अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
याव॑न्तो मा स॒पत्ना॑नामा॒यन्तं॑ प्रति॒पश्य॑थ। उ॒द्यन्त्सूर्य॑ इव सु॒प्तानां॑ द्विष॒तां वर्च॒ आ द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑न्त: । मा॒ । स॒ऽपत्ना॑नाम् । आ॒ऽयन्त॑म् । प्र॒ति॒ऽपश्य॑थ । उ॒त्ऽयन् । सूर्य॑:ऽइव । सु॒प्ताना॑म् । द्वि॒ष॒ताम् । वर्च॑: । आ । द॒दे॒ ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यावन्तो मा सपत्नानामायन्तं प्रतिपश्यथ। उद्यन्त्सूर्य इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आ ददे ॥
स्वर रहित पद पाठयावन्त: । मा । सऽपत्नानाम् । आऽयन्तम् । प्रतिऽपश्यथ । उत्ऽयन् । सूर्य:ऽइव । सुप्तानाम् । द्विषताम् । वर्च: । आ । ददे ॥१४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं को हराने का उपदेश।
पदार्थ
(सपत्नानाम्) शत्रुओं में से (यावन्तः) जितने लोग तुम (मा आयन्तम्) मुझ आते हुए को (प्रतिपश्यथ) निहारते हो। (द्विषताम्) उन वैरियों का (वर्चः) तेज (आ ददे) मैं लिये लेता हूँ (इव) जैसे (उद्यन् सूर्यः) उदय होता हुआ सूर्य (सुप्तानाम्) सोते हुए पुरुषों का ॥२॥
भावार्थ
जैसे सूर्य के उदय होने पर सोनेवाले आलसियों का बल घट जाता है, वैसे ही तेजस्वी पुरुष अपने वैरियों को पराक्रमहीन कर देवे ॥२॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
२−(यावन्तः) यत्परिमाणाः (मा) माम् (सपत्नानाम्) शत्रूणां मध्ये (आयन्तम्) अभिगच्छन्तम् (प्रतिपश्यथ) निरीक्षध्वे (उद्यन्) उद्गच्छन् (सूर्यः) (इव) यथा (सुप्तानाम्) स्वपतां जनानाम् (द्विषताम्) अप्रियकराणाम् (वर्चः) तेजः (आददे) लटि रूपम्। गृह्णामि ॥
विषय
सूर्योदय से पूर्व जाग जाना
पदार्थ
१. (सपत्नानाम्) = शत्रुओं में (यावन्त:) = जितने तुम (आयन्तम्) = आक्रमण के लिए आते हुए (मा) = मुझे (प्रतिपश्यथ) = देखते हो, (द्विषताम्) = उन सब प्रतिकूलदर्शी तुम शत्रुओं के (वर्च:) = पराक्रमरूप तेज को, इसप्रकार (आददे) = अपहत कर लेता हूँ (इव) = जैसेकि (उद्यन् सूर्य:) = उदय होता हुआ सूर्य (सुसानाम्) = सोये हुओं के तेज को छीन लेता है।
भावार्थ
शत्रुओं के तेज को मैं इसप्रकार छीन लूँ, जैसेकि उदय होता हुआ सूर्य सोये हुओं के तेज को छीन लेता है। [अत: सूर्योदय से पूर्व जाग जाना आवश्यक ही है]।
भाषार्थ
(सपत्नानाम्) शत्रुओं में से (यावन्तः) जितने तुम (आयन्तम्) आते हुए (मा) मुझ को (प्रतिपश्यथ) प्रतिकूल रूप में देखते हो, उन (द्विषताम्) द्वेष करने वालों के (वर्चः) प्रभावविशेष का (आ ददे) में अपहरण करता हूँ, (इव) जैसे कि (उद्यन सूर्यः) उदय को प्राप्त होता हुआ सूर्य (सुप्तानाम्) सोए हुओं के वर्चस् का अपहरण करता है।
टिप्पणी
[अभिप्राय पूर्वगत मन्त्रवत् है। “आयन्तम् मा" द्वारा सम्भवतः संसद् के अधिवेशन में आते हुए सभापति का निर्देश हुआ है। अथवा इन दोनों मन्त्रों में यह इन्द्र अर्थात् सम्राट का कथन हुआ है। इन्द्र अर्थात् सम्राट् (सूक्त १३।३)। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि सूर्य के उदय काल में सोए हुओं का वर्चस नष्ट हो जाता है। यह काल सन्ध्याकाल है, सोए रहने का काल नहीं]।
विषय
शत्रु के दमन की साधना।
भावार्थ
(स-पत्नानाम्) शत्रुओं में से (यावन्तः) जितने आप लोग (मां) मुझ को (आयन्तम्) अपने प्रति आते हुए (प्रतिपश्यथ) अपने से प्रतिकूल देख रहे हैं, (सुप्तानां) सोते हुए पुरुषों के तेज को (उत्-यन् सूयः इव) जिस प्रकार उदय होता हुआ सूर्य हर लेता है उसी प्रकार (द्विषतां) द्वेष करने वाले आप लोगों के (वर्चः) तेज, वीर्य, बल, यश, प्रताप को (आ ददे) मैं हर लूं। सूर्योदय के बाद तक सोने वाले आलसी पुरुषों का वीर्य, बल, तेज क्षीण हो जाता है इसलिये तेजस्वी होने के लिये सूर्योदय के पूर्व ही उठना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्विषो वर्चोहर्त्तुकामोऽथर्वा ऋषिः। सोमो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। द्व्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Depressing the Enemy
Meaning
O rivals and adversaries, of as many of you as come and see me advancing, I take away the power and lustre of the enemies as the rising sun takes away the light of those lost in sleep.
Translation
As many of you, O rivals, look at you-the splendour of them, the hateful, I take to myself, just as the Sun, when rising, takes away the splendour of those who lie asleep.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.14.2AS PER THE BOOK
Translation
I seize the glory of the all those of my rival enemies who behold me coming to them, as the rising sun seizes the glory of those men who sleep after sun-rise.
Translation
All Ye among my rivals who behold me as I come to you, I seize the glory of my foes as the Sun, rising, theirs who sleep.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यावन्तः) यत्परिमाणाः (मा) माम् (सपत्नानाम्) शत्रूणां मध्ये (आयन्तम्) अभिगच्छन्तम् (प्रतिपश्यथ) निरीक्षध्वे (उद्यन्) उद्गच्छन् (सूर्यः) (इव) यथा (सुप्तानाम्) स्वपतां जनानाम् (द्विषताम्) अप्रियकराणाम् (वर्चः) तेजः (आददे) लटि रूपम्। गृह्णामि ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal