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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९०
    51

    जना॑य चि॒द्य ईव॑ते उ लो॒कं बृह॒स्पति॑र्दे॒वहू॑तौ च॒कार॑। घ्नन्वृ॒त्राणि॒ वि पुरो॑ दर्दरीति॒ जयं॒ छत्रूं॑र॒मित्रा॑न्पृ॒त्सु साह॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जना॑य । चि॒त् । व: । ईव॑ते । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् । बृह॒स्पति॑: । दे॒वऽहू॑तौ । च॒कार॑ ॥ घ्नन् । वृ॒त्राणि॑ । वि । पुर॑: । द॒र्द॒री॒ति॒ । जय॑न् । शत्रू॑न् । अ॒मित्रा॑न् । पृ॒त्सु । सह॑न् ॥९०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनाय चिद्य ईवते उ लोकं बृहस्पतिर्देवहूतौ चकार। घ्नन्वृत्राणि वि पुरो दर्दरीति जयं छत्रूंरमित्रान्पृत्सु साहन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनाय । चित् । व: । ईवते । ऊं इति । लोकम् । बृहस्पति: । देवऽहूतौ । चकार ॥ घ्नन् । वृत्राणि । वि । पुर: । दर्दरीति । जयन् । शत्रून् । अमित्रान् । पृत्सु । सहन् ॥९०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 90; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिस (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक राजा] ने (चित् उ) अवश्य ही (ईवते) गतिमान् (जनाय) मनुष्य के लिये (देवहूतौ) विद्वानों के बुलावे में (लोकम्) दर्शनीय स्थान (चकार) किया है। वह (वृत्राणि) धनों को (घ्नन्) पाता हुआ और (अमित्रान्) सतानेवाले (शत्रून्) वैरियों को (पृत्सु) सङ्ग्रामों में (जयन्) जीतता हुआ और (साहन्) हराता हुआ (पुरः) [उनके] दुर्गों को (वि दर्दरीति) तोड़ डालता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो वीर राजा विद्वान् उद्योगी जनों का आदर करता है, वह धनवान् होकर और शत्रुओं को जीतकर प्रजा को पालता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(जनाय) (चित्) अवश्यम् (यः) (ईवते) गतिमते (उ) एव (लोकम्) दर्शनीयं स्थानम् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः (देवहूतौ) देवानामाह्वाने (चकार) कृतवान् (घ्नन्) गच्छन्। प्राप्नुवन् (वृत्राणि) धनानि (वि) विशेषेण (पुरः) शत्रूणां नगराणि। दुर्गाणि (दर्दरीति) भृशं विदृणाति (जयन्) (शत्रून्) (अमित्रान्) अम पीडने-इत्रन्। पीडकान् (पृत्सु) पृतनासु। संग्रामेषु (साहन्) अभिभवन् ॥

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    विषय

    १. (यः बृहस्पति:) = जो ज्ञान के स्वामी प्रभु हैं, वे (ईवते जनाय) = गतिशील-आलस्यशून्य मनुष्य के लिए (चित्) = पूर्ण निश्चय से (देवहूतौ) = यज्ञों में (लोकम) = स्थान को (चकार) = करते हैं, अर्थात् वे ज्ञानस्वरूप प्रभु पुरुषार्थी मनुष्य को यज्ञ की रुचिवाला बनाते हैं। २. इसप्रकार यज्ञरुचि बनाकर प्रभु (वृत्राणि घ्नन्) = इसकी वासनाओं को नष्ट करते हुए (पुरः विदर्दरीति) = काम, क्रोध, लोभ की नगरियों का विदारण कर देते हैं। इसके (शत्रून्) = इन काम आदि शत्रुओं को (जयन्) = जीतते हुए (पृत्सु) = संग्रामों में (अमित्रान्) = द्वेष आदि अमित्रभूत भावनाओं को (साहन्) = पराभूत करते हैं।

    पदार्थ

    भावार्थ-प्रभु आलस्यशून्य मनुष्य को यज्ञशील बनाते हैं। इसके आसुरभावों का विनाश करते हैं।

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    भाषार्थ

    (देवहूतौ) बृहस्पति-देव का जब आह्वान किया जाता है, तब (यः चित् बृहस्पतिः) जो चेतन महाब्रह्माण्डपति, (ईवते) प्रगतिशील (जनाय) उपासक-जन के लिए, (उ) निश्चय से (लोकम्) आलोक या प्रज्ञालोक (चकार) प्रकट कर देता है, वह (पृत्सु) देवासुर-संग्रामों में (अमित्रान्) अमित्ररूप कामादि का (सहन्) पराभव करता हुआ, और (शत्रून्) इन शत्रुओं पर (जयन्) विजय प्राप्त करता हुआ, (वृत्राणि) और इन पापमयवृत्रों का (घ्नन्) हनन करता हुआ, (पुरः) जीवन्मुक्तों की शरीर-पुरियों को (वि दर्दरीति) विदीर्ण कर देता है, उन्हें मोक्ष दिला देता है।

    टिप्पणी

    [ईवते=ई गतौ+वत्+चतुर्थ्येकवचन।]

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    विषय

    राष्ट्रपालक, ईश्वर और विद्वान्।

    भावार्थ

    (यः) जो (बृहस्पतिः) बड़े भारी राष्ट्र का पालक या जगत् का पालक, राजा या परमेश्वर या वाणी का पालक विद्वान् (ईवते) आने वाले (जनाय) मनुष्यों के लिये (देवहूतौ) यज्ञ में देवों की आहुति स्थान या प्राणायतन देह में (लोकं चकार) उत्पन्न हुए जीवों का निवासस्थान बनाता है। और (यः) जो (वृत्राणि) आवरणकारी, मोहजन्य अज्ञानों को (घ्नन्) नाश करता हुआ (पुरः) संवत्सर रूप पुरियों को या देहबन्धनों को (वि दर्दरीति) विविध उपायों से वीर सेनापति के समान तोड़ता है। वह (शत्रून्) शत्रुओं को (जयन्) विजय करता हुआ और (अमित्रान्) मित्रों से विपरीत शत्रुपक्ष के अन्य सहायकों को भी (पृत्सु) संग्रामों में (साहन्) पराजित करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Brhaspati, lord ruler of all, is he who, for the people in need, creates and gives a world of beauty and plenty when they approach him in the mood and spirit of supplication and prayer. When people invoke the divine lord, he breaks the thickest clouds of darkness and suffering, shatters the strongholds of exploitation and slavery, and challenges and wins over enemies and adversaries standing up in arms against humanity.

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    Translation

    This fire which makes room for the man of activity in the Yajna performed for the Yajnadevas smiting the clouds, breaks their grouping forts, and quelling the residues in battles conquer the foe-like clouds.

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    Translation

    This fire which makes room for the man of activity in the Yajna performed for the Yajnadevas smiting the clouds, breaks their grouping forts, and quelling the residues in battles conquer the foe-like clouds.

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    Translation

    The king of the vast kingdom or the master of the vast 'spiritual light has won fortunes or glories. This victorious king or yogi has well achieved large herds of cows or huge storage of impounded rays of light, earthly or divine. He unimpeded by any one, desirous of allotting the peaceful duties of administration or attaining the various stages of spiritual enlightenment, kills the enemy or evil by rays of light, mundane or divine.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(जनाय) (चित्) अवश्यम् (यः) (ईवते) गतिमते (उ) एव (लोकम्) दर्शनीयं स्थानम् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः (देवहूतौ) देवानामाह्वाने (चकार) कृतवान् (घ्नन्) गच्छन्। प्राप्नुवन् (वृत्राणि) धनानि (वि) विशेषेण (पुरः) शत्रूणां नगराणि। दुर्गाणि (दर्दरीति) भृशं विदृणाति (जयन्) (शत्रून्) (अमित्रान्) अम पीडने-इत्रन्। पीडकान् (पृत्सु) पृतनासु। संग्रामेषु (साहन्) अभिभवन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যে (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বিদ্যার রক্ষক রাজা] (চিৎ উ) অবশ্যই (ঈবতে) গতিমান্ (জনায়) মনুষ্যের জন্য (দেবহূতৌ) বিদ্বানদের আহ্বানে (লোকম্) দর্শনীয় স্থান (চকার) প্রস্তুত করেছে। সে (বৃত্রাণি) ধন (ঘ্নন্) প্রাপ্ত হয়ে এবং (অমিত্রান্) উৎপীড়ক (শত্রূন্) শত্রুদের (পৃৎসু) সংগ্রামে (জয়ন্) জয় করে এবং (সাহন্) পরাজিত করে (পুরঃ) [তাঁদের] দূর্গসমূহকে (বি দর্দরীতি) ছিন্ন-বিচ্ছিন্ন করে ॥২॥

    भावार्थ

    যে বীর রাজা বিদ্বান্ উদ্যোগীদের সৎকার করে, সে ধনবান্ হয়ে এবং শত্রুদের বিরুদ্ধে জয় লাভ করে প্রজা পালন করে॥২॥

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    भाषार्थ

    (দেবহূতৌ) বৃহস্পতি-দেবের যখন আহ্বান করা হয়, তখন (যঃ চিৎ বৃহস্পতিঃ) যে চেতন মহাব্রহ্মাণ্ডপতি, (ঈবতে) প্রগতিশীল (জনায়) উপাসকদের জন্য, (উ) নিশ্চিতরূপে (লোকম্) আলোক বা প্রজ্ঞালোক (চকার) প্রকট করেন, তিনি (পৃৎসু) দেবাসুর-সংগ্রামে (অমিত্রান্) অমিত্ররূপ কামাদির (সহন্) পরাভব করে, এবং (শত্রূন্) এবং শত্রুদের ওপর (জয়ন্) বিজয় প্রাপ্ত করে, (বৃত্রাণি) এবং এই পাপময়বৃত্রের (ঘ্নন্) হনন করে, (পুরঃ) জীবন্মুক্তদের শরীর-পুরীকে (বি দর্দরীতি) বিদীর্ণ করে দেয়, তাঁদের মোক্ষ প্রদান করে।

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