अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
43
शि॒वः क॒पोत॑ इषि॒तो नो॑ अस्त्वना॒गा दे॒वाः श॑कु॒नो गृ॒हं नः॑। अ॒ग्निर्हि विप्रो॑ जु॒षतां॑ ह॒विर्नः॒ परि॑ हे॒तिः प॒क्षिणी॑ नो वृणक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒व: । क॒पोत॑: । इ॒षि॒त: । न॒: । अ॒स्तु॒ । अ॒ना॒गा: । दे॒वा॒: । श॒कु॒न: । गृ॒हम् । न॒: । अ॒ग्नि: । हि। विप्र॑: । जु॒षता॑म् । ह॒वि: । न॒: । परि॑ । हे॒ति: । प॒क्षिणी॑ । न॒: । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवः कपोत इषितो नो अस्त्वनागा देवाः शकुनो गृहं नः। अग्निर्हि विप्रो जुषतां हविर्नः परि हेतिः पक्षिणी नो वृणक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठशिव: । कपोत: । इषित: । न: । अस्तु । अनागा: । देवा: । शकुन: । गृहम् । न: । अग्नि: । हि। विप्र: । जुषताम् । हवि: । न: । परि । हेति: । पक्षिणी । न: । वृणक्तु ॥२७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) हे विद्वानो ! (इषितः) प्राप्ति योग्य (अनागाः) निर्दोष, (शकुनः) समर्थ (कपोतः) स्तुतियोग्य विद्वान् (नः) हमारे लिये और (नः) हमारे (गृहम्=गृहाय) घर के लिये (शिवः) मङ्गलकारी (अस्तु) होवे। (अग्निः) वह विद्वान् (विप्रः) बुद्धिमान् पुरुष (नः) हमारे (हविः) देने लेने योग्य कर्म को (हि) अवश्य (जुषताम्) स्वीकार करे। (पक्षिणी) पक्षपातवाली (हेतिः) चोट (नः) हमें (परि) सब ओर से (वृणक्तु) छोड़े ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य पूर्ण विद्वानों के सत्सङ्ग से सुशिक्षित होकर अन्याय से पक्षपात न करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(शिवः) सुखकरः (कपोतः) म० १। स्तुत्यो दूरदर्शी पुरुषः (इषितः) म० १। प्राप्तव्यः (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (अनागाः) निर्दोषः (देवाः) हे विद्वांसः (शकुनः) शकेरुनोन्तोन्त्युनयः। उ० ३।४९। इति शक्लृ−शक्तौ−उन। शक्तः समर्थः (गृहम्) चतुर्थ्याः प्रथमा। गृहाय (नः) अस्माकम् (अग्निः) विद्वान् (हि) निश्चयेन (विप्रः) मेधावी−निघ० ३।१५। (जुषताम्) सेवताम्। स्वीकरोतु (हविः) दातव्यं ग्राह्यं कर्म (नः) अस्माकम् (परि) सर्वतः (हेतिः) अ० १।१३।३। हननसाधनम् वज्रः (पक्षिणी) पक्ष परिग्रहे−अच्, इनि, ङीप्। पक्षपातयुक्ता। अन्यायेन साहाय्यकारिणी (नः) अस्मान् (वृणक्तु) वर्जयतु ॥
विषय
शिवः शकुनः
पदार्थ
१. हे (देवा:) = ज्ञानियो! यह (इषित:) = प्रेरणा प्रास करानेवाला (क-पोत:) = आनन्द का पोत प्रभु (न:) = हमारे लिए (शिवः) = कल्याण करानेवाला (अनागा:) = हमें निष्पाप बनानेवाला (अस्तु) = हो। (न:) = हमारे (गृहम्) = घर को (शकुन:) = यह शक्ति-सम्पन्न करे। प्रभु का उपासन करते हुए हमारे घर के सब व्यक्ति शक्ति-सम्पन्न हों। २. वह (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (हि) = निश्चय से (विप्रः) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाला है, वह (नः) = हमारी (हविः जुषताम्) = हवि का प्रीतिपूर्वक सेवन करे। हम यज्ञशील हों और प्रभु हमारे यज्ञों को स्वीकार करें। यज्ञशील होने पर (पक्षिणी) = [पक्ष परिग्रहे] परिग्रह-सम्बन्धी (हेतिः) = लोभरूप वज्र (न:) = हमें (परिवृणक्तु) = छोड़नेवाला हो। हमपर लोभरूप वन का प्रहार न हो।
भावार्थ
हम प्रभु-स्मरण करें, प्रभु हमारा कल्याण करते हैं। हमें शक्तिशाली व निष्पाप बनाते हैं। यह प्रभु-स्मरण ही हमें यज्ञशील बनाकर लोभ-वज्र के प्रहार से बचाता है।
भाषार्थ
(देवाः) हे राष्ट्र के दिव्य अधिकारियो ! (इषितः ) परराष्ट्र द्वारा प्रेषित (कपोतः) वायुयान (शकुनः) जो कि शक्तिशाली है, (नः गृहम्) और हमारे राष्ट्र-गृह के प्रति प्रेषित है, (शिवः) कल्याणकारी, (अनागाः) और निष्पापरूप (अस्तु) हो । (विप्रः) मेधावी (अग्निः) परराष्ट्र का प्रधानमन्त्री (नः) हमारी (हविः) "कर" रूप में प्रदत्त हवि का (जुषताम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करे, और (हेतिः) आायुधरूप (पक्षिणी ) पक्षी के आकृति वाला अल्पकाय वायुयान (नः परिवृणक्तु) हमें छोड़ जाय ।
टिप्पणी
[शक्तिशाली राष्ट्र का अधीनस्थ राष्ट्र, जो कि करदीकृत है, वह निर्धारित समयानुसार कर प्रदान नहीं कर सका। उसे सचेत करने के लिये सशस्त्र वायुयान प्रेषित हुआ है, और नियत कर लेकर वह वापिस चला गया है (कपोत =क (wind. Air; आप्टे), + पोत (यान) । वैदिक साहित्य में "कर" को हवि कहा है, ताकि राष्ट्र को यज्ञ समझ कर उसके प्रति स्वेच्छा पूर्वक हविः रूप में "कर" दिया जाया करे। यथा "हविर्न: सजाता:' (अथर्व० ३।४।३), तथा "प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो बलिमग्रहीत्" ( रघुवंश में "कर" को बलि कहा है । इस द्वारा राष्ट्र को बलिवैश्व देवयज्ञ कह कर राष्ट्रयज्ञ की धार्मिकता सूचित की है। "पक्षिणी-वाप्यान, हेलीकॉप्टर" सदृश अल्पकाय है। उड़ते समय यह दो पंखों वाली पक्षिणी की आकृति वाला दीखता है । सायण ने कपोत द्वारा कबूतर पक्षी माना है, तथा पक्षिणी द्वारा पक्षोपेता कपोताख्या हेतिः हननसाधनम् आयुधम् कहा है]।
भाषार्थ
(देवाः) हे राष्ट्र के दिव्य अधिकारियो ! (इषितः ) परराष्ट्र द्वारा प्रेषित (कपोतः) वायुयान (शकुनः) जो कि शक्तिशाली है, (नः गृहम्) और हमारे राष्ट्र-गृह के प्रति प्रेषित है, (शिवः) कल्याणकारी, (अनागाः) और निष्पापरूप (अस्तु) हो । (विप्रः) मेधावी (अग्निः) परराष्ट्र का प्रधानमन्त्री (नः) हमारी (हविः) "कर" रूप में प्रदत्त हवि का (जुषताम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करे, और (हेतिः) आायुधरूप (पक्षिणी) पक्षी के आकृति वाला अल्पकाय वायुयान (नः परिवृणक्तु) हमें छोड़ जाय ।
टिप्पणी
[शक्तिशाली राष्ट्र का अधीनस्थ राष्ट्र, जो कि करदीकृत है, वह निर्धारित समयानुसार कर प्रदान नहीं कर सका। उसे सचेत करने के लिये सशस्त्र वायुयान प्रेषित हुआ है, और नियत कर लेकर वह वापिस चला गया है (कपोत =क (wind. Air; आप्टे), + पोत (यान) । वैदिक साहित्य में "कर" को हवि कहा है, ताकि राष्ट्र को यज्ञ समझ कर उसके प्रति स्वेच्छा पूर्वक हविः रूप में "कर" दिया जाया करे। यथा "हविन: सजाता:' (अथर्व० ३।४।३), तथा "प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो बलिमग्रहीत्" ( रघुवंश में "कर" को बलि कहा है । इस द्वारा राष्ट्र को बलिवैश्व देवयज्ञ कह कर राष्ट्रयज्ञ की धार्मिकता सूचित की है। "पक्षिणी-वायुयान, हेलीकॉप्टर" सदृश अल्पकाय है। उड़ते समय यह दो पंखों वाली पक्षिणी की आकृति वाला दीखता है । सायण ने कपोत द्वारा कबूतर पक्षी माना है, तथा पक्षिणी द्वारा पक्षोपेता कपोताख्या हेतिः हननसाधनम् आयुधम् कहा है]।
विषय
राज और राजदूतों का आदर।
भावार्थ
(इषितः) किसी से प्रेरित (कपोतः) विशेष लक्षणों से युक्त संदेशहर विद्वान् (नः) हमें (शिवाः) शुभ ही (अस्तु) हो। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (शकुनः) क्योंकि वह शक्तिशाली होकर भी (नः) हमारे (गृह) घर के प्रति (अनागाः) कोई अपराध या हानि न पहुंचावें। वह (अग्निः) अग्नि=आहवनीय अग्नि (हि) के समान (विप्रः) मेधावी पुरुष (नः) हमारे (हविः) चरु के समान पवित्र अन्न को (जुषताम्) प्रेम से स्वीकार करे। जिससे (पक्षिणी) पंखों से युक्त (हेतिः) आयुध बाण या सेना (नः) हम से (परि वृणक्तु) चारों ओर से बचे अर्थात् दूर रहे, हमें न लगे। अर्थात् पराये राष्ट्र के भेजे राजदूत के साथ आदर से वर्ताव करे, उसको अन्न-भोजन का प्रबन्ध कर दे नहीं तो उसके साथ दुर्व्यवहार कर के भावी में भयंकर होते हैं और भयानक अस्त्रों का प्रहार होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिर्वा देवता। १, २ जगत्यौ। २ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
News and Response
Meaning
O devas, men of wisdom and imagination, may the messenger sent to us be harbinger of good for us. May the prognosis be a good omen, free from sin and evil for our home and family. May the Brahmana, like an enlightened leader, accept and be happy with our presentation of hospitality, as the yajna fire receives our oblation and joyously rises bright, and may he ward off the strike of all flying missiles.
Translation
May this dispatched pigeon (kapota) be good to us, a harmless bird, O enlightened ones, that has come seeking our house. May the wise adorable Lord accept our offerings. May this winged weapon (hetih) leave us unharmed.
Translation
O learned men! let the pigeon sent (by trainers to communicate message) be auspicious for us, let this innocent bird. come to our house, let enlightened man have the eatable presented by us and let the winged missile avoid us.
Translation
O learned persons, let an agreeable, sinless, powerful person, far-sighted like a pigeon, who visits us, be auspicious for us and our dwelling. May that talented, wise person, gladly accept the food offered by us. May the thirst for partiality avoid us!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(शिवः) सुखकरः (कपोतः) म० १। स्तुत्यो दूरदर्शी पुरुषः (इषितः) म० १। प्राप्तव्यः (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (अनागाः) निर्दोषः (देवाः) हे विद्वांसः (शकुनः) शकेरुनोन्तोन्त्युनयः। उ० ३।४९। इति शक्लृ−शक्तौ−उन। शक्तः समर्थः (गृहम्) चतुर्थ्याः प्रथमा। गृहाय (नः) अस्माकम् (अग्निः) विद्वान् (हि) निश्चयेन (विप्रः) मेधावी−निघ० ३।१५। (जुषताम्) सेवताम्। स्वीकरोतु (हविः) दातव्यं ग्राह्यं कर्म (नः) अस्माकम् (परि) सर्वतः (हेतिः) अ० १।१३।३। हननसाधनम् वज्रः (पक्षिणी) पक्ष परिग्रहे−अच्, इनि, ङीप्। पक्षपातयुक्ता। अन्यायेन साहाय्यकारिणी (नः) अस्मान् (वृणक्तु) वर्जयतु ॥
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