अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अश्विनीकुमारौ, द्यौष्पिता
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त
78
धि॒ये सम॑श्विना॒ प्राव॑तं न उरु॒ष्या ण॑ उरुज्म॒न्नप्र॑युच्छन्। द्यौ॒ष्पित॑र्या॒वय॑ दु॒च्छुना॒ या ॥
स्वर सहित पद पाठधि॒ये । सम् । अ॒श्वि॒ना॒ । प्र । अ॒व॒त॒म् । न॒: । उ॒रु॒ष्य । न॒: । उ॒रु॒ऽज्म॒न् । अप्र॑ऽयुच्छन् । द्यौ᳡: । पित॑: । य॒वय॑ । दु॒च्छुना॑ । या ॥४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
धिये समश्विना प्रावतं न उरुष्या ण उरुज्मन्नप्रयुच्छन्। द्यौष्पितर्यावय दुच्छुना या ॥
स्वर रहित पद पाठधिये । सम् । अश्विना । प्र । अवतम् । न: । उरुष्य । न: । उरुऽज्मन् । अप्रऽयुच्छन् । द्यौ: । पित: । यवय । दुच्छुना । या ॥४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
सब की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(अश्विना) हे सब कामों में व्यापक रहनेवाले माता पिता ! (धिये) सत् कर्म वा सत् बुद्धि के लिये (नः) हमारी (सम्) मिलकर (प्र) अच्छे प्रकार (अवतम्) रक्षा करो। (उरुज्मन्) हे विस्तीर्ण गतिवाले परमात्मन् ! (अप्रयुच्छन्) चूक न करता हुआ तू (नः) हमारी (उरुष्य) रक्षा कर। (द्यौः) हे प्रकाशमान (पितः) पिता परमेश्वर ! (या) जो (दुच्छुना) दुर्गति है [उसको] (यवय) तू हटा दे ॥३॥
भावार्थ
माता पिता इस प्रकार शिक्षा देवें जिस से उनके संतान ईश्वर आज्ञा पालन करके ऐश्वर्यवान् हों ॥३॥
टिप्पणी
३−(धिये) धीः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। सत्कर्मणे सद्बुद्धये वा (सम्) संगत्य (अश्विना) सू० ३।३। कर्मसु व्यापनशीलौ मातापितरौ (प्र) प्रकर्षेण (अवतम्) रक्षतम् (नः) अस्मान् (उरुष्य) सू० ३।३। रक्ष (नः) (उरुज्मन्) सर्वधातुभ्यो मनिन् उ० ४।१४५। इति उरु+अज गतिक्षेपणयोः−मनिन्, अकारलोपः। हे विस्तीर्णगते परमात्मन् (अप्रयुच्छन्) अ० २।६।३। अप्रमाद्यन् (द्यौः) हे प्रकाशमान (पितः) पालक परमेश्वर (यवय) अपगमय (दुच्छुना) अ० ५।१७।४। दुर्गतिः (या) या, तामपि ॥
विषय
द्यौष्पिता
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (धिये) = बुद्धि के लिए (न:) = हमें (संप्रावतम्) = सम्यक रक्षित कीजिए। हे (उरुज्मन्) = विशाल गतिवाले प्रभो! आप (अप्रयुच्छन्) = किसी प्रकार का प्रमाद न करते हुए (नः उरुष्य) = हमारा रक्षण कीजिए। हे (द्यौष्पित:) = प्रकाशमय स्वरूप में निवास करनेवाले [द्यौः] रक्षक [पित:] प्रभो! या जो भी (दुच्छुना) = दुर्गति है, उसे (यावय) = हमसे पृथक् कीजिए।
भावार्थ
प्राणसाधना द्वारा हम बुद्धि प्राप्त करें, गतिशील बनकर अपना रक्षण करनेवाले हों और ज्ञानी बनकर दुर्गति से दूर हों।
भाषार्थ
(अश्विना) पुण्यकर्मों वाले दो राजा (नः) हमारी (सम् प्रावतम्) परस्पर मिलकर प्रकृष्ट रक्षा करें (धिये) सद्-बुद्धि की प्राप्ति के लिये। (ऊरुज्मन्) हे विस्तृत पृथिवी के स्वामिन् ! तू (अप्रयुच्छन्) विना प्रमाद किये (नः उरुष्य) हमारी रक्षा कर। (द्यौः, पितः ) हे द्युलोक के सदृश सदा द्युतिसम्पन्न सब के पिता१ परमेश्वर ! (या दुन्छुना) जो दुःखदायिसुख की ओर हमारी प्रवृत्ति है उसे (यावय) हम से पृथक् कर।
टिप्पणी
[अश्विना पुण्यकृतौ राजानौ (निरुक्त २।१।१; अश्विनो पद १), सम्भवतः सम्राट् और वरुण राजा (यजु० ८।३७)। ये दोनों प्रजा को ऐसी शिक्षा दे जिस द्वारा प्रजाजन सद्बुद्धि वाले हो जाय। उरुज्मन्= उरु+ज्या (पृथिवी, निघं० १।१)। राष्ट्रपति है वरुण राजा; सम्राट् है इन्द्र (यजु० ८।३७); और समग्र पृथिवी का स्वामी है "उरुज्मन्" इसे वेदों में एकराट् तथा जनराट् भी कहा है। (अथर्व ३।४।१; २०।२१।९), तथा द्यौ पिता है ब्रह्माण्ड का राजा। दुच्छुना है सांसारिक ऐन्द्रियिक सुखोंवाली दुष्प्रवृत्ति । दुच्छुना=दु: "शुनम् सुखनाम" (निघं० ३।६) सद् बुद्धि "दुच्छुना प्रवृत्ति" को विरोधिनी है]। [१. मन्त्र ६।४।१ में परमेश्वर का वर्णन मातृरूप में, पौर वर्तमान मन्त्र में पितृरूप में हुआ है।]
भाषार्थ
(अश्विना) पुण्यकर्मों वाले दो राजा (नः) हमारी (सम् प्रावतम्) परस्पर मिलकर प्रकृष्ट रक्षा करें (धिये) सद्-बुद्धि की प्राप्ति के लिये। (ऊरुज्मन्) हे विस्तृत पृथिवी के स्वामिन् ! तू (अप्रयुच्छन्) विना प्रमाद किये (नः उरुष्य) हमारी रक्षा कर। (द्यौः, पितः ) हे द्युलोक के सदृश सदा द्युतिसम्पन्न सब के पिता१ परमेश्वर ! (या दुन्छुना) जो दुःखदायिसुख की ओर हमारी प्रवृत्ति है उसे (यावय) हम से पृथक् कर।
टिप्पणी
[अश्विना= पुण्यकृतौ राजानौ (निरुक्त २।१।१; अश्विनो पद १), सम्भवतः सम्राट् और वरुण राजा (यजु० ८।३७)। ये दोनों प्रजा को ऐसी शिक्षा दे जिस द्वारा प्रजाजन सद्बुद्धि वाले हो जाय। उरुज्मन्= उरु+ज्या (पृथिवी, निघं० १।१)। राष्ट्रपति है वरुण राजा; सम्राट् है इन्द्र (यजु० ८।३७); और समग्र पृथिवी का स्वामी है "उरुज्मन्" इसे वेदों में एकराट् तथा जनराट् भी कहा है। (अथर्व ३।४।१; २०।२१।९), तथा द्यौ पिता है ब्रह्माण्ड का राजा। दुच्छुना है सांसारिक ऐन्द्रियिक सुखोंवाली दुष्प्रवृत्ति । दुच्छुना=दु: "शुनम् सुखनाम" (निघं० ३।६) सद् बुद्धि "दुच्छुना प्रवृत्ति" को विरोधिनी है]। [१. मन्त्र ६।४।१ में परमेश्वर का वर्णन मातृरूप में, और वर्तमान मन्त्र में पितृरूप में हुआ है।]
विषय
रक्षा की प्रार्थना
भावार्थ
हे (अश्विना) अश्वियो ! माता पिताओ ! (धिये) उत्तम आचरण और शुभमति के प्राप्त करने के लिये (नः) हमें (सं प्र अवतम्) भली प्रकार उत्तम रीति से आगे बढ़ाओ, उत्साहित करो। और हे (उरु-ज्मन्) उरु, समस्त लोकों में व्यापक परमात्मन् ! आप (न प्रयुच्छन्) कभी प्रमाद न करते हुए (नः उरुष्य) हमारी रक्षा करो। हे (पितः) समस्त प्राणियों के पालक ! (द्यौः) प्रकाशस्वरूप भगवन् ! (या दुच्छुना*) जो दुःखदायी फलों को लाने वाली तृष्णा है उसे (यवय) हम से दूर कर।
टिप्पणी
*दुष्टं शुनं सुखमस्याम् इति वा श्वेव दुष्टेति वा सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। नाना देवताः। १ पध्याबृहती। २ संस्तार पंक्ति:। ३ त्रिपदा विराड् गायत्री। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer for Protection
Meaning
May the Ashvins, circuitous currents of natural dynamics, protect us for our intellectual growth. May nature’s might straight and never deceiving protect us. May the lord of heavens cast away all evil and adversity that afflicts us.
Translation
May you, O twins divine, protect us for good actions (dhiye). O wide-moving, may you guard us With unceasing care. O Heaven, our father, keep misfortunes whatsoever away from us.
Translation
May the positive and negative electricity be our guarding force in various activities, may the wide range of the globe be source of our protection and may the all-protecting heavenly region keep us away from all the calamities.
Translation
O father and mother, preserve us well for good conduct. O All-pervad ing God, with ceaseless care protect us. O Nourisher of mankind, O Refulgent God, keep away from us avarice, the bringer of evil fruits.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(धिये) धीः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। सत्कर्मणे सद्बुद्धये वा (सम्) संगत्य (अश्विना) सू० ३।३। कर्मसु व्यापनशीलौ मातापितरौ (प्र) प्रकर्षेण (अवतम्) रक्षतम् (नः) अस्मान् (उरुष्य) सू० ३।३। रक्ष (नः) (उरुज्मन्) सर्वधातुभ्यो मनिन् उ० ४।१४५। इति उरु+अज गतिक्षेपणयोः−मनिन्, अकारलोपः। हे विस्तीर्णगते परमात्मन् (अप्रयुच्छन्) अ० २।६।३। अप्रमाद्यन् (द्यौः) हे प्रकाशमान (पितः) पालक परमेश्वर (यवय) अपगमय (दुच्छुना) अ० ५।१७।४। दुर्गतिः (या) या, तामपि ॥
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