अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
स नः॒ सिन्धु॑मिव ना॒वाति॑ पर्षा स्व॒स्तये॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठस:। न॒: । सिन्धु॑म्ऽइव । ना॒वा । अति॑ । प॒र्ष॒ । स्व॒स्तये॑ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः सिन्धुमिव नावाति पर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठस:। न: । सिन्धुम्ऽइव । नावा । अति । पर्ष । स्वस्तये । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(सः) सो तू (नः) हमें (स्वस्तये) आनन्द के लिये (पर्ष) पार लगा, (इव) जैसे (नावा) नाव से (सिन्धुम्) समुद्र को (अति=अतीत्य) लाँघ कर [पार करते] हैं। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥८॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर में निष्ठा करके पुरुषार्थपूर्वक दुःखसागर से पार होकर सुखी होवें, जैसे नाव के आश्रय से जलयात्री समुद्र पार करके प्रसन्न होते हैं ॥८॥
टिप्पणी
८−(सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (सिन्धुम् इव) यथा समुद्रं तथा (नावा) नौकया (अति) अतीत्य (पर्ष) पॄ पालनपूर्णयोः, लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति−सिप्। पारं प्रापय। (स्वस्तये) आनन्दाय। अन्यत् पूर्ववत ॥
विषय
प्रभुरूपी नाव
पदार्थ
१. हे प्रभो! (सः) = वे आप (न:) = हमें (स्वस्तये) = उत्तम स्थिति व कल्याण के लिए उसी प्रकार (अतिपर्षा) = सब पापों से पार करके पालित व पूरित कौजिए, (इव) = जैसे (नावा) = नाव के द्वारा (सिन्धुम्) = नदी को पार करते हैं। आपका नाम ही इस भव-सागर से तैरने के लिए नाव बन जाए, और (न:) = हमारा (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशुचत्)= शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए।
भावार्थ
भावार्थ-जैसे समुद्र को पार करने के लिए नाव साधन होती है, उसी प्रकार प्रभु का नाम हमारे लिए संसार-सागर को तैरने के लिए नाव हो जाए। पाप से पार होकर हम सुखमय स्थिति में हों।
विशेष
प्रभु-नाम का स्मरण करनेवाला यह व्यक्ति अपने अन्दर 'ब्रह्मौदन' [ज्ञान-भोजन] का परिपाक करता है। यह अथर्वा होता है-अथ अर्वाड-आत्म-निरीक्षण करता है, अपने अन्दर देखता है और [अ-थर्व] डाँवाडोल नहीं होता।
भाषार्थ
(सः) वह तू [हे परमेश्वराग्नि!] (नः) हमें (नावा) नौका द्वारा (सिन्धुम् इव) जैसे सिन्धु अर्थात् समुद्र को, वैसे (अतिपर्ष) द्वेषनद से पार कर (स्वस्तये) हमारे कल्याण के लिए। (अप नः शोशुचत् अघम्) परमेश्वराग्नि पापों को अपगत करके, दग्ध करके, उसकी शोचि या परमेश्वराग्नि हमें पवित्र कर देती है।
टिप्पणी
[पर्ष= लेट् लकार, सिप्। "सिब् बहुलं लेटि" (अष्टा० ३।१।३४)।]
विषय
पाप नाश करने की प्रार्थना।
भावार्थ
(स) वह परम पवित्र आप (नावा) नाव अर्थात् जहाज़ से (सिन्धुम् इव) समुद्र के समान (नः) हमें हमारे (स्वस्तये) सुख, परम आनन्दमय कल्याण के लिये (अति पर्ष) इस भवसागर से पार करो और (नः अघम् अप शोशुचद्) हमारे पापों को हम से दूर करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। पापनाशनोऽग्निर्देवता। १-८ गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cleansing of Sin and Evil
Meaning
As we cross a river in flood by boat, so may Agni purge us and help us cross the seas of existence for the sake of the good life and all round well being. O lord, purge us of our sins and evil, let us shine in original purity and power with piety in the state of grace.
Translation
May you pass us over into well being as (over) a river (sindhu) with boat (nava), gleaming away our evil. (Also Rg. 1.97.8)
Translation
O Lord! transport us to felicity as a ship across the river, Remove our evils far from us.
Translation
O God, just as an ocean is crossed through a ship, so let us cross the ocean of misery in this world. Destroy Thou our sins.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (सिन्धुम् इव) यथा समुद्रं तथा (नावा) नौकया (अति) अतीत्य (पर्ष) पॄ पालनपूर्णयोः, लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति−सिप्। पारं प्रापय। (स्वस्तये) आनन्दाय। अन्यत् पूर्ववत ॥
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