशोणिम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ०४।११८। दश+ओणृ अपनयने-इन्, पृषोदरादिरूपम्। दशसु दिक्षु क्लेशानामपनेतारं नाशयितारम् ॥
विषय
दशोणि यज्ञ
पदार्थ
१.हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (हरिशिपम्) = हरणशील हैं हनू व नासिका जिसकी, जिसके जबड़े भोजन को खूब चबाकर रोगों को दूर करनेवाले हैं और नासिका प्राणायाम के द्वारा वासनाओं को विनष्ट करनेवाली है, उस (हर्यन्तम्) = प्रभु-प्राप्ति की कामनाबाले (त्वा) = तुझको (जनानाम्) = शक्तियों का विकास करनेवाले लोगों की (प्रयुज:) = योगवृत्तियाँ (रथे) = इस शरीर-रथ में (आवहन्तु) = धारण करनेवाली हों, इन योगवृत्तियों के द्वारा तु सब शक्तियों का धारण करनेवाला बन। २. योगवृत्तियों को तू इसलिए अपनानेवाला हो, (यथा) = जिससे (प्रतिभृतस्य) = प्रतिदिन तेरे अन्दर धारण किये गये (मध्वः) = सोम का (पिब) = तू पान करे तथा (सधमादे) = प्रभु के साथ आनन्द प्राप्ति के निमित्त (दशोणिम्) = दशों इन्द्रियों को विषयों से पृथक् करनेवाले (यज्ञम्) = श्रेष्ठतम कर्मों को (हर्यन) = चाहनेवाला हो।
भावार्थ
योगवृत्तियों को अपनाते हुए हम सोम का रक्षण करें तथा दशों इन्द्रियों को विषयों से पृथक् करके उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें। यही प्रभु के साथ मिलकर आनन्द प्राप्त करने का मार्ग है।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (जनानाम्) उपासकजनों के (प्रयुजः) स्तुति-प्रयोग, (हर्यन्तम्) कामनावाले तथा (हरिशिप्रम्) मनोहारी ज्योतिवाले (त्वा) आपको, (रथे) उपासकजनों के शरीर-रथों में (आ वहन्तु) उनके स्वामीरूप में आवाहन करें, प्रार्थनाएँ करें कि आप ही हमारे शरीर-रथों के प्रेरक हों। हे परमेश्वर! (दशोणिम्) जिस उपासना-यज्ञ में दस इन्द्रियों की दस दुर्वासनाएँ न्यून हो चुकी हैं, क्षीण हो चुकी हैं, उस (यज्ञम्) उपासना-यज्ञ को (हर्यन्) चाहते हुए आप, (सधमादे) पारस्परिक-प्रसन्नता के निमित्त आप (प्रतिभृतस्य) प्रस्तुत (मध्वः) मधुर भक्तिरस का (यथा) यथातथा (पिब) ग्रहण कीजिए।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह है कि आप मधुर भक्तिरस के ग्रहण द्वारा प्रसन्न हूजिए, और हम आपके आनन्दरस द्वारा प्रसन्न हों। शिप्रम्=शिपयः=रश्मयः+र (=वाला)। दशोणिम्=दश+ऊन परिहाणे।]
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
हे इन्द्र ! परमेश्वर ! (जनानां) जनों के बीच में से (प्रयुजः) उत्कृष्ट योग समाधि करने हारे योगीजन (हरिशिप्रम्) दुःखों के विनाशक ज्ञान से पूर्ण (हर्यन्तं) अति कमनीय (त्वा) तुझको (आवहन्तु) साक्षात् प्राप्त करें। हे प्रभो ! तू (प्रतिभूतस्य) साक्षात् भेट किये (मध्वः) मधु अमृत (यथा) के समान (हर्यन्) कामना करता हुआ (सधमादं) एक संग आनन्द लाभ करने के अवसर में (दशोणिम्) दशों इन्द्रिय या प्राणों से युक्त (यज्ञं) यज्ञ रूप आत्मा को (पिब) पानकर, स्वीकार कर अपना। अर्थात् जिस प्रकार पूज्य अतिथि प्रेम पूर्वक भेट किये मधुपर्क को खाता है उसी प्रकार वह परमेश्वर हमारे दश प्राणों से युक्त उसके समर्पित आत्मा को अपने आश्रय में लीन करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वरुः सर्वहरिवेन्द्रः। हरिस्तुतिः। १ जगती। २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Indra, may the radiations of your light bear and bring you, glorious lord of golden visor, by your cosmic chariot to the people so that you, loving the yajna, drink of the honey sweet soma extracted and prepared with utmost dexterity of hand and care in the hall of yajna.
Translation
O learned man, the requests of the people carry you on chariot near them. You have beautiful chins and are dear to all. You comeing to our Yajna which spreads in ten regions and our gathering drink sweet juice presentéd to you.
Translation
O learned man, the requests of the people carry you on chariot near them. You have beautiful chins and are dear to all. You coming to our Yajna which spreads in ten regions and our gathering drink sweet juice presented to you.
Translation
O Adorable God, out of the general people, those yogis, who are immersed in deep meditation, may have a clear vision of Thee, Who art so Beautiful, Evil-Smasher and Speedy-Mobiliser into highest bliss. Letst Thee engulf the sacrificing soul, with all its ten sense-organs or ten vital breaths, all at once into Thy blissful fold, just as a guest takes in the sweet dish offered to him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(आ वहन्तु) आनयन्तु (त्वा) त्वाम् (हर्यन्तम्) कमनीयम् (प्रयुजः) युजिर् योगे-क्विप्। प्रयोजनाः। प्रार्थनाः (जनानाम्) मनुष्याणाम् (रथे) रमणसाधने याने (हरिशिप्रम्) अ०२०।३०।४। सिंहसमानमुखयुक्तम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (पिब) पानं कुरु (यथा) येन प्रकारेण (प्रतिभृतस्य) प्रत्यक्षधृतस्य (मध्वः) मधुनः। ज्ञानस्य (हर्यन्) कामयमानः (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (सधमादे) सहमोदस्थाने। उत्सवे (दशोणिम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ०४।११८। दश+ओणृ अपनयने-इन्, पृषोदरादिरूपम्। दशसु दिक्षु क्लेशानामपनेतारं नाशयितारम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (জনানাম্) মনুষ্যদের (প্রয়ুজঃ) প্রার্থনা (হরিশিপ্রম্) সিংহের ন্যায় মুখযুক্ত (হর্যন্তম্) কামনাযোগ্য/কমনীয় (ত্বা) তোমাকে (রথে) রথের উপর (আ বহন্তু)নিয়ে আসুক/আনয়ন করুক। (যথা) যেমন (সধমাদে) উৎসবের মাঝে (দশোণিম্) দশ দিশায় ক্লেশ বিনষ্টকারী (যজ্ঞম্) যজ্ঞ [পূজনীয় ব্যবহার] (হর্যন্) আকাঙ্ক্ষী/কামনাকারী তুমি (প্রতিভৃতস্য) প্রত্যক্ষ (মধ্বঃ) জ্ঞান (পিব) পান করো ॥২॥
भावार्थ
রাজা সভার মাঝে প্রজাদের প্রার্থনাসমূহ শ্রবণ করে তাঁদের দুঃখ দূর করে রাজ্যের উন্নতির বিচার করুক॥২॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (জনানাম্) উপাসকদের (প্রয়ুজঃ) স্তুতি-প্রয়োগ, (হর্যন্তম্) কামনাকারী তথা (হরিশিপ্রম্) মনোহারী জ্যোতিসম্পন্ন/দীপ্ত (ত্বা) আপনাকে, (রথে) উপাসকদের শরীর-রথে (আ বহন্তু) তাঁদের স্বামীরূপে আবাহন করুক, প্রার্থনা করুক, আপনিই যেন আমাদের শরীর-রথের প্রেরক হন। হে পরমেশ্বর! (দশোণিম্) যে উপাসনা-যজ্ঞে দশ ইন্দ্রিয়ের দশটি দুর্বাসনা ন্যূন হয়েছে, ক্ষীণ হয়েছে, সেই (যজ্ঞম্) উপাসনা-যজ্ঞ (হর্যন্) কামনা করে আপনি, (সধমাদে) পারস্পরিক-প্রসন্নতার নিমিত্ত/জন্য আপনি (প্রতিভৃতস্য) প্রস্তুত (মধ্বঃ) মধুর ভক্তিরস (যথা) যথাতথা (পিব) গ্রহণ করুন।
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