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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९८
    39

    स त्वं न॑श्चित्र वज्रहस्त धृष्णु॒या म॒ह स्त॑वा॒नो अ॑द्रिवः। गामश्वं॑ र॒थ्यमिन्द्र॒ सं कि॑र स॒त्रा वाजं॒ न जि॒ग्युषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । त्वम् । न॒: । चि॒त्र॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । म॒ह: । स्त॒वा॒न: । अ॒द्रि॒ऽव॒: ॥ गाम् । अश्व॑म् । र॒थ्य॑म् । इ॒न्द्र । सम् कि॒र॒ । स॒त्रा । वाज॑म् । न । जि॒ग्युषे॑ ॥९८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया मह स्तवानो अद्रिवः। गामश्वं रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । त्वम् । न: । चित्र । वज्रऽहस्त । धृष्णुऽया । मह: । स्तवान: । अद्रिऽव: ॥ गाम् । अश्वम् । रथ्यम् । इन्द्र । सम् किर । सत्रा । वाजम् । न । जिग्युषे ॥९८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 98; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (चित्र) हे अद्भुत स्वभाववाले ! (वज्रहस्त) हे हाथ में वज्र रखनेवाले ! (अद्रिवः) हे अन्नवाले ! (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (सः) सो (धृष्णुया) निर्भय (महः) बड़े लोगों की (स्तवानः) स्तुति करता हुआ (त्वम्) तू (नः) हमारे लिये (रथ्यम्) रथ के योग्य (गाम्) बैल और (अश्वम्) घोड़ों को (सं किर) संग्रह कर, (न) जैसे (सत्रा) सत्य के साथ (जिग्युषे) जीतनेवाले वीर को (वाजम्) अन्न आदि पदार्थ [देते हैं] ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे विजयी योद्धा लोग खान-पान आदि पदार्थों से प्रतिष्ठा पाते हैं, वैसे ही अन्य विद्वान् लोग अपनी चतुराई के कारण योग्य प्रतिष्ठा और धन प्राप्त करें •॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सः) (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (चित्रे) अद्भुतस्वभाव (वज्रहस्त) शस्त्रपाणे (धृष्णुया) विभक्तेर्या-पा० ७।१।३९। धृष्णुः। प्रगल्भः (महः) महतः पुरुषान् (स्तवानः) प्रशंसन् (अद्रिवः) हे अन्नवन् (गाम्) वृषभम् (अश्वम्) तुरुङ्गम् (रथ्यम्) रथस्य वोढारम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (सं किर) संगृहाण (सत्रा) सत्येन (वाजम्) अन्नादिकम् (न) यथा (जिग्युषे) जयतेः-क्वसु। जयशीलस्य ॥

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    विषय

    तेजस्विता की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (चित्र) = चयनीय-पूजनीय (वज्रहस्त) = दुष्टों को दण्ड देने के लिए हाथ में वज्र लिये हुए (अद्रिवः) = शत्रुओं से न विदीर्ण किये जानेवाले प्रभो! (स्तवान:) = स्तुति किये जाते हुए (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमारे लिए (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के हेतु से (महः) = तेजस्विता (संकिर) = दीजिए। आपसे तेजस्विता प्रास करके हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले बनें। २. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (रथ्यम्) = शरीर-रथ में उत्तमता से कार्य करनेवाली (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों व (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को [संकिर] दीजिए और हे प्रभो! (सत्रा) = सदा (जिग्युषे) = जैसे एक विजयशील पुरुष के लिए इसी प्रकार हमें (वाजम्) = शक्ति दीजिए। एक इन्द्रियों को जीतनेवाला पुरुष जैसे शक्ति-सम्पन्न बनता है, उसी प्रकार हम भी शक्ति प्राप्त करें।

    भावार्थ

    स्तुति किये जाते हुए प्रभु हमारे लिए शक्ति दें। इस शक्ति के द्वारा ही तो हम शत्रुओं को जीत पाएँगे। शत्रुओं को जीतकर यह पवित्र जीवनवाला पुरुष 'मेध्य'-पूर्ण पवित्र प्रभु की और चलता है, अत: इसका नाम 'मेध्यातिथि' होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है-

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    भाषार्थ

    (चित्र) हे आश्चर्यस्वरूप! (वज्रहस्त) हे ज्ञानवज्रधारी! (अद्रिवः) हे पापों का भक्षण अर्थात् ध्वंस कर देनेवाले! (महः) महाज्ञान अर्थात् पराविद्या का (स्तवानः) कथन करते हुए आप, (धृष्णुया) अज्ञान का पराभव करनेवाले महाज्ञान के द्वारा हमारे अज्ञानों का विनाश कीजिए। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (गाम्) वेदवाणी या इन्द्रिय-समूह और (रथ्यम्) शरीर-रथ के वहन करने योग्य (अश्वम्) अश्वसदृश बलिष्ठ मन, हमें (सं किर) प्रदान कीजिए, (न) जैसे कि (जिग्युषे) इन्द्रिय-विजेता के लिए आप, (सत्रा वाजम्) सच्चा आध्यात्मिक बल प्रदान करते हैं।

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    विषय

    राजा के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे (वज्रहस्त) खङ्ग को हाथ में धारण करने हारे। उग्र दण्ड ! हे (अद्रिवः) अदीर्ण, अमोघ बलवाले ! हे (चित्र) समस्त राष्ट्र का संचय करने एवं चित्र युद्ध करने में कुशल ! (त्वं) तू (धृष्णुया) स्वयं शत्रुओं का धर्षण तिरस्कार और पराजय करने में समर्थ होकर (महः स्तवानः) खूब अधिक गतिशाली होकर हे (इन्द्र) इन्द्र ! राजन् ! (जिग्युषे) विजयशील पुरुष को (गाम्) गौ, (अश्वं) अश्व, (रथम्) रथ और (सत्रा) बड़े भारी (वाजं न) नाना अन्न और ऐश्वर्य को भी (सं किर) अच्छी प्रकार आदर से प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथौ। द्व्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    Indra, lord of wondrous powers and performance, wielding the thunderbolt of justice and punishment in hand, great and glorious, breaker of the clouds and shaker of mountains, invoked and adored in song, with truth and science, power and force, collect, organise and win for us the wealth of lands, cows and rays of the sun, horses, transports and chariots like the victories of wealth and glory for the ambitious nation.

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    Translation

    O Wondrous one, O holder of thunder-bolt, O lord of cloud and mountains, O Almighty God, that you being adored by men give us the horses to pull chariot and kine as the victorious man is given grain and wealth.

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    Translation

    O Wondrous one, O holder of thunder-bolt, O lord of cloud and mountains, O Almighty God, that you being adored by men give us the horses to pull chariot and kine as the victorious man is given grain and wealth.

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    Translation

    O Adorable God, in order to fully attain Thee, the ordinary persons,the learned persons of deep insight and the thoroughly praising the truth preachers sing Thy praises all together through the Vedic praise-songs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सः) (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (चित्रे) अद्भुतस्वभाव (वज्रहस्त) शस्त्रपाणे (धृष्णुया) विभक्तेर्या-पा० ७।१।३९। धृष्णुः। प्रगल्भः (महः) महतः पुरुषान् (स्तवानः) प्रशंसन् (अद्रिवः) हे अन्नवन् (गाम्) वृषभम् (अश्वम्) तुरुङ्गम् (रथ्यम्) रथस्य वोढारम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (सं किर) संगृहाण (सत्रा) सत्येन (वाजम्) अन्नादिकम् (न) यथा (जिग्युषे) जयतेः-क्वसु। जयशीलस्य ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (চিত্র) হে অদ্ভুত স্বভাবযুক্ত ! (বজ্রহস্ত) হে বজ্রধারী ! (অদ্রিবঃ) হে অন্নবান ! (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [মহাপ্রতাপী রাজন্] (সঃ) সেই (ধৃষ্ণুয়া) নির্ভয় (মহঃ) মহান পুরুষদের (স্তবানঃ) স্তুতিপূর্বক (ত্বম্) তুমি (নঃ) আমাদের জন্য (রথ্যম্) রথের যোগ্য (গাম্) বলদ ও (অশ্বম্) অশ্ব (সং কির) সংগ্রহ করো, (ন) যেভাবে (সত্রা) সত্যের সহিত (জিগ্যুষে) বিজয়ী বীরকে (বাজম্) অন্ন আদি উপহার প্রদান করা হয় ॥২॥

    भावार्थ

    যেভাবে বিজয়ী বীরযোদ্ধা ধনসম্পদ,অন্ন আদি পদার্থে প্রতিষ্ঠা প্রাপ্ত হয় , একইভাবে অন্য বিদ্বান্ লোক স্বীয় বুদ্ধিমত্তার কারণে যোগ্য প্রতিষ্ঠা ও ধনসম্পদ প্রাপ্ত করে ॥২॥

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    भाषार्थ

    (চিত্র) হে আশ্চর্যস্বরূপ! (বজ্রহস্ত) হে জ্ঞানবজ্রধারী! (অদ্রিবঃ) হে পাপ ভক্ষণ অর্থাৎ ধ্বংসকারী! (মহঃ) মহাজ্ঞান অর্থাৎ পরাবিদ্যার (স্তবানঃ) কথন করে আপনি, (ধৃষ্ণুয়া) অজ্ঞানতার পরাভবকারী, মহাজ্ঞান দ্বারা আমাদের অজ্ঞানতার বিনাশ করুন। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (গাম্) বেদবাণী বা ইন্দ্রিয়-সমূহ এবং (রথ্যম্) শরীর-রথ বহন করার যোগ্য (অশ্বম্) অশ্বসদৃশ বলিষ্ঠ মন, আমাদের (সং কির) প্রদান করুন, (ন) যেমন (জিগ্যুষে) ইন্দ্রিয়-বিজেতার জন্য আপনি, (সত্রা বাজম্) সত্য আধ্যাত্মিক বল প্রদান করেন।

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