अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जुतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । धि॒या । इ॒षि॒त: । विप्र॑ऽजूत: । सु॒तऽव॑त: ॥ उप॑ । ब्रह्मा॑णि । वा॒घत॑: ॥८४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजुतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । याहि । धिया । इषित: । विप्रऽजूत: । सुतऽवत: ॥ उप । ब्रह्माणि । वाघत: ॥८४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सभापति] (धिया) कर्म से (इषितः) बढ़ाया गया, और (विप्रजूतः) बुद्धिमानों से वेगवान् किया गया तू (सुतावतः) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस वाले (वाघतः) बुद्धिमान् पुरुषों को और (ब्रह्माणि) धनों को (उप=उपेत्य) प्राप्त होकर (आ याहि) आ ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य को चाहिये कि अपने उत्तम कर्म और विद्वानों की शिक्षा से विज्ञानी बुद्धिमानों के साथ धन की वृद्धि करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(इन्द्र) (आ याहि) (धिया) कर्मणा-निघ० २।१। (इषितः) प्रेरितः (विप्रजूतः) जू इति सौत्रो धातुः गतौ-क्त। मेधाविभिः प्रेरिते वेगयुक्तः कृतः (सुतावतः) निष्पादिततत्त्वरसयुक्तान् (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (वाघतः) आ० २०।१९।२। मेधाविनः पुरुषान्-निघ० ३।१ ॥
विषय
धिया-इषित: विप्रजूतः
पदार्थ
१. गतमन्त्र में की गई जीव की प्रार्थना पर प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (धिया इषित:) = बुद्धि से प्रेरित होता है-सारे कार्यों को बुद्धिपूर्वक करता है। (विप्रजूत:) = ज्ञानी आचार्यों से प्रेरित होता है-उनकी प्रेरणा में चलता हुआ तु भी उनकी भाँति ही ज्ञानी बनता है। २. तू (सुतावत:) = सोम का सम्पादन करनेवाले-संयम द्वारा सोम की रक्षा करनेवाले (वाघत:) = मेधावी पुरुष के-ज्ञान का वहन करनेवाले विद्वान् व्यक्ति के (ब्रह्माणि) = ज्ञानों को उप-समीप रहकर प्राप्त करने के लिए यत्नशील होता है।
भावार्थ
प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [१] हम बुद्धि से प्रेरित हों [२] ज्ञानी पुरुषों से प्रेरणा प्राप्त करें [३] संयमी विद्वान् पुरुषों के समीप रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए यत्नशील रहें।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (धियेषितः) उपासक की प्रज्ञा और कर्मों द्वारा अभीष्ट हैं, (विप्रजूतः) मेधावी उपासकों द्वारा आप प्रेरित किये गये है। इस लिए (सुतावतः) भक्तिरस से सम्पन्न (वाघतः) उपासना-यज्ञ के ऋत्विक् की (ब्रह्माणि) ब्रह्म-प्रतिपादक स्तुतियों के (उप) समीप, आप (आ याहि) प्रकट हूजिए।
विषय
परमेश्वर।
भावार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! तू (धिया इषितः) उत्तम ज्ञानवाली बुद्धि और उत्तम कर्म से प्राप्त होने योग्य और (विप्रजूतः) विद्वानों द्वारा जाना और अर्चना किया गया होकर (वाघतः) उपासक पुरुषों और (ब्रह्माणि उप) ब्रह्मज्ञानी पुरुषों को या ब्रह्मवेद के वचनों को (उप आ याहि) प्राप्त हो, दर्शन दे। अर्थात् वेदोक्त गुणों सहित प्रकट हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, Lord Supreme of light and life, meditated within by the pure at heart, realised by the enlightened, distilled from the Veda and the world of existence by the visionaries, come and inspire the chant of the dedicated yajakas.
Translation
O Almighty God, you urged by devotees and known by Iearned accept the prayers of the priests of Yajna who perform the Yajna and press the Soma for that.
Translation
O Almighty God, you urged by devotees and known by learned accept the prayers of the priests of Yajna who perform the Yajna and press the Soma for that.
Translation
O most Adorable Lord, fully reveal Thy Identity, being desired and prayed by the wise and the learned people, who are offering sacrifices and preaching the Vedic teachings to the people.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(इन्द्र) (आ याहि) (धिया) कर्मणा-निघ० २।१। (इषितः) प्रेरितः (विप्रजूतः) जू इति सौत्रो धातुः गतौ-क्त। मेधाविभिः प्रेरिते वेगयुक्तः कृतः (सुतावतः) निष्पादिततत्त्वरसयुक्तान् (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (वाघतः) आ० २०।१९।२। मेधाविनः पुरुषान्-निघ० ३।१ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত সভাপতি] (ধিয়া) কর্ম দ্বারা (ইষিতঃ) বর্ধিত এবং (বিপ্রজূতঃ) বুদ্ধিমানদের দ্বারা বেগবান্ কৃত তুমি (সুতাবতঃ) নিষ্পাদিত তত্ত্বরসযুক্ত (বাঘতঃ) বুদ্ধিমান্ পুরুষদের এবং (ব্রহ্মাণি) ধন (উপ=উপেত্য) প্রাপ্ত হয়ে (আ যাহি) এসো/আগমন করো॥২॥
भावार्थ
মনুষ্যের উচিত, নিজের উত্তম কর্ম এবং বিদ্বানদের শিক্ষা দ্বারা বিজ্ঞানী বুদ্ধিমানদের সাথে ধনের বৃদ্ধি করা ॥২॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনি (ধিয়েষিতঃ) উপাসকের প্রজ্ঞা এবং কর্ম দ্বারা অভীষ্ট, (বিপ্রজূতঃ) মেধাবী উপাসকদের দ্বারা আপনি প্রেরিত। এইজন্য (সুতাবতঃ) ভক্তিরস সম্পন্ন (বাঘতঃ) উপাসনা-যজ্ঞের ঋত্বিকের (ব্রহ্মাণি) ব্রহ্ম-প্রতিপাদক স্তুতির (উপ) সমীপে, আপনি (আ যাহি) প্রকট হন।
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