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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्य देवता - मेखला छन्दः - जगती सूक्तम् - मेखलाबन्धन सूक्त
    51

    श्र॒द्धाया॑ दुहि॒ता तप॒सोऽधि॑ जा॒ता स्वसा॒ ऋषी॑णां भूत॒कृतां॑ ब॒भूव॑। सा नो॑ मेखले म॒तिमा धे॑हि मे॒धामथो॑ नो धेहि॒ तप॑ इन्द्रि॒यं च॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्र॒ध्दाया॑: । दु॒हि॒ता । तप॑स: । अधि॑ । जा॒ता । स्वसा॑ । ऋषी॑णाम् । भू॒त॒ऽकृता॑म् । ब॒भूव॑ । सा । न॒: । मे॒ख॒ले॒। म॒तिम् । आ । धे॒हि॒ । मे॒धाम् । अथो॒ इति॑ । न॒: । धे॒हि॒ । तप॑: । इ॒न्द्रि॒यम् । च॒ ॥१३३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रद्धाया दुहिता तपसोऽधि जाता स्वसा ऋषीणां भूतकृतां बभूव। सा नो मेखले मतिमा धेहि मेधामथो नो धेहि तप इन्द्रियं च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रध्दाया: । दुहिता । तपस: । अधि । जाता । स्वसा । ऋषीणाम् । भूतऽकृताम् । बभूव । सा । न: । मेखले। मतिम् । आ । धेहि । मेधाम् । अथो इति । न: । धेहि । तप: । इन्द्रियम् । च ॥१३३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मेखना बाँधने का उपदेश।

    पदार्थ

    [वह मेखला] (श्रद्धायाः) श्रद्धा [आस्तिक बुद्धि, विश्वास] की (दुहिता) पूरण करनेहारी [यद्वा पुत्री समान प्रिय], (तपसः) तप [योगाभ्यास] से (अधि) अच्छे प्रकार (जाता) उत्पन्न हुई, (भूतकृताम्) सत्यकर्मी (ऋषीणाम्) ऋषियों [सन्मार्गदर्शकों] की (स्वसा) अच्छे प्रकार प्रकाश करनेहारी [अथवा बहिन के समान हितकारिणी] (बभूव) हुई है। (सा) सो तू (मेखले) हे मेखला ! (नः) हमें (मतिम्) मननशक्ति और (मेधाम्) निश्चय बुद्धि (आ) सब ओर से (धेहि) दान कर, (अथो) और भी (नः) हमें (तपः) योगाभ्यास (च) और (इन्द्रियम्) इन्द्र का चिह्न [पराक्रम वा परम ऐश्वर्य] (धेहि) दान कर ॥४॥

    भावार्थ

    जो श्रद्धालु, तपस्वी ऋषियों के समान शुभकर्म के लिये कटिबद्ध रहते हैं, वे ही मननशक्ति और निश्चल बुद्धि पाकर ऐश्वर्यवान् होते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(श्रद्धायाः) श्रत् सत्यम्−निघ० ३।१०। श्रद्धा श्रद्धानात्−निरु० ९।३०। सत्यं धीयतेऽत्र। षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। श्रत्+धा−अङ्, टाप्। आस्तिक्यबुद्धेः। विश्वासस्य (दुहिता) अ० ३।१०।१३। प्रपूरयित्री। पुत्रीसदृशहितकारिका वा (तपसः) योगाभ्यासात्। (अधि) अधिकम् (जाता) उत्पन्ना (स्वसा) अ० ६।१००।३। सुदीपयित्री। भगिनीतुल्यहिता (ऋषीणाम्)−म० २। सन्मार्गदर्शकानाम् (भूतकृताम्) आ० ६।१०८।४। सत्यकर्मणाम् (बभूव) (सा) त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (मेखले) (मतिम्) मननशक्तिम् (आ) समन्तात् (धेहि) देहि (मेधाम्) अ० ६।१०८।२। निश्चलां बुद्धिम् (अथो) अपि च (तपः) (इन्द्रियम्) अ० १।३५।३। इन्द्रलिङ्गं वीर्यमैश्वर्यं वा (च) ॥

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    विषय

    त मति, मेधा, तप, वीर्य

    पदार्थ

    १. यह मेखला (श्रद्धायाः दुहिता) = श्रद्धा की दुहिता है, आस्तिक्य बुद्धि का प्रपूरण करनेवाली है, (तपसः अधिजाता) = तप से इसका प्रादुर्भाव हुआ है। (भूतकृतां ऋषीणां स्वसा बभूव) = यथार्थ कर्मों को करनेवाले ऋषियों की यह बहिन है। मेखला का धारण श्रद्धा से होता है, धारित हुई-हुई यह हमें तपस्वी बनाती है और उत्तम कर्मों को कराती हुई यह हमें उत्तम स्थिति में ले-जाती है। २. (मेखले) = मेखले! (सा) = वह तू (न:) = हमारे लिए (मतिम्) = मनन-शक्ति को (आधेहि) = धारण कर, (मेधाम) = मेधा बुद्धि को (अथो) = और (न:) = हमारे लिए (तपः) = तप को (च इन्द्रियम्) = और वीर्य को (धेहि) = धारण कर।

    भावार्थ

    मेखला का धारण श्रद्धा से होता है। यह हमें तपस्वी बनाती है और उत्तम कर्मों को कराती हुई उत्तम स्थिति में लाती है। यह हममें 'मति, तप व वीर्य' का स्थापन करती है।

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    भाषार्थ

    [मेखला] (श्रद्धायाः) श्रद्धा की (दुहिता) पुत्री है, (तपसः अधि) तपस् से (जाता) पैदा हुई है, (भूतकृताम्) सत्स्वरूप परमेश्वर द्वारा निर्दिष्ट कर्मों के करने वाले (ऋषीणाम्) ऋषियों की (स्वसा) वहिन (बभूव) हुई है। (सा) वह तू (मेखले) हे मेखला ! (नः) हमारे लिये या हम में (मतिम्) मननशक्ति का (आधहि) आधान कर (मेधाम्) मेधा का आधान कर, (अथो) तथा (तपः) तपश्चर्या (च) और (इन्द्रियम्) आत्मिक बल का (नः) हमारे लिये या हम में (धेहि) आधान कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में मेखला का वर्णन है जो कि ब्रह्मचर्य की सूचिका है। श्रद्धावान व्यक्ति ही ब्रह्मचर्यपूर्वक तपश्चर्या द्वारा वेदाध्ययन कर सकते हैं। मेखला मानो दुहिता के सदृश ब्रह्मचारियों की कामनाओं को पूर्ण कर सकती है; दुहिता= दुह प्रपूरणे (अदादिः)। मेखला ऋषियों की स्वसा अर्थात् बहिन है, तद्वत् उपकारिणी है। स्वसा= "स्व" अर्थात् स्वीय ऋषियों की ओर सरण करने वाली। भूतकृताम्= "मध्यपदलोपी समास", अर्थात् सत्स्वरूप परमेश्वर द्वारा निर्दिष्ट कर्तव्यों का पालन करने वाले। मति= मनन शक्ति। मेधा=श्रुत का धारण करने वाली शक्ति। इन्द्रियम्= इन्द्र जीवात्मा, उसका बल, अर्थात् आत्मिक बल।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmachari’s Girdle

    Meaning

    O Girdle, you are the daughter of Shraddha, inviolable faith in truth, born of Tapas, hard, relentless discipline of body, mind and soul, and sister of the Rshis, sages of noble actions among humanity. O Girdle, bring us understanding and intellect, genius and discrimination, tapas, inviolable dedication and moral and spiritual honour and excellence.

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    Translation

    You are the daughter of faith (Sraddhaya duhita), born of austerity; you have become the sister of seers, the creators of beings. As such, O girdle (mekhala), may you bestow on us thought and wisdom and then bless us with understanding, fervor and stamina.

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    Translation

    This girdle is treated to be the daughter of faith, born of austerity and the sister of the elements which create the worldly objects. Let this girdle become the means of giving me thought, giving me wisdom, giving me austerity and giving me spiritual vigor.

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    Translation

    She hath become Faith's. daughter, sprung from Yoga, the sister of sages, the preachers of Truth. As such, O Girdle, give us thought and wisdom, give us religious zeal and mental vigor.

    Footnote

    Daughter: lovely, dear like daughter. Sister: Well-wisher like the sister. She refers to girdle.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(श्रद्धायाः) श्रत् सत्यम्−निघ० ३।१०। श्रद्धा श्रद्धानात्−निरु० ९।३०। सत्यं धीयतेऽत्र। षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। श्रत्+धा−अङ्, टाप्। आस्तिक्यबुद्धेः। विश्वासस्य (दुहिता) अ० ३।१०।१३। प्रपूरयित्री। पुत्रीसदृशहितकारिका वा (तपसः) योगाभ्यासात्। (अधि) अधिकम् (जाता) उत्पन्ना (स्वसा) अ० ६।१००।३। सुदीपयित्री। भगिनीतुल्यहिता (ऋषीणाम्)−म० २। सन्मार्गदर्शकानाम् (भूतकृताम्) आ० ६।१०८।४। सत्यकर्मणाम् (बभूव) (सा) त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (मेखले) (मतिम्) मननशक्तिम् (आ) समन्तात् (धेहि) देहि (मेधाम्) अ० ६।१०८।२। निश्चलां बुद्धिम् (अथो) अपि च (तपः) (इन्द्रियम्) अ० १।३५।३। इन्द्रलिङ्गं वीर्यमैश्वर्यं वा (च) ॥

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