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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 122/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृगु देवता - विश्वकर्मा छन्दः - जगती सूक्तम् - तृतीयनाक सूक्त
    93

    शु॒द्धाः पू॒ता यो॒षितो॑ य॒ज्ञिया॑ इ॒मा ब्र॒ह्मणां॒ हस्ते॑षु प्रपृ॒थक्सा॑दयामि। यत्का॑म इ॒दं अ॑भिषि॒ञ्चामि॑ वो॒ऽहमिन्द्रो॑ म॒रुत्वा॒न्त्स द॑दातु॒ तन्मे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒ध्दा: । पू॒ता: । यो॒षित॑: । य॒ज्ञिया॑: । इ॒मा: । ब्र॒ह्मणा॑म् । हस्ते॑षु । प्र॒ऽपृ॒थक् । सा॒द॒या॒मि॒। यत्ऽका॑म: । इ॒दम् । अ॒भि॒ऽसि॒ञ्चामि॑ । व॒: । अ॒हम् । इन्द्र॑: । म॒रुत्वा॑न् । स: । द॒दा॒तु॒ । तत् । मे॒ ॥१२२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक्सादयामि। यत्काम इदं अभिषिञ्चामि वोऽहमिन्द्रो मरुत्वान्त्स ददातु तन्मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुध्दा: । पूता: । योषित: । यज्ञिया: । इमा: । ब्रह्मणाम् । हस्तेषु । प्रऽपृथक् । सादयामि। यत्ऽकाम: । इदम् । अभिऽसिञ्चामि । व: । अहम् । इन्द्र: । मरुत्वान् । स: । ददातु । तत् । मे ॥१२२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 122; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आनन्द की प्राप्ति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुद्धा) शुद्ध स्वभाववाली, (पूताः) पवित्र आचरणवाली, (यज्ञियाः) पूजनीय (इमाः) इन (योषितः) सेवायोग्य स्त्रियों को (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानी पुरुषों के (हस्तेषु) हाथों के बीच [विज्ञान के बलों में] (प्रपृथक्) नाना प्रकार से (सादयामि) मैं बैठालता हूँ। [हे विद्वान् स्त्री-पुरुष !] (यत्कामः) जिस उत्तम कामनावाला (अहम्) मैं (इदम्) इस समय (वः) तुम्हारा (अभिषिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ, (सः) वह (मरुत्वान्) दोषनाशक गुणोंवाला (इन्द्रः) सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (तत्) वह वस्तु (मे) मुझे (ददातु) देवे ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने विज्ञानप्राप्ति में स्त्री-पुरुषों को समान रचा है, इसलिये मनुष्य विद्वान् स्त्री-पुरुषों से सादर विज्ञान प्राप्त करके परमात्मा में श्रद्धालु होकर आनन्दित होवे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(शुद्धाः) निर्मलस्वभावाः (पूताः) पवित्राचाराः (योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः स्त्रीः (यज्ञियाः) पूजार्हाः (इमाः) विदुष्यः (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानिनाम् (हस्तेषु) करेषु। विज्ञानबलेषु (प्रपृथक्) प्रथेः कित् सम्प्रसारणं च। उ० १।१३७। इति प्रथ प्रख्याने−अजि, स च कित्। पृथक् प्रथतेः−निरु० ५।२५। विस्तारेण। नाना प्रकारेण (सादयामि) स्थापयामि (यत्कामः) यत्पदार्थं कामयमानः (इदम्) इदानीम् (अभिषिञ्चामि) अभिषिक्तान् करोमि (वः) युष्मान् विदुषः स्त्रीपुरुषान् (मरुत्वान्) अ० १।२०।१। मारयन्ति दोषानिति मरुतः। दोषनाशकगुणैर्युक्तः (सः) प्रसिद्धः (ददातु) प्रयच्छतु (तत्) इष्टं फलं (मे) मह्यम् ॥

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    विषय

    कामधुक यज्ञ

    पदार्थ

    १. यज्ञों में ऋत्विजों का वरण करता हुआ यजमान कहता है कि (इमा:) = ये जल जिन्हें कि मैं आपके वरण के समय आपके हाथ धुलाता हुआ (ब्रह्मणां हस्तेषु) = इन चारों आर्षेय ब्राह्मण ऋत्विजों के हाथों में पृथक् अलग-अलग प्रसादयामिप्रक्षालन के हेतु स्थापित करता है, (शुद्धा:) = शुद्ध है, (पूता:) = पवित्र हैं, (अतएव योषित:) = [युष्यन्ते, युष सेवायाम्] सेवनीय है, (यज्ञियाः) = यज्ञ के योग्य है-पवित्र कर्म में उपयोग के योग्य हैं। २. (अहम्) = मैं (यत्काम:) = जिस कामनावाला होता हुआ (वः) = आपके हाथों में (इदम्) = इस जल को (अभिषिञ्चामि) = अभिषिक्त करता हूँ और आपके द्वारा इस यज्ञ को पूर्ण करता हूँ, (स:) = वह (मरुत्वान् इन्द्रः) = प्रशस्त प्राणशक्ति को प्राप्त करानेवाला, सब शत्रुओं का विनाशक प्रभु (तत् में ददातु) = उस कामना का मुझे देनेवाला हो-मेरी उस इच्छा को पूर्ण करे।

    भावार्थ

    पवित्र होकर हम जिस कामना से यज्ञ करते हैं, हमारी उस कामना को प्रभु पूर्ण करते ही हैं।

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    भाषार्थ

    (इमाः) इन (शुद्धाः) शरीर से शुद्ध (पूताः) विचारों में पवित्र, (यज्ञियाः) विवाह यज्ञ के योग्य,१ (योषितः) प्रीति तथा सेवा करने वाली पुत्रियों को (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मवेत्ताओं के (हस्तेषु) हाथों में (प्र) प्रत्येक में (पृथक्) पृथक-पृथक् (सादयामि) मैं पिता स्थापित करता हूं। (यत्कामः) जिस कामना वाला मैं पिता (वः) हे ब्रह्मवेत्ताओ ! तुम्हें (अहम्) मैं पिता (इदम्) यह या जल (अभिषिञ्चामि) अभिषेक रूप में सींचता हूं, (मरुत्वान्) मनुष्यजाति का स्वामी या मरणधर्मा प्राणियों का स्वामी (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर (तत्) उस कामना की पूर्ति (मे) मुझे (ददातु) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    [मोक्षाभिलाषी पिता आश्रम-परिवर्तन करने से पूर्व, निज पुत्रियों का विवाह कर देना चाहता है। पुत्रियां शारीरिक-भोग की दृष्टि से शुद्ध हैं। ब्रह्मणाम् = ब्रह्म अर्थात् वेद, वेदों के विद्वान् ब्राह्मण। हस्तेषु = पाणिग्रहण संस्कार द्वारा। पिता निज हाथ द्वारा पुत्री का हाथ वर के हाथ में प्रदान करता है। अभिषिञ्चामि= घट में के जल को कुशा द्वारा वर-वधू पर छिटकना होता है। पिता की कामना है विवाहानन्तर पतियों के गृहों में पुत्रियों का सुखपूर्वक निवास। योषिता= जुष प्रीतिसेवनयोः (उणा० १।९७)। इदम् उदकनाम (निघं० १।१२)। मरुत्= मनुष्यजातिः (उणा० १।९४, दयानन्द)।] [१. अक्षतयोनि युवतियां हैं, योग्या, अर्थात् विवाह योग्य।]

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    विषय

    देवयान, पितृयाण और मोक्ष प्राप्ति।

    भावार्थ

    (इमाः) इन (यज्ञियाः) यज्ञ अर्थात् गृहस्थ यज्ञ का संपादन करने वाली (शुद्धाः पूताः) शुद्ध पवित्र (योषितः) स्त्रियों को (ब्रह्मणाम्) वेद ज्ञानी विद्वानों के (हस्तेषु) हाथों में (प्रपृथक्) पृथक् पृथक् (सादयामि) प्रदान करता हूं। (अहम्) मैं कन्या का पिता (यत्कामः) जिस मनोरथ से (इदम्) इस प्रकार (वः) स्त्री पुरुषों के जोड़े बने हुए तुम दम्पतियों को (अभि षिञ्चामि) जल से छिड़कता हूं। (सः इन्द्रः) वह परमात्मा (मरुत्वान्) समस्त शक्तियों का स्वामी (मे) मेरे (तत्) उस प्रयोजन को (ददातु) प्रदान करे, पूर्ण करे। कन्या के पिता का प्रयोजन योग्य विद्वान् के हाथ कन्यादान करने का यही होता है कि कन्या यशस्विनी होकर उत्तम प्रजा उत्पन्न करे और सुख से रहे।

    टिप्पणी

    (च०) ‘सददा दिदंमे इति’ अथर्व० ११। १। २६॥ (प्र०) अपोदेवीर्घृतमतीघृतश्चुतो ब्रह्मणा (च०) ‘तन्मे सर्व सम्पद्यतां वयं स्याम पतयो रयीणाम्’ इति अथर्व० १०। ९। २७॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः विश्वकर्मा देवता। १-३ त्रिष्टुभः, ४-५ जगत्यौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Holy Matrimony

    Meaning

    These pure and sanctified young maidens, holily lovable in the yajna of married life, I proffer unto the hands of educated and cultured celibates, singly, one for one, and settle in a happy home. Whatever the purpose and mission for which I join and consecrate you in marriage, may Indra, Vishvakarma, who destroys evil and darkness, fulfill that for me. (Married couples should join with and carry forward the thread of life in divine service.)

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    Translation

    These are pure, pious, and holy women. I place them singly in the hands of the pious learned persons. With what desire I pour this libation for you; may he, the resplendent Lord with cloud bearing winds, grant that to me.

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    Translation

    I, the performer of yajna seat separately in the control of priests (at the time when yajnas are performed) these (oblation-offering) women who are cleaned, purified, holy and avowed to follow the rules and procedure of yajna strictly. May All-mighty Divinity who is the master of all priests, fulfill my that aspiration longing which I select and appoint you as priest and conductors of yajna, O women and men.

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    Translation

    These sinless, pure, holy women, I place singly in the hands of learned Vedic scholars. May the Omnipotent God, grant me the blessing. I long for, as I pour this libation on you, the couple.

    Footnote

    I: The father of the girl.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(शुद्धाः) निर्मलस्वभावाः (पूताः) पवित्राचाराः (योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः स्त्रीः (यज्ञियाः) पूजार्हाः (इमाः) विदुष्यः (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानिनाम् (हस्तेषु) करेषु। विज्ञानबलेषु (प्रपृथक्) प्रथेः कित् सम्प्रसारणं च। उ० १।१३७। इति प्रथ प्रख्याने−अजि, स च कित्। पृथक् प्रथतेः−निरु० ५।२५। विस्तारेण। नाना प्रकारेण (सादयामि) स्थापयामि (यत्कामः) यत्पदार्थं कामयमानः (इदम्) इदानीम् (अभिषिञ्चामि) अभिषिक्तान् करोमि (वः) युष्मान् विदुषः स्त्रीपुरुषान् (मरुत्वान्) अ० १।२०।१। मारयन्ति दोषानिति मरुतः। दोषनाशकगुणैर्युक्तः (सः) प्रसिद्धः (ददातु) प्रयच्छतु (तत्) इष्टं फलं (मे) मह्यम् ॥

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