अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
अ॑र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॑हि परा॒वत॑श्च वृत्रहन्। इ॒मा जु॑षस्व नो॒ गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वा॒ऽवत॑: । न॒: । आ । ग॒हि॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् ॥ इ॒मा: । जु॒ष॒स्व॒ । न॒: । गिर॑: ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वावतो न आ गहि परावतश्च वृत्रहन्। इमा जुषस्व नो गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाऽवत: । न: । आ । गहि । पराऽवत: । च । वृत्रऽहन् ॥ इमा: । जुषस्व । न: । गिर: ॥६.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(वृत्रहन्) हे धन के पानेवाले ! (अर्वावतः) समीप देश से (च) और (परावतः) दूर देश से (नः) हममें (आ गहि) आ। और (नः) हमारी (इमाः) इन (गिरः) वाणियों का (जुषस्व) सेवन कर ॥८॥
भावार्थ
राजा धनवान् होकर समीप और दूर से प्रजा की पुकार सुनकर सदा रक्षा करे ॥८॥
टिप्पणी
इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से आगे है-अ० २०।२०।४ और ७।८ ॥ ८−(अर्वावतः) अर्वाचीनात्। समीपदेशात् (नः) अस्मान् (आ गहि) आगच्छ (परावतः) दूरदेशात् (च) समुच्चये (वृत्रहन्) वृत्रं धननाम-निघ० २।१०। हन हिंसागत्योः-क्विप्। यो वृत्रं धनं हन्ति प्राप्नोति स वृत्रहा तत्सम्बुद्धौ (इमाः) उच्चार्यमाणाः (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः ॥
विषय
अर्वावत:, परावत:
पदार्थ
१. हे (वृत्रहन्) = ज्ञान को आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! आप (अर्वावत:) = समीप के प्रदेश के हेतु से-इहलोक के हेतु से, अर्थात् अभ्युदय के हेतु से (न:) = हमें (आगहि) = प्राप्त होइए (च) = और (परावतः) = दूर देश के हेतु से-परलोक के हेतु से, अर्थात् नि:श्रेयस के हेतु से हमें प्राप्त होइए। आपने ही हमें 'अभ्युदय व निःश्रेयस' प्राप्त कराना है। २. आप (इमा:) = इन (न:) = हमारी-हमसे की गई गिरः-स्तुतिवाणियों को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए। हमारे द्वारा की गई स्तुतिवाणियाँ हमें आपका प्रिय बनाएँ। वस्तुत: इनसे ही प्रेरणा लेकर हमें जीवन में आगे बढ़ना है और आपके अनुरूप बनने का प्रयत्न करना है।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन करें। प्रभु वासना-विनाश के द्वारा हमें 'अभ्युदय व नि:श्रेयस' प्राप्त कराएँ।
भाषार्थ
(वृत्रहन्) हे पाप-वृत्रघाती परमेश्वर! (अर्वावतः) अवराविद्यावाले, (च) और (परावतः) पराविद्यावाले (नः) हम उपासकों को (आ गहि) आप प्राप्त हूजिए। और (नः) हमारी (इमा गिरः) इन स्तुतिवाणियों का आप (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह है कि परमेश्वर की प्राप्ति के लिए धारणा, ध्यान, समाधि तथा श्रद्धा और ईश्वर-प्रणिधान आदि की आवश्यकता है। अपरा या पराविद्या की पुस्तकीय विद्याओं की आवश्यकता नहीं।]
विषय
राजा और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे (वृत्रहन्) आवरणकारी अन्धकार और समस्त विघ्नों के नाशक प्रभो ! तू (नः) हमें (अर्वावतः) समीप के देश से और (परावतः च) दूर देश से भी (आगहि) प्राप्त हो। और (इमाः नः गिरः) हमारी इन वाणियों को (जुषस्व) स्वीकार कर। राजा के पक्ष में—तू हम प्रजाजनों की प्रार्थनाओं को सुन। दूर और समीप जहां भी हो वहां से हमारी रक्षार्थ हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। नवर्चं सूक्तम्। गायत्र्यः।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Indra, lord destroyer of the clouds of darkness, giver of the showers of joy and prosperity, come to us, dynamic celebrants of life and divinity, come from far and near, receive, acknowledge and cherish these songs of ours offered in homage.
Translation
O God Almighty, you are the destroyer of evils and troubles. You pervade us from near and far i.e. every where. You accept my prayers.
Translation
O God Almighty, you are the destroyer of evils and troubles, You pervade us from near and far i.e. everywhere. You accept my prayers,
Translation
O Lord of all the forces of destruction of ignorance and darkness from the nearest places as well as from afar. Please accept these praise-songs, of ours.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से आगे है-अ० २०।२०।४ और ७।८ ॥ ८−(अर्वावतः) अर्वाचीनात्। समीपदेशात् (नः) अस्मान् (आ गहि) आगच्छ (परावतः) दूरदेशात् (च) समुच्चये (वृत्रहन्) वृत्रं धननाम-निघ० २।१०। हन हिंसागत्योः-क्विप्। यो वृत्रं धनं हन्ति प्राप्नोति स वृत्रहा तत्सम्बुद्धौ (इमाः) उच्चार्यमाणाः (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাবিষয়োপদেশঃ
भाषार्थ
(বৃত্রহন্) হে ধনকে প্রাপ্তকারী! (অর্বাবতঃ) সমীপের দেশ থেকে (চ) এবং (পরাবতঃ) দূরের দেশ থেকে (নঃ) আমাদের কাছে (আ গহি) এসো/আগমন করো। এবং (নঃ) আমাদের (ইমাঃ) এই (গিরঃ) বাণীসমূহ (জুষস্ব) শ্রবণ করো ॥৮॥
भावार्थ
রাজা ধনবান হয়ে কাছ থেকে এবং দূর থেকে মানুষের আহ্বান শুনে সর্বদা রক্ষা করেন/করুক ॥৮॥ এই মন্ত্রের পূর্বার্ধ কিছুটা আলাদাভাবে আছে-অ০ ২০।২০।৪ এবং ৩।৮।
भाषार्थ
(বৃত্রহন্) হে পাপ-বৃত্রঘাতী পরমেশ্বর! (অর্বাবতঃ) অবরা বিদ্যাযুক্ত, (চ) এবং (পরাবতঃ) পরাবিদ্যাযুক্ত (নঃ) আমাদের [উপাসকদের] (আ গহি) আপনি প্রাপ্ত হন। এবং (নঃ) আমাদের (ইমা গিরঃ) এই স্তুতিবাণী-সমূহের আপনি (জুষস্ব) প্রীতিপূর্বক সেবন করুন।
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