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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मार्गस्वस्त्य अयन सूक्त
    69

    ऋचं॒ साम॒ यदप्रा॑क्षं ह॒विरोजो॒ यजु॒र्बल॑म्। ए॒ष मा॒ तस्मा॒न्मा हिं॑सी॒द्वेदः॑ पृ॒ष्टः श॑चीपते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋच॑म् । साम॑ । यत् । अप्रा॑क्षम् । ह॒वि: । ओज॑: । यजु॑: । बल॑म् । ए॒ष: । मा॒ । तस्मा॑त् । मा । हिं॒सी॒त् । वेद॑: । पृ॒ष्ट: । श॒ची॒ऽप॒ते॒ ॥५७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचं साम यदप्राक्षं हविरोजो यजुर्बलम्। एष मा तस्मान्मा हिंसीद्वेदः पृष्टः शचीपते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋचम् । साम । यत् । अप्राक्षम् । हवि: । ओज: । यजु: । बलम् । एष: । मा । तस्मात् । मा । हिंसीत् । वेद: । पृष्ट: । शचीऽपते ॥५७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    वेद विद्या के ग्रहण का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जिस लिये (ऋचम्) पदार्थों की स्तुतिविद्या (साम) दुःखनाशक मोक्षविद्या और (यजुः) विद्वानों के सत्कार, विद्यादान और पदार्थों के सङ्गतिकरण द्वारा (हविः) ग्राह्यकर्म, (ओजः) मानसिक बल और (बलम्) शारीरिक बल को (अप्राक्षम्) मैंने पूँछा है [विचारा है]। (तस्मात्) इसलिये, (शचीपते) हे वाणी वा कर्म वा बुद्धि के रक्षक आचार्य ! (एषः) यह (पृष्टः) पूछा हुआ (वेदः) वेद (मा) मुझको (मा हिंसीत्) न दुःख देवे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य विचारपूर्वक वेदों का अध्ययन करके उत्तम कर्म से मानसिक और शारीरिक बल बढ़ाकर आनन्दित होवें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ऋचम्) म० १। पदार्थस्तुतिविद्याम् (साम) म० १। दुःखनाशिकां मोक्षविद्याम् (यत्) यस्मात्कारणात् (अप्राक्षम्) प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-लुङ्, द्विकर्मकः। प्रश्नेन विचारितवानस्मि (हविः) ग्राह्यं कर्म (ओजः) मानसं बलम् (यजुः) अर्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-उसि। यजुर्यजतेः-निरु० ७।१२। विदुषां सत्कारं विद्यादानं पदार्थसङ्गतिकरणं च (बलम्) शरीरबलम् (एषः) प्रसिद्धः (मा हिंसीत्) मा दुःखयेत् (तस्मात्) कारणात् (मा) माम् (वेदः) अ० ७।२८।१। ईश्वरोक्तज्ञानम् (पृष्टः) विचारितः। अधीतः (शचीपते) शची=वाक्-निघ० १।११। कर्मः−२।१। प्रज्ञा ३।९। हे वाचः कर्मणः प्रज्ञायाः पालक ॥

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    विषय

    हविः, ओजः, बलम्

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब मैं (ऋचं हवि: अप्राक्षम्) = [ऋग्वेद-विज्ञानवेद] इस विज्ञानवेद से हवि माँगता हैं [प्र-हे ask for], अर्थात् विज्ञान के द्वारा हव्य [पवित्र] पदार्थों को प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूँ और जब (साम ओजः अप्राक्षम्) = [सामवेद उपसनावेद] प्रभु की उपासना से ओजस्विता की प्रार्थना करता हूँ, अर्थात् प्रभु की उपासना से-प्रभु के ओज से ओजस्वी बनता हूँ और इसी प्रकार (यजुः बलम्) = [यजुर्वेद-कर्मवेद] श्रेष्ठतम कर्मों से बल की प्रार्थना करता हूँ, अर्थात् उत्तम कर्मों को करता हुआ बलवान् बनता हूँ। २. (तस्मात) = उस कारण से हे (शचीपते) = शक्तियों व प्रज्ञानों के स्वामिन् प्रभो! (एषः) = यह (पृष्टः वेद:) = इसप्रकार पूछा हुआ, प्रार्थना किया हुआ वेद (मा) = मुझे (मा हिंसीत्) = मत हिंसित करे।

    भावार्थ

    यदि हम ऋग्वेद के विज्ञान से हव्य पदार्थों को निर्मित करें, साम द्वारा प्रभु की उपासना से ओजस्वी बनें तथा यजुर्वेद में निर्दिष्ट श्रेष्ठतम कर्म करते हुए सबल बनें तो वेद हमें हिंसित होने से बचाते हैं।

    इस मन्त्र के अनुसार 'ऋक्, यज, साम' से अपने को परिपक्व बनाता हुआ यह 'भूग' [भ्रस्ज् पाके] बनता है। यह 'भृगु' ही अगले सूक्त का ऋषि है।

     

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    भाषार्थ

    (ऋचम्, साम) ऋग्वेद और सामवेद से (यत्) जो (हविः, ओजः) हवि और ओज के सम्बन्ध में, और (यजुः) यजुर्वेद से (बलम्) बल के सम्बन्ध में, (अप्राक्षम्) मैंने पूछा है, (तस्मात्) उस पूछने के कारण (पृष्टः) पूछा गया (एषः वेदः) यह वेद (मा) मुझे (मा)(हिंसीत्) हिंसित करे (शचीपते) हे वेदवाक् के स्वामी परमेश्वर ! शची वाङ्नाम (निघं० १।११)

    टिप्पणी

    [स्वर और वर्ण का ठीक ध्यान कर वेद के स्वाध्याय द्वारा यज्ञिय हवि१, ओज और बल आदि का यथार्थज्ञान हो सकता है। परन्तु विपरीत स्वाध्याय द्वारा अयथार्थ ज्ञान होने पर स्वाध्यायी की मानो हिंसा होती है। यथा "दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो म तमर्थमाह। स वाग् वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्"। वेद से पूछने का अभिप्राय है, वेद स्वाध्याय द्वारा ज्ञेय का ज्ञान साक्षात् वेद से ही प्राप्त करना। वेद तो काव्य है, अतः काव्य की रीति से वेद में वस्तुवर्णन होता है]। [१. ऋग्वेद के याज्यामन्त्रों द्वारा हविः की आहुति दी जाती है, सामगान के लिये ओजस् की आवश्यकता है और याज्ञिक क्रियाओं के सम्पादक यजुर्वेद से बल की आवश्यकता है। यह बल है शारीरिकबल, और ओजस् है प्राणवल। याज्ञिक क्रियाएं यथा “वेदि के लिये भूमिपरिष्कार, वेदिनिर्माण के लिये मिट्टी लाना और परिमाणानुसार वेदि की रचना, आज्य के लिये गोदोहन तथा पुरोडाश और हवि के लिये शारीरिक व्रीहि-अवहनन आदि यजुर्वेद की क्रियाएं हैं, इत्यादि अन्य क्रियाओं के लिये शारीरिक बल की आवश्यकता है, अतः इस बल का सम्बन्ध यजुर्वेद के साथ दर्शाया है। अप्राक्षम्= प्रच्छ ज्ञीप्सायाम् (तुदादिः)। ज्ञीप्सा= जानने की इच्छा। प्रत्येक व्यक्ति को हविः आदि के ज्ञान के लिये ऋग्वेदादि को स्वयं पढ़ने की इच्छा "अप्राक्षम्" द्वारा प्रकट की गई है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Knowledge and Karma

    Meaning

    I have asked for and tried to know by Rks, learn the value by Samans, and perform by application of the Yajus, hymns of knowledge applied. And I have asked for and learnt the materials of yajna in action in pursuit of strength and lustre for life. Therefore, I pray, O Shachipati, Indra, lord of noble action, let this knowledge, Veda, asked for and received, not lead me, for that reason of attainment, to violence against others and ultimately to violence against me.

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    Subject

    Indrah .

    Translation

    If I have questioned the praise-hymns, (Rks) for (being capable of granting) oblations, praise-songs (samans) for vigour, and sacrificial formulae (Yajunsi) for strengththerefore, O lord of wisdom (Sacipate), may this such questioned veda may not do any harm to me.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.57.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O mighty Lord! as I ask from worldly prosperity from RK, spiritual vigor from Saman, and the physical force and action from yajuh, so this Vedah, the Atharva Veda which is the fourth one that I have asked let not forsake me.

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    Translation

    May I acquire knowledge by the study of the Rigveda, spiritual strength from the Sama and physical power by the study of the Yajurveda. O Preceptor, the lord of speech, deed and intellect, may not this Atharvaveda, full of scientific knowledge, I have studied, do me harm.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ऋचम्) म० १। पदार्थस्तुतिविद्याम् (साम) म० १। दुःखनाशिकां मोक्षविद्याम् (यत्) यस्मात्कारणात् (अप्राक्षम्) प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-लुङ्, द्विकर्मकः। प्रश्नेन विचारितवानस्मि (हविः) ग्राह्यं कर्म (ओजः) मानसं बलम् (यजुः) अर्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-उसि। यजुर्यजतेः-निरु० ७।१२। विदुषां सत्कारं विद्यादानं पदार्थसङ्गतिकरणं च (बलम्) शरीरबलम् (एषः) प्रसिद्धः (मा हिंसीत्) मा दुःखयेत् (तस्मात्) कारणात् (मा) माम् (वेदः) अ० ७।२८।१। ईश्वरोक्तज्ञानम् (पृष्टः) विचारितः। अधीतः (शचीपते) शची=वाक्-निघ० १।११। कर्मः−२।१। प्रज्ञा ३।९। हे वाचः कर्मणः प्रज्ञायाः पालक ॥

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