अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
श्रा॒तं ह॒विरो ष्वि॑न्द्र॒ प्र या॑हि ज॒गाम॒ सूरो॒ अध्व॑नो॒ वि मध्य॑म्। परि॑ त्वासते नि॒धिभिः॒ सखा॑यः कुल॒पा न व्रा॑जप॒त चर॑न्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒तम् । ह॒वि: । ओ इति॑ । सु । इ॒न्द्र॒ । प्र । या॒हि॒ । ज॒गाम॑ । सूर॑: । अध्व॑न: । वि । मध्य॑म् । परि॑ । त्वा॒ । आ॒स॒ते॒ । नि॒धिऽभि॑: । सखा॑य: । कु॒ल॒ऽपा: । न । व्रा॒ज॒ऽप॒तिम् । चर॑न्तम् ॥७५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रातं हविरो ष्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो वि मध्यम्। परि त्वासते निधिभिः सखायः कुलपा न व्राजपत चरन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रातम् । हवि: । ओ इति । सु । इन्द्र । प्र । याहि । जगाम । सूर: । अध्वन: । वि । मध्यम् । परि । त्वा । आसते । निधिऽभि: । सखाय: । कुलऽपा: । न । व्राजऽपतिम् । चरन्तम् ॥७५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थ करने का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवान् मनुष्य ! (श्रातम्) परिपक्व [निश्चित] (हविः) ग्राह्यकर्म को (ओ) अवश्य (सु) भले प्रकार से (प्र याहि) प्राप्त हो, [जैसे] (सूरः) सूर्य (अध्वनः) अपने मार्ग के (मध्यम्) मध्य भाग को (वि) विशेष करके (जगाम) प्राप्त हुआ है। (सखायः) सब मित्र (निधिभिः) अनेक निधियों के साथ (त्वा) तेरे (परि आसते) चारों ओर बैठते हैं, (न) जैसे (कुलपाः) कुलरक्षक लोग (चरन्तम्) चलते फिरते (व्राजपतिम्) घर के स्वामी को ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य दुपहर के सूर्य के समान तेजस्वी होकर अपने कर्तव्य को पूरा करें, पुरुषार्थी मनुष्य के ही अन्य सब लोग सहायक होते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(श्रातम्) म० १। पक्वम्। निश्चितम् (हविः) ग्राह्यं कर्म (ओ) अवश्यम् (सु) सुष्ठु (प्र याहि) प्राप्नुहि (जगाम) प्राप (सूरः) अ० ४।२।४। लोकप्रेरकः सूर्यः (अध्वनः) अ० १।४।१। मार्गस्य (वि) विशेषेण (मध्यम्) मध्याह्नकालम् (परि) व्याप्य (त्वा) इन्द्रम् (आसते) उपविशन्ति (निधिभिः) धनकोषैः (सखायः) सुहृदः (कुलपाः) वंशरक्षकाः (न) इव (व्राजपतिम्) व्रज गतौ-घञ्। गृहस्वामिनं प्रधानम् (चरन्तम्) गच्छन्तम्। उद्योगिनम् ॥
विषय
गृहस्थ से वानप्रस्थ में
पदार्थ
१. एक गृहस्थ संयम-जन्यशक्ति ब ज्ञान के परिपाक से अपने आश्रम को बड़ी सुन्दरता से पूर्ण करता है। इसके द्वारा गृहस्थ में (हविः श्रातम्) = हवि का ठीक परिपाक किया गया है [हु दानादनयोः] यह सदा देकर बचे हुए को खानेवाला बना है। अब गृहस्थ को समासि पर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (उ) = निश्चय से (सुआप्रयाहि) = अच्छी प्रकार घर से जानेवाला बन, अर्थात् तू अब वनस्थ होने की तैयारी कर। (सूरः) = तेरा जीवन-सूर्य (अध्वनः मध्यम्) = मार्ग को (विजगाम) = विशेषरूप से प्राप्त हो गया है, अर्थात् आयुष्य के प्रथम ५० वर्ष बीत गये हैं, अत: अब तेरे वनस्थ होने का समय आ गया है। २. (त्वा परि) = तेरे चारों ओर (निधिभिः) = ज्ञान-निधियों की प्राप्ति हेतु से (सखायः आसते) = समानरूप से ज्ञान-प्राप्त करनेवाले ये विद्यार्थी आसीन होते हैं। ये विद्यार्थी (चरन्तम्) = गतिशील (वाजपतिम्) = विद्यार्थिसमूह के रक्षक तेरे चारों ओर (कुलपा: न) = कुल के रक्षक के समान है। इन योग्य विद्यार्थियों से ही तो कुल का पालन होता है।
भावार्थ
गृहस्थ में दानपूर्वक अदन करते हुए हम पचास वर्ष बीत जाने पर वानप्रस्थ बनें। वहाँ हमें ज्ञान-प्राप्ति के हेतु से ब्रह्मचारी प्राप्त हों।
भाषार्थ
(हविः) हविष्यान्न (श्रातम्) पक गया है, (इन्द्र) हे सम्राट् (उ, सु, प्र= आ याहि=प्रायाहि) निश्चय से सुगमतापूर्वक आइये, (सूरः) सूर्य (अध्वनः) प्रकाशमार्ग के (विमध्यम्) मध्य के समीप (जगाम) पहुंच गया है, अर्थात् भोजन का मध्याह्न काल होने वाला है। (सखायः) आमन्त्रित मित्र (निधिभिः) उपहारों अर्थात् भेंटो के साथ (त्वा) तेरे भोजनासन के (परि) चारों ओर (आसते) उपविष्ट हैं, बैठे हुए हैं, (न) जैसे कि (चरन्तम्) भोजन करते हुए (व्राजपतिम्) गृहपति के चारों ओर (कुलपाः) कुलरक्षक पारिवारिक जन उपविष्ट होते हैं।
टिप्पणी
[भोज्य-पदार्थ को हवि कहा है, क्योंकि उस द्वारा बलिप्रदान तथा बलि-वैश्वदेव-यज्ञ में आहुतियां दी जाती हैं, अथवा "हविः" = हु दानादनयोः (जुहोत्यादिः), अर्थात् अदन योग्य अन्न के परिपक्व होने की सूचना हविः पद द्वारा दी गई है। मन्त्र में मध्याह्न-काल के भोजनकाल को सूचित किया गया है। इन्द्र है सम्राट् यथा “इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। सखा है आमन्त्रित वरुण नामक राजा लोग, या नागरिक सदस्य अथवा उभयविध। चरन्तम्= चर गतिभक्षणयोः (भ्वादिः); यहां "चर" भक्षणार्यक है। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि यदि किसी व्यक्ति को मिलने जाना हो तो कुछ भेंट लेकर जाना चाहिये]।
विषय
योग द्वारा प्रतिमा का तप।
भावार्थ
हे इन्द्र ! आत्मन् ! प्रभो ! (श्रातं हविः) आदान योग्य वह ब्रह्म समाधि रस परिपक्व हो गया है। (उ प्र याहि) और समक्ष आओ, प्रकट होओ। वही (सूरः) सब का प्रेरक आत्मा (अध्वनः) हृदय आकाश के मध्यभाग में (वि) विशेष रूप से (जगाम) आ गया है। हे आत्मन् ! (त्वा) तेरे (परि) चारों ओर (सखायः) तेरे मित्र प्राण या समाहित मुक्तजन (निधिभिः) नाना प्रकार की सिद्धियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, शक्तिरूप रत्नों से भरे स्वजनों सहित अथवा विशेष धारणाओं सहित (आसते) तेरी उपासना उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार (कुलपाः न) कुल के पालक पुत्र या शिष्य गण (व्राज-पतिं) गृह के स्वामी पिता या आचार्य का (चरन्तं) विचरण करते समय या भोजन करते समय उसके चारों ओर रहते हैं। यज्ञपक्ष में—हवि अन्न पक गया है, हे इन्द्र ! आगे आओ, सूर्य आकाश के मध्य भाग में आगया है, तेरे मित्र (ऋत्विण्-गण) अपने मन्त्रस्तोमों सहित तेरी उपासना उसी प्रकार करते हैं जैसे पुत्रगण कुल-पिता की।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ अनुष्टुप्, २, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Purushartha
Meaning
Indra, the havi is ripe and ready. Pray come, the sun is half way up on its path. Friends sit around with their treasure sweets for you like heads of families waiting for the chief on the round.
Translation
Your oblations is cooked. O resplendent Lord, may you come fast. The Sun has reached about mid-point of his, way. Friends serve you with their treasures; just as heads of house-holds serve their travelling chieftain (vrajapatim) (Also Rg. X.179.2)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.75.2AS PER THE BOOK
Translation
O king! please accept the ripe share, the Sun (through the rotation of earth) has reached the middle point of its path, friends with their treasures sit around you as the members of the family surround the head of the house who is active in his work.
Translation
O God, deep concentration (Samadhi) has been achieved, Show Thyself unto us. The urging soul, with its full splendor is seated in the centre of the heart. O soul, breaths (Pranas) thy friends, adore thee on all sides, with their spiritual forces, as sons, the protectors of the family, sit round their father at the time of dining.
Footnote
See Rig, 10-179-2.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(श्रातम्) म० १। पक्वम्। निश्चितम् (हविः) ग्राह्यं कर्म (ओ) अवश्यम् (सु) सुष्ठु (प्र याहि) प्राप्नुहि (जगाम) प्राप (सूरः) अ० ४।२।४। लोकप्रेरकः सूर्यः (अध्वनः) अ० १।४।१। मार्गस्य (वि) विशेषेण (मध्यम्) मध्याह्नकालम् (परि) व्याप्य (त्वा) इन्द्रम् (आसते) उपविशन्ति (निधिभिः) धनकोषैः (सखायः) सुहृदः (कुलपाः) वंशरक्षकाः (न) इव (व्राजपतिम्) व्रज गतौ-घञ्। गृहस्वामिनं प्रधानम् (चरन्तम्) गच्छन्तम्। उद्योगिनम् ॥
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