अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - पर्जन्यः, पृथिवी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
76
न घ्रंस्त॑ताप॒ न हि॒मो ज॑घान॒ प्र न॑भतां पृथि॒वी जी॒रदा॑नुः। आप॑श्चिदस्मै घृ॒तमित्क्ष॑रन्ति॒ यत्र॒ सोमः॒ सद॒मित्तत्र॑ भ॒द्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठन । घ्रन् । त॒ता॒प॒ । न । हि॒म: । ज॒घा॒न॒ । प्र । न॒भ॒ता॒म् । पृ॒थि॒वी । जी॒रऽदा॑नु: । आप॑: । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । घृ॒तम् । इत् । क्ष॒र॒न्ति॒ । यत्र॑ । सोम॑: । सद॑म् । इत् । तत्र॑ । भ॒द्रम् ॥१९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न घ्रंस्तताप न हिमो जघान प्र नभतां पृथिवी जीरदानुः। आपश्चिदस्मै घृतमित्क्षरन्ति यत्र सोमः सदमित्तत्र भद्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । घ्रन् । तताप । न । हिम: । जघान । प्र । नभताम् । पृथिवी । जीरऽदानु: । आप: । चित् । अस्मै । घृतम् । इत् । क्षरन्ति । यत्र । सोम: । सदम् । इत् । तत्र । भद्रम् ॥१९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
दूरदर्शी होने का उपदेश।
पदार्थ
(घ्रन्) चमकता हुआ सूर्य (न तताप) न तपावे (न) न (हिमः) शीत (जघान) मारे, [किन्तु] (जीरदानुः) गति देनेवाला (पृथिवी) अन्तरिक्ष [जल को] (प्र) अच्छे प्रकार (नभताम्) गिरावे। (आपः) सब प्रजायें (चित्) भी (अस्मै) इस [जगत्] के लिये (घृतम्) सार रस (इत्) ही (क्षरन्ति) बरसाती हैं, (यत्र) जहाँ (सोमः) ऐश्वर्य है (तत्र) वहाँ (सदम् इत्) सदा ही (भद्रम्) कल्याण है ॥२॥
भावार्थ
जैसे दूरदर्शी ऐश्वर्यवान् पुरुष ठीक-ठीक वृष्टि से लाभ उठाकर अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अतिशीत के दुःखों से बचे रहते हैं, वैसी ही ज्ञानी पुरुष शान्तस्वभाव परमात्मा के विचार से आत्मिक क्लेशों से अलग रहकर मङ्गल मनाते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(न) निषेधे (घ्रन्) घृ भासे-शतृ, अकारलोपः। घरन्। भासमानः सूर्यः (तताप) छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। पा० ३।४।६। लिङर्थे-लिट्। तापयेत् (न) (हिमः) हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। हन्तेर्मक्। शीतलस्पर्शः (जघान) हन्यात् (प्र) प्रकर्षेण (नभताम्) म० १। हन्तु। पातयतु, नभ इति शेषः-म० १ (पृथिवी) अन्तरिक्षम् (जीरदानुः) जीर-दानुः। जोरी च। उ० २।२३। जु गतौ-रक्, ईकारादेशः। जीराः क्षिप्रनाम-निघ० २।१५। दाभाभ्यां नुः। ३०३।३२। इति ददातेर्नु। गतिप्रदा (आपः) सर्वाः प्रजाः (चित्) अपि (अस्मै) जगते (घृतम्) तत्त्वरसम् (क्षरन्ति) सिञ्चन्ति (यत्र) (सोमः) ऐश्वर्यम् (सदम्) सर्वदा (तत्र) (भद्रम्) कल्याणम् ॥
विषय
सोमयाग और भद्र-प्राप्ति
पदार्थ
१. (घ्रन्) = ग्नीष्म [गरमी] (न तताप) = सन्ताप से अन्न को बाधित नहीं करता। (हिम:) = शीत भी (न जघान) = इन अन्नों को नष्ट करनेवाला नहीं होता। जीरदानुः जीवन देनेवाली पृथिवी-यह पृथिवी प्रनभताम्-सम्यक्तया हल आदि द्वारा खण्डित की जाए। २. अस्मै-इस यजमान के लिए आपः चित्-जल निश्चय से घृतं इत् क्षरन्ति-घृत ही बरसाते हैं। वृष्टि से गोसमृद्धि होकर घृत की कमी नहीं रहती। यत्र सोमः जहाँ सोमयाग होते रहते हैं तन्त्र-वहाँ सदम् इत्-सदा ही भद्रम् कल्याण होता है। वहाँ वृष्टि होकर अन्न की कमी नहीं रहती और इसप्रकार अनिष्टनिवृत्ति होकर इष्ट-प्राप्ति होती है।
भावार्थ
सर्वत्र सोमयागों के होने पर वृष्टि ठीक प्रकार होती है, सर्दी व गर्मी का प्रकोप नहीं होता। ठीक से वृष्टि होकर गोसमृद्धि द्वारा घृतवृद्धि होती है।
इस उत्तम स्थिति में उन्नति करता हुआ व्यक्ति ब्रह्मा [बढ़ा हुआ] बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
[पृथिवी को] (घ्रन्) ग्रीष्म काल ने (न तताप) नहीं तपाया (हिमः) हेमन्त ऋतु में (न जघान) न इस का हनन किया है, (जीरदानुः) जीवनप्रदा (पृथिवी) पृथिवी [न] (प्रनभताम्) न हिंसित हो। (आपः चित्) जल भी (अस्मै) इस पृथिवी के स्वामी के लिये (घृतम् इत्) घृत ही (क्षरन्ति) क्षरित करते हैं, (यत्र) जिस स्थान में (सोमः) जल होता है (तत्र) वहाँ (सदम्, इत्) सदा ही (भद्रम्) सुख और कल्याण होता है। सोमः= Water (आप्टे)।
टिप्पणी
[मन्त्र ७।१९।१ में पथिवी का अर्थ है अन्तरिक्ष और ७।१९।२ में अर्थ है भूमि। घ्रन्– घृ दीप्तौ (जुहोत्यादिः)। घ्रन्= घृ+ शत्। अभिप्राय यह है ग्रीष्म ऋतु प्रखर गर्मी द्वारा जब पृथिवी को नहीं तपाती, और न हेमन्त अर्थात् बर्फीली ऋतु इस का हनन करती है तब पृथिवी जीवनीय अन्नाद का प्रदान करती है। परन्तु वर्षा ऋतु जब जल प्रदान करती है तब मानो वह जल नहीं प्रदान करती अपितु जलरूप में घृतादि पदार्थ प्रदान कर रही होती है। जहां जल होता है वहां ओषधियां, वनस्पतियां प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होकर सुख प्रदान करतीं और प्रजा का कल्याण करती हैं। जघान का अभिप्राय है कि हेमन्त ऋतु में बर्फ के कारण अतिशीत होने से ओषधियां, वनस्पतियां मुर्छा जाती हैं यह पृथिवी का हनन है]।
विषय
उपासना का फल
शब्दार्थ
भगवद्भक्त को, उपासक को (घ्रन्) ग्रीष्मकाल का प्रचण्ड सूर्य (न तताप) नहीं तपाता (हिम:) हिम, पाला, सर्दी (न जधान) उसे पीड़ित नहीं करती । (पृथिवी) यह पृथिवी (जीरदानु:) जीवन देनेवाली बनकर (प्र नभताम्) उसके ऊपर सुखों की वृष्टि करती है (आप: चित्) जलधाराएँ भी इसके लिए (घृतम् क्षरन्ति) घृत की धाराएँ बनकर सुख की वृष्टि करती हैं । (यत्र सोमः) जहाँ प्रभु का प्रेमरस होता है (तत्र) वहाँ (सदम् इत्) सदा ही (भद्रम्) कल्याण होता है ।
भावार्थ
वेद में ईश्वर को ‘वृष:’ कहा गया है । वह मेघ बनकर सुखों की वृष्टि करता है । जब भक्त पर प्रभु-कृपाओं की वृष्टि होने लगती है - १. गर्मी और सर्दी उसे नहीं सताती । २. पृथिवी उसके लिए सुखों की वृष्टि करने लग जाती है । उसे संसार में किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता । उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । ३. जलधाराएँ भी उसके ऊपर सुख की वृष्टि करती हैं । ४. जहाँ प्रभु का मधुर प्रेमरस बहता है, वहाँ तो सदा कल्याण ही कल्याण है, अकल्याण तो वहाँ हो ही नहीं सकता । संसार के लोगो ! यदि संसार के ताप से, संसार के थपेड़ों से बचना चाहते हो, यदि सुख और आनन्द की अभिलाषा है, यदि कल्याण की कामना है तो अपने आपको प्रभु के प्रेमरस में लवलीन कर लो, आप भवसागर से पार उतर जाओगे ।
विषय
अन्न की प्रार्थना।
भावार्थ
(घ्रन्) घाम या ग्रीष्मकाल का प्रचण्ड सूर्य (न तताप) भूमि को जब अधिक न तपा रहा हो और जब (हिमः) हिम, पाला, अति शीत भी (न जघान) पीड़ित न करे तब (पृथिवी) यह पृथिवी क्षेत्रभूमि (जीरदानुः) जीवनप्रद, अन्न का प्रदान करने योग्य होकर (प्र नभताम्) अच्छी रूप से तैयार की जाय और तभी (आपः) जलधाराएं (चित्) भी (अस्मै) इस भूमिपति या क्षेत्रपाल के लिए (घृतम्) घी या आयु और बलप्रद अन्न जल ही मानो (क्षरन्ति) बहाते हैं। ठीक भी है क्योंकि (यत्र) जहां (सोमः) सोम, जल वर्षाने वाला मेघ बरसाता है (तत्र) वहां (सदम् इत्) सदा ही (भद्रम्) सुख, कल्याण और सुभिक्ष रहा करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। पृथिवी पर्जन्यश्च देवते। चतुष्पाद् भुरिगुष्णिक्। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सुक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rain Showers
Meaning
Let the blazing sun not parch us. Let no cold and frost strike us. Let the generous sky stream down showers of rain. Where nature’s greenery, soma, grows profusely, there is good fortune, and waters of rain showers, nectar ghrta of prosperity, always.
Translation
"There the summer does not cause burning heat, there the snowy season does not smite, there the life-giving earth (prthivi jiradanuh) always remains moistened with water, and the waters (apah) produce purified butter (ghrtam) for the sacrificer, wherever there is the herb Soma, there it is always happiness and bliss."
Comments / Notes
MANTRA NO 7.19.2AS PER THE BOOK
Translation
Let not Sun’s heat burn, let not cold destroy anything, let the middle region of cloud with all its quickening drops burst open, these rainy waters strength and vigor for this world and even for these plants, where vegetation ever remains there remains happiness forever.
Translation
Let not the Sun's heat burn, nor cold destroy the Earth. Let Earth, the producer of life-giving food be, well cultivated. Drops of rain water, say, bring for the farmer food invigorating like butter. Where cloud is even there is bliss for ever.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(न) निषेधे (घ्रन्) घृ भासे-शतृ, अकारलोपः। घरन्। भासमानः सूर्यः (तताप) छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। पा० ३।४।६। लिङर्थे-लिट्। तापयेत् (न) (हिमः) हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। हन्तेर्मक्। शीतलस्पर्शः (जघान) हन्यात् (प्र) प्रकर्षेण (नभताम्) म० १। हन्तु। पातयतु, नभ इति शेषः-म० १ (पृथिवी) अन्तरिक्षम् (जीरदानुः) जीर-दानुः। जोरी च। उ० २।२३। जु गतौ-रक्, ईकारादेशः। जीराः क्षिप्रनाम-निघ० २।१५। दाभाभ्यां नुः। ३०३।३२। इति ददातेर्नु। गतिप्रदा (आपः) सर्वाः प्रजाः (चित्) अपि (अस्मै) जगते (घृतम्) तत्त्वरसम् (क्षरन्ति) सिञ्चन्ति (यत्र) (सोमः) ऐश्वर्यम् (सदम्) सर्वदा (तत्र) (भद्रम्) कल्याणम् ॥
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