अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रस्कण्वः
देवता - श्येनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुपर्ण सूक्त
47
श्ये॒नो नृ॒चक्षा॑ दि॒व्यः सु॑प॒र्णः स॒हस्र॑पाच्छ॒तयो॑निर्वयो॒धाः। स नो॒ नि य॑च्छा॒द्वसु॒ यत्परा॑भृतम॒स्माक॑मस्तु पि॒तृषु॑ स्व॒धाव॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठश्ये॒न: । नृ॒ऽचक्षा॑: । दि॒व्य: । सु॒ऽप॒र्ण: । स॒हस्र॑ऽपात् । श॒तऽयो॑नि: । व॒य॒:ऽधा: । स । न॒: । नि । य॒च्छा॒त् । वसु॑ । यत् । परा॑ऽभृतम् । अ॒स्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । पि॒तृषु॑ । स्व॒धाऽव॑त् ॥४२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्येनो नृचक्षा दिव्यः सुपर्णः सहस्रपाच्छतयोनिर्वयोधाः। स नो नि यच्छाद्वसु यत्पराभृतमस्माकमस्तु पितृषु स्वधावत् ॥
स्वर रहित पद पाठश्येन: । नृऽचक्षा: । दिव्य: । सुऽपर्ण: । सहस्रऽपात् । शतऽयोनि: । वय:ऽधा: । स । न: । नि । यच्छात् । वसु । यत् । पराऽभृतम् । अस्माकम् । अस्तु । पितृषु । स्वधाऽवत् ॥४२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य पाने का उपदेश।
पदार्थ
(नृचक्षाः) मनुष्यों को देखनेवाला, (दिव्यः) दिव्यस्वरूप, (सुपर्णः) बड़ी पालन शक्तिवाला (सहस्रपात्) सहस्रों असीम पाद अर्थात् गति शक्तिवाला, [मन से अधिक वेगवाला-यजु० ४०।४] (शतयोनिः) सैकड़ों [अगणित] लोकों का घर, (वयोधाः) अन्नदाता (श्येनः) ज्ञानवान् परमात्मा है। (सः) वह (नः) हमें (वसु) वह धन (नि) निरन्तर (यच्छात्) देवे, (यत्) जो (पराभृतम्) पराक्रम से धारण किया गया (अस्माकम्) हमारे (पितृषु) पितरों [बड़े बूढ़ों] के बीच (स्वधावत्) आत्मधारण शक्तिवाला (अस्तु) होवे ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर के अनन्त सामर्थ्यों को विचारकर अनेक उद्योगों के साथ विद्वानों का पालन करके सदा आनन्द भोगें ॥२॥
टिप्पणी
२−(श्येनः) म० १। ज्ञानवान् परमात्मा (नृचक्षाः) नॄणां द्रष्टा (दिव्यः) अद्भुतस्वरूपः (सुपर्णः) अ० १।२४।१। शोभनपालनः (सहस्रपात्) पद गतौ-घञ्। संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। अन्त्यलोपः। सहस्राणि अपरिमिताः पादा गतिशक्त्यो यस्य सः। मनसो जवीयः-यजु० ४०।४। इति श्रुतेः (शतयोनिः) योनिर्गृहम्-निघ० ३।४। अपरिमितानां लोकानां गृहम् (वयोधाः) अ० ५।११।११। अन्नस्य दाता (सः) परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (नि) निरन्तरम् (यच्छात्) दद्यात् (वसु) धनम् (यत्) (पराभृतम्) पराक्रमेण धृतम् (अस्माकम्) (अस्तु) (पितृषु) पित्रादिमान्येषु (स्वधायत्) अ० ३।२९।१। आत्मधारणसामर्थ्ययुक्तम् ॥
विषय
सुपर्णः सहस्त्रपात्
पदार्थ
१. वे प्रभु (श्येन:) = शंसनीय गतिवाले हैं, (नृचक्षा:) = मनुष्यों के देखनेवाले, उनके कर्मों के साक्षी हैं, (दिव्य:) = प्रकाशमय व सपर्ण: उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। (सहस्त्रपात्) = अनन्त चरणोंवाले व सर्वत्र गतिवाले हैं, (शतयोनि:) = शतवर्षपर्यन्त इस शरीर-गृह को प्राप्त करानेवाले व (वयोधा:) = प्रकृष्ट जीवन को धारण करानेवाले हैं। २. (स:) = वे प्रभु (न:) = हमारे लिए उस (वसु) = धन को (नियच्छात्) = दें (यत्) = जो (पराभूतम्) = सुदूर धारण किया गया है। जिस धन को यज्ञादि में विनियुक्त करके दूर पहुंचाया गया है। (अस्माकम्) = हमारा वह धन (पितृषु स्वधावत् अस्तु) = पितरों में स्वधावाला हो-पितरों के लिए अर्पित होता हुआ हमारा धारण करनेवाला हो। जब हम उस धन को पितरों के लिए देंगे, तब हमारी सन्तानें भी वैसा पाठ पढ़ेंगी और हमारे लिए उसी प्रकार धन प्राप्त कराएँगी। इसप्रकार पितरों को देते हुए हम अपना ही धारण कर रहे होते हैं।
भावार्थ
प्रभु शंसनीय गतिवाले व हमारे लिए उत्कृष्ट धन को धारण करानेवाले हैं। वे हमें धन दें। यह धन यज्ञादि द्वारा सुदूर देवों में निहित हो और इसके द्वारा हम पितृयज्ञ करनेवाले हो|
भाषार्थ
(श्येनः) देखो मन्त्र (१), (नृचक्षाः) नर-नारियों का निरीक्षक, (दिव्य ) दिव्यगुणी, (सुपर्णः) उत्तम पालक (सहस्रपात्) हजारों पैरों वाला या हजारों का रक्षक (शतयोनिः) सैंकड़ों का योनिरूप, (वयोधाः) अन्नों का धारण करने वाला, उन का स्वामी (सः) वह परमेश्वर (नः) हमें (नियच्छात्) नितरां देवे (वसु) धन; (यत्) जो धन कि (पराभृतम्) दूर से भी लाया गया हो, वह धन (अस्माकम् पितृषु) हमारे माता-पिता आदि में (स्वधावत् अस्तु) आत्मधारण शक्ति प्रदायक हो।
टिप्पणी
[सुपर्णः= सु+पॄ पालनपुरणयोः (जुहोत्यादिः)। सहस्रपात्= सहस्रपात् (यजु० ३१।१), सर्वगतिकः, या सहस्र + पा रक्षणे। पराभृतम्= परस्मात् स्थानात् + आहृतम्]।
विषय
मुक्ति की प्रार्थना।
भावार्थ
(श्येनः) सर्वज्ञ सर्वव्यापक, (नृचक्षाः) सब जीवों का द्रष्टा, (दिव्यः) मोक्षधाम का स्वामी, प्रकाशस्वरूप (सु-पर्णः) सुखपूर्वक उत्तम रीति से सबका पालक, (सहस्र-पात्) सहस्रों चरणों वाला अर्थात् सर्वगति, (शत-योनिः) अपरिमित, सैंकड़ों पदार्थों का कारण और आश्रय, (वयो-धाः) समस्त अन्न, कर्मफल का धारण करने वाला, (सः) वह परमात्मा (यत्) जो (परा भृतम्) धन, ज्ञान और सुख पर अर्थात् आत्मा से अतिरिक्त इन्द्रिय मन, शरीर आदि करणों द्वारा प्राप्त हो सके उस (वसु) जीवनोपयोगी ज्ञान और धन को (नः) हमें (नि यच्छात्) पूर्ण रीति से प्रदान करे। और वही सब सुख (अस्माकं) हमारे (पितृषु) पालकों या प्राणों में भी (स्वधावत्) अन्न या ग्राह्य विषय होकर स्वतः (अस्तु) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः। श्येनो देवता। जगती। त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
All Watchful Presence
Meaning
Lord Almighty, Shyena, divine bird of infinite power and motion, all moving universal presence, eternal home and origin of countless regions, wielder and giver of food, health and power, may He, all watching lord ruler of humanity, give us wealth, honour and excellence, peace and settlement which may be like our ancestral heritage from our forefathers brought from the farthest high.
Translation
The Sun (Syena) falcon, observer of men, the celestial ' - beauteous flier, thousand-rayed, hundred-wombed, granter of vigour; may He grant us the wealth, which has been taken away from us. May it be a sustaining oblation for our elders (pitrsu)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.42.2AS PER THE BOOK
Translation
Let that sun which possesses sharp and swift rays, which is observed by men, which is celestial, which has nice light and luster, which has thousands of rays and is the cause of multifarious operations and which gives long life to us, give us the wealth (the water, moister etc) which was taken from us and let it be rich in food among our father, mother and grandfather and grand-mother who are alive.
Translation
May God, the Observer of men, Refulgent, the Nourisher of all, All pervading, the Home of innumerable worlds, the Bestower of food, give us wealth, fit to be preserved through endeavour, and giver of spiritual force to our parents.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(श्येनः) म० १। ज्ञानवान् परमात्मा (नृचक्षाः) नॄणां द्रष्टा (दिव्यः) अद्भुतस्वरूपः (सुपर्णः) अ० १।२४।१। शोभनपालनः (सहस्रपात्) पद गतौ-घञ्। संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। अन्त्यलोपः। सहस्राणि अपरिमिताः पादा गतिशक्त्यो यस्य सः। मनसो जवीयः-यजु० ४०।४। इति श्रुतेः (शतयोनिः) योनिर्गृहम्-निघ० ३।४। अपरिमितानां लोकानां गृहम् (वयोधाः) अ० ५।११।११। अन्नस्य दाता (सः) परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (नि) निरन्तरम् (यच्छात्) दद्यात् (वसु) धनम् (यत्) (पराभृतम्) पराक्रमेण धृतम् (अस्माकम्) (अस्तु) (पितृषु) पित्रादिमान्येषु (स्वधायत्) अ० ३।२९।१। आत्मधारणसामर्थ्ययुक्तम् ॥
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