अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
अन॑र्शरातिं वसु॒दामुप॑ स्तुहि भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तयः॑। सो अ॑स्य॒ कामं॑ विध॒तो न रो॑षति॒ मनो॑ दा॒नाय॑ चो॒दय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअन॑र्शऽरातिम् । व॒सु॒ऽदााम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । भ॒द्रा: । इन्द्र॑स्य । रा॒तय॑: ॥ स: । अ॒स्य॒ । काम॑म् । वि॒ध॒त: । न । रो॒ष॒ति॒ । मन॑: । दा॒नाय॑ । चो॒दय॑न् ॥५८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनर्शरातिं वसुदामुप स्तुहि भद्रा इन्द्रस्य रातयः। सो अस्य कामं विधतो न रोषति मनो दानाय चोदयन् ॥
स्वर रहित पद पाठअनर्शऽरातिम् । वसुऽदााम् । उप । स्तुहि । भद्रा: । इन्द्रस्य । रातय: ॥ स: । अस्य । कामम् । विधत: । न । रोषति । मन: । दानाय । चोदयन् ॥५८.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर विषय का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (अनर्शरातिम्) निर्दोष दानी, (वसुदाम्) धन देनेवाले [परमात्मा] की (उप) आदरपूर्वक (स्तुहि) स्तुति कर, (इन्द्रस्य) उस इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] के (रातयः) दान (भद्राः) कल्याणकारी हैं। (सः) वह [परमात्मा] (विधतः) सेवक के (मनः) मन को (दानाय) दान के लिये (चोदयन्) बढ़ाता हुआ (अस्य) उसकी (कामम्) इच्छा को (न) नहीं (रोषति) नष्ट करता है ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा के अक्षय भण्डार से अनन्त दानों को पाकर सदा उपकार में लगावें ॥२॥
टिप्पणी
२−(अनर्शरातिम्) ऋश हिंसायाम्-अच्, सौत्रो धातुः। अनर्शरातिमनश्लीलदानमश्लीलं पापकमश्रिमद् विषमम्-निरु० ६।२३। निर्दोषदानम् (वसुदाम्) धनस्य दातारम् (उप) पूजायाम् (स्तुहि) प्रशंस (भद्राः) कल्याण्यः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (रातयः) दानानि (सः) परमात्मा (अस्य) उपासकस्य (कामम्) मनोरथम् (विधतः) परिचरतः पुरुषस्य (न) निषेधे (रोषति) हिनस्ति। नाशयति (मनः) अन्तःकरणम् (दानाय) (चोदयन्) प्रेरयन् सन् ॥
विषय
'अनर्शराति' प्रभु
पदार्थ
१. उस (अनर्शरातिम्) = निष्पाप दानवाले [Asinless donor] (वसुदाम्) = धनों के दाता प्रभु को (उपस्तुहि) = उपस्तुत कर । (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (रातयः) = दान (भद्रा:) = कल्याणकर हैं। २. (सः) = वे प्रभु (अस्य विधत:) = इस-[प्रभु]-की पूजा करनेवाले की-उपासक की कामम अभिलाषा को (न रोषति) = हिंसित नहीं करते। प्रभु उपासक की अभिलाषा को पूर्ण करते हैं और (मन:) = उपासक के मन को दानाय दान के लिए (चोदयन) = प्रेरित करते हैं।
भावार्थ
वसुओं के दाता प्रभु का हम स्तवन करें। प्रभु स्तोता की कामना को पूर्ण करते हैं और उसके मन को दान के लिए प्रेरित करते हैं।
भाषार्थ
(अनर्शरातिम्) अश्लीलता की ओर न प्रेरित करनेवाले पवित्र दान के दाता, (वसुदाम्) तथा सदा सम्पत्तियों के दाता परमेश्वर की—हे उपासक! तू (उप स्तुहि) उपासना की विधि से स्तुतियाँ किया कर, और यह समझ कि (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (रातयः) सब दान (भद्राः) सुखदायी और कल्याणप्रद हैं। (सः) वह परमेश्वर (अस्य विधतः) इस उपासक के (मनः) मन को (दानाय) दान करने के लिए (चोदयन्) प्रेरित करता हुआ, (अस्य) इस उपासक की (कामम्) मोक्षकामना को (न रोषति) असफल नहीं करता।
टिप्पणी
[परमेश्वर के सभी दान पवित्र हैं। मनुष्य अपनी दूषित मनोभावनाओं से उन्हें दूषित कर देता है। रूप, रंग, आकृतियाँ, स्त्री पुरुष—इत्यादि सम्पत्तियाँ सब पवित्र हैं। परमेश्वर सदा इन सम्पत्तियों का दान करता रहता है। आर्थिक-सम्पत्तियाँ भी परमेश्वर ही देता है। परन्तु इनका विषम विभाग कर हम ही इन सम्पत्तियों को दुष्परिणामी बना देते हैं। प्रत्येक को चाहिए कि वह प्राप्त सम्पत्तियों का दान किया करे। इस प्रकार त्यागपूर्वक और गर्धा से हीन भोगी होकर मोक्ष की ओर प्रगति करता जाए। [अनर्शरातिम्=अनश्लीलदानम्। अश्लीलं पापकम् (निरु০ ६.५.२३)। विधतः, विधेम= परिचर्या (निघं০ ३.५)।]
विषय
ईश्वरस्तुति।
भावार्थ
हे मनुष्य ! तू (अनर्शरातिम्) निष्पाप सात्विकदान वाले (वसुदाम्) ऐश्वर्य के दाता परमेश्वर की (उपस्तुहि) स्तुति कर। हे मनुष्य ! (इन्द्रस्य रातयः) इन्द, ईश्वर के समस्त दान (भद्राः) कल्याण और सुख के जनक हैं। (सः) वह परमेश्वर (अस्य विधतः) अपनी सेवा स्तुति करने वाले इस भक्त सेवक के (कामम्) मनोरथ का (न रोषति) घात नहीं करता। परमेश्वर अपने भक्त के मनोरथ को पूर्ण करता है। और (दानाय) दान देने के लिये ही (मनः) अपने भक्त के चित्त को (चोदयन्) प्रेरित करता रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, २ नृमेधः। ३, ४ भरद्वाजः इन्द्रः। ४ सूर्यश्च देवते। प्रगाथः। चतुऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Adore and meditate on Indra, giver of wealth, honour, excellence and bliss. Infinite is his generosity, unsatiating, auspicious his gifts. He does not displease the devotee, does not hurt his desire and prayer, he inspires his mind for the reception of divine gifts.
Translation
O people, you pray God who is munificent and whose power of giving gift is free from all blames. . The gifts of Almighty God are auspicious. He does not ever bear any displeasure upon the desire of his devotee. He infuses in him the spirit of munificence.
Translation
O people, you pray God who is munificent and whose power of giving gift is free from all blames. The gifts of Almighty God are auspicious. He does not ever bear any displeasure upon the desire of his devotee. He infuses in him the spirit of munificence.
Translation
O man, worship Him, Whose gifts are flawless and Who is the Giver of riches and wealth. Auspicious and propitious, are the bounties of the Lord of fortune. He does not turn down the desire of this devotee of His in anger, but He is bent upon granting boons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अनर्शरातिम्) ऋश हिंसायाम्-अच्, सौत्रो धातुः। अनर्शरातिमनश्लीलदानमश्लीलं पापकमश्रिमद् विषमम्-निरु० ६।२३। निर्दोषदानम् (वसुदाम्) धनस्य दातारम् (उप) पूजायाम् (स्तुहि) प्रशंस (भद्राः) कल्याण्यः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (रातयः) दानानि (सः) परमात्मा (अस्य) उपासकस्य (कामम्) मनोरथम् (विधतः) परिचरतः पुरुषस्य (न) निषेधे (रोषति) हिनस्ति। नाशयति (मनः) अन्तःकरणम् (दानाय) (चोदयन्) प्रेरयन् सन् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
ঈশ্বরবিষয়োপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্য !] (অনর্শরাতিম্) নির্দোষ দানশীল, (বসুদাম্) ধন প্রদাতার [পরমাত্মার] (উপ) আদরপূর্বক (স্তুহি) স্তুতি করো, (ইন্দ্রস্য) সেই ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বরের] (রাতয়ঃ) দান (ভদ্রাঃ) কল্যাণকারী। (সঃ) তিনি [পরমাত্মা] (বিধতঃ) সেবকের (মনঃ) মনকে (দানায়) দানের জন্য (চোদয়ন্) প্রেরিত করে (অস্য) তাঁর (কামম্) ইচ্ছাকে (ন) না (রোষতি) নষ্ট করেন ॥২॥
भावार्थ
মনুষ্য পরমাত্মার অক্ষয় ভাণ্ডার হতে অনন্ত দান প্রাপ্ত করে তা সদা মানুষের উপকারে ব্যবহার করুক ॥২॥
भाषार्थ
(অনর্শরাতিম্) অশ্লীলতার দিকে না প্রেরিতকারী পবিত্র দানের দাতা, (বসুদাম্) তথা সদা সম্পত্তির দাতা পরমেশ্বরের —হে উপাসক! তুমি (উপ স্তুহি) উপাসনার বিধি দ্বারা স্তুতি করো, এবং ইহা মনে করো (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (রাতয়ঃ) সকল দান (ভদ্রাঃ) সুখদায়ী এবং কল্যাণপ্রদ। (সঃ) সেই পরমেশ্বর (অস্য বিধতঃ) এই উপাসকের (মনঃ) মনকে (দানায়) দান করার জন্য (চোদয়ন্) প্রেরিত করেন, (অস্য) এই উপাসকের (কামম্) মোক্ষকামনা (ন রোষতি) অসফল করেন না।
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