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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मृगारः देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    52

    अ॑सन्ता॒पे सु॒तप॑सौ हुवे॒ऽहमु॒र्वी ग॑म्भी॒रे क॒विभि॑र्नम॒स्ये॑। द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सं॒ता॒पे इत्य॑स॒म्ऽता॒पे । सु॒ऽतप॑सौ । हु॒वे॒ । अ॒हम् । उ॒र्वी इति॑ । ग॒म्भी॒रे इति॑ । क॒विऽभि॑: । न॒म॒स्ये॒३॑ इति॑ । द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । भव॑तम् । मे॒ । स्यो॒ने इति॑ । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असन्तापे सुतपसौ हुवेऽहमुर्वी गम्भीरे कविभिर्नमस्ये। द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असंतापे इत्यसम्ऽतापे । सुऽतपसौ । हुवे । अहम् । उर्वी इति । गम्भीरे इति । कविऽभि: । नमस्ये३ इति । द्यावापृथिवी इति । भवतम् । मे । स्योने इति । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुतपसौ) सुन्दर ताप रखनेवाली, (असंतापे) संताप न देनेवाली, (उर्वी) चौड़ी, (गम्भीरे) गहरी [शान्त स्वभाववाली] (कविभिः) विद्वानों से (नमस्ये) नमस्कारयोग्य तुम दोनों को (अहम्) मैं (हुवे) पुकारता हूँ। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! तुम दोनों (मे) मेरे लिये.... म० २ ॥३॥

    भावार्थ

    सूर्य के पिण्ड में ताप है, जिससे पृथिवी तापयुक्त होती है। इस प्रकार दोनों के ताप से सब जगत् के पदार्थ रक्षित रहते हैं। उन दोनों के यथावत् ज्ञान से मनुष्य बुद्धिमान् होकर आनन्द प्राप्त करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(असंतापे) नास्ति संतापो याभ्याम्। असंतापकर्त्र्यौ (सुतपसौ) सुन्दरतापयुक्ते। शोभनैश्वर्ययुक्ते (हुवे) आह्वयामि (अहम्) जीवः (उर्वी) उर्व्यौ। विस्तीर्णे (गम्भीरे) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५। इति गम्लृ गतौ-ईरन्, मस्य भः, नुम् च। गमनीये प्रापणीये। शान्तस्वभावे। महाशये (कविभिः) मेधाविभिः (नमस्ये) वन्दनीये। अन्यत् पूर्ववत् म० २ ॥

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    विषय

    'असन्तापे सुतपसौ' द्यावापृथिवी

    पदार्थ

    १. (असन्तापे) = सब प्राणियों के सन्ताप को हरनेवाले, सन्ताप से रहित (सतपसौ) = खब दीप्त. तेजस्वी (उर्वी) = विस्तीण गम्भीर-गाम्भीर्य से युक्त, अर्थात् 'ये ऐसे हैं' इसप्रकार जिनका पूर्णरूप से ज्ञान होना सम्भव नहीं (कविभि:) = क्रान्तदर्शी ज्ञानियों से (नमस्ये) = नमस्कार के योग्य इन द्यावापृथिवी को (आहम्) = मैं (हुवे) = रक्षा के लिए प्रार्थित करता हूँ। २. ये (द्यावापृथिवी) = युलोक व पृथिवीलोक (मे) = मेरे लिए (स्योने) = सुख देनेवाले (भवतम्) = हों और (ते) = वे दोनों (न:) = हमें (अंहस:) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें।

    भावार्थ

    ये द्यावापृथिवी सन्ताप से रहित, दीप्त, विशाल व रहस्यमय हैं, ये हमारे लिए सुखद हों और हमें पापों से मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (असन्तापे) [क्षुधा तथा पिपासा-जन्य] सन्ताप से रहित करने वाले, (सुतपसौ) उत्तम तापप्रद, तथा (उर्वी) विस्तारयुक्त, (गम्भीरे) समुद्रवत् गम्भीर या दुर्ज्ञेय, (कविभिः) कवियों द्वारा (नमस्ये) नमस्कारयोग्य, (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी का, (अहम्) मैं, (हुवे) आह्वान करता हूँ। (द्यावापृथिवी भवतं में सोने) द्यौ और पृथिवी मेरे लिए सुख रूप हों, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [नमस्ये= कवि, जड़ तत्त्वों को भी भावनावश होकर, उन्हें नमस्कार करते हैं, द्यावापृथिवी में मातृ तथा पितृ-बुद्धि से प्रेरित होकर; जैसे कि राष्ट्रिय जड़-झंडे को, राष्ट्र का प्रतीक जानकर, राष्ट्रवादी झंडे को नमस्कार करते हैं। अथवा वैदिक दृष्टि में द्यावापृथिवी, सौर जगत् तथा ब्रह्माण्ड सात्मक हैं, अतः इन प्रतीकों द्वारा इनके आत्मभूत परमेश्वर को ही नमस्कार समझना चाहिए। द्यावापृथिवी आदि महान् आत्मा परमेश्वर के शरीरवत् हैं और उसी द्वारा प्रेरित तथा चेष्टावाले हो रहे हैं, जैसेकि जीवित शरीर जीवात्मा द्वारा प्रेरित होता है। तभी कहा है कि "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु:० ४०।१७), जो आदित्य में पुरुष है वह ही मैं हूँ, अर्थात् ओ३म्, खम् और ब्रह्म। वैदिक विद्वान् आदित्य में विद्यमान परमेश्वर को ही, तथा द्यावापृथिवी में विद्यमान परमेश्वर को ही नमस्कार करता है, न कि जड़ द्यावापृथिवी आदि को। कविभिः= कवि: मेधाविनाम (निघं० ३।१५)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom fom Sin

    Meaning

    Unafflictive both, given to relentless law of divinity, heaven and earth I invoke, both expansive wide and high, measureless deep, adorable celebrities for poets. May heaven and earth be gracious to me and save us from sin and suffering.

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    Translation

    I invoke both of you, who cause no pain, who give proper warmth, who are far-extended, fathomless, and worthy of adoration by the omnivisioned seers. O heaven and earth, may you two bé gracious to me. As such, may both of you free us form sin.

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    Translation

    I describe the utilities of these twain which do not cause burning of sorrow, which are expansive, deep and commendable by the men of Science. Let these heaven and earth be auspicious to me. Let these twain become the sources of releasing us from grief and troubles.

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    Translation

    I call on You, who cause no sorrow, are attainable through penance, spacious, calm, and meet to be adored by sages. To me O divine powers of Control and Love, be Ye auspicious to me. May Ye twain, deliver us from sin! (797)

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(असंतापे) नास्ति संतापो याभ्याम्। असंतापकर्त्र्यौ (सुतपसौ) सुन्दरतापयुक्ते। शोभनैश्वर्ययुक्ते (हुवे) आह्वयामि (अहम्) जीवः (उर्वी) उर्व्यौ। विस्तीर्णे (गम्भीरे) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५। इति गम्लृ गतौ-ईरन्, मस्य भः, नुम् च। गमनीये प्रापणीये। शान्तस्वभावे। महाशये (कविभिः) मेधाविभिः (नमस्ये) वन्दनीये। अन्यत् पूर्ववत् म० २ ॥

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