अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
94
नवो॑नवो भवसि॒ जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒ष्यग्र॑म्। भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ वि द॑धास्या॒यन्प्र च॑न्द्रमस्तिरसे दी॒र्घमायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑:ऽनव: । भ॒व॒सि॒ । जाय॑मान: । अह्ना॑म् । के॒तु: । उ॒षसा॑म् । ए॒षि॒ । अग्र॑म् । भा॒गम् । दे॒वेभ्य॑: । वि । द॒धा॒सि॒ । आ॒ऽयन् । प्र । च॒न्द्र॒म॒: । ति॒र॒से॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: ॥८६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नवोनवो भवसि जायमानोऽह्नां केतुरुषसामेष्यग्रम्। भागं देवेभ्यो वि दधास्यायन्प्र चन्द्रमस्तिरसे दीर्घमायुः ॥
स्वर रहित पद पाठनव:ऽनव: । भवसि । जायमान: । अह्नाम् । केतु: । उषसाम् । एषि । अग्रम् । भागम् । देवेभ्य: । वि । दधासि । आऽयन् । प्र । चन्द्रम: । तिरसे । दीर्घम् । आयु: ॥८६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूर्य, चन्द्रमा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(चन्द्रमः) हे चन्द्रमा ! तू [शुक्लपक्ष में] (नवोनवः) नया-नया (जायमानः) प्रकट होता हुआ (भवसि) रहता है, और (अह्नाम्) दिनों का (केतुः) जतानेवाला तू (उषसाम्) उषाओं [प्रभातवेलाओं] के (अग्रम्) आगे (एषि) चलता है। और (आयन्) आता हुआ तू (देवेभ्यः) उत्तम पदार्थों को (भागम्) सेवनीय उत्तम गुण (वि दधासि) विविध प्रकार देता है, और (दीर्घम्) लम्बे (आयुः) जीवनकाल को (प्र) अच्छे प्रकार (तिरसे) पार लगाता है ॥२॥
भावार्थ
चन्द्रमा शुक्लपक्ष में एक-एक कला बढ़कर नया-नया होता है और दिनों, अर्थात् प्रतिप्रदा आदि चान्द्र तिथियों को बनाता है। और पृथिवी के पदार्थों में जीवनशक्ति देकर पुष्टिकारक होता है ॥२॥ भगवान् यास्क का मत है-निरु० ११।६। “‘नया-नया प्रकट होता हुआ’-यह शुक्लपक्ष के आरम्भ से अभिप्राय है। दिनों को जतानेवाला उषाओं के आगे चलता है, यह कृष्णपक्ष की समाप्ति से अभिप्राय है। कोई कहते हैं कि दूसरा पाद सूर्य देवता का है ॥”
टिप्पणी
२−(नवोनवः) पुनःपुनरभिनवः शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु, एकैककलावृद्ध्या (भवसि) (जायमानः) प्रादुर्भवन् (अह्नाम्) चान्द्रतिथीनाम् (केतुः) केतयिता ज्ञापयिता (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (एषि) प्राप्नोषि (अग्रम्) पुरोगतिम् (भागम्) सेवनीयमुत्तमं गुणम् (देवेभ्यः) दिव्यपदार्थेभ्यः (वि) विविधम् (दधासि) ददासि (आयन्) आगच्छन् प्रादुर्भवन् (प्र) प्रकर्षेण (चन्द्रमः) अ० ५।२४।१०। हे चन्द्र (तिरसे) पारयसे (दीर्घम्) अ० १।३५।२। लम्बमानम् (आयुः) जीवनकालम् ॥
विषय
चन्द्रमाः
पदार्थ
१.हे (चन्द्रम:) = चन्द्र ! (जायमान:) = प्रकट शुक्लपक्ष प्रतिपदादि में एक-एक कला के आधिक्य से उत्पद्यमान होता हुआ (नवः नवः) = प्रतिदिन नूतन ही (भवसि) = होता है। (अह्नां केतुः) = दिनों का तू ज्ञापक है। चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार दिनों की गणना की जाती है 'प्रथमा, द्वितीया, तृतीया' आदि अथवा (अह्नां केतुः)-दिनों की समाप्ति पर शुक्लपक्ष में प्रतीची दिशा में तू दिखता है और कृष्णपक्ष में (उषसाम् अग्रम् एषि) = रात्रियों की समाप्ति पर उषाकाल के अग्रभाग में, पूर्व दिशा में दिखता है। २. (आयन्) = हे चक्र! आता हुआ तू (देवेभ्यः भागं विदधासि) = देवों के लिए भाग करनेवाला है। सब यज्ञ तिथिविशेषरूप-पर्वनिबद्ध ही तो हैं। हे (चन्द्रमः) ! त (दीर्घमायः वितिरसे) = जीवन को बढ़ानेवाला है। चन्द्र-किरणों की सुधा आयुष्य को क्यों न बढ़ाएगी?
भावार्थ
चन्द्रमा कलाओं की वृद्धि व हास के द्वारा ही नया-नया प्रतीत होता है। शुक्लपक्ष में यह प्रतीची दिशा में दिन की समाप्ति पर उदित होता है, कृष्णपक्ष में उषाकाल के अग्रभाग में पूर्व में दिखता हैं। चन्द्र-तिथियों के अनुसार ही यज्ञ चलते हैं। यह चन्द्र अपनी सुधामयी किरणों से हमारे आयुष्य को बढ़ाता है।
भाषार्थ
हे चन्द्रमा ! एकैक कला के आधिक्य द्वारा तू (नवः नवः) नवीन-नवीन (जायमानः भवसि) पैदा होता रहता है। (अह्नां केतुः१) तू मानो दिनों [तिथियों] का ज्ञापक है (उपसाम्) उषाओं के (अग्रम्) आगे-आगे, पहिले (एषि) तू आता है। (आयन्) आता हुआ (देवेभ्यः२) देवों के लिये (भागम्) देय भाग का (विदधासि) तू विधान करता है, (चन्द्रमः) हे चन्द्रमा ! तू (आयुः) आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (प्रतिरसे) करता है, बढ़ाता है।
टिप्पणी
[मन्त्र में शुक्लपक्ष के चन्द्रमा का वर्णन है जो कि प्रातःकाल पूर्व दिशा में उदित होता है। मन्त्र में पत्नी का वर्णन भी अभिप्रेत है। एक-एक सन्तान की वृद्धि द्वारा वह मानो प्रतिसन्तान में नवीन-नवीन रूप में प्रकट होती रहती है, यथा "आत्मा वै पुत्रनामासि" (निरुक्त ३।१।४; श० ब्रा० १४।९।८।२६) कि हे पुत्र! तू मेरा रूप ही है। पत्नी दिन में उषाकाल से पूर्व जाग जाती है। वह सास-ससुररूपी देवों का सत्कार करती है। यथा "मातृदेवो भव, पितृदेवो भव। तथा अग्निहोत्र में सूर्य, अग्नि आदि देवों के प्रति आहुतिभाग प्रदान करती है, यथा “गार्हपत्यमसर्यैत पूर्वमग्निं वधूरियम्" (अथर्व० १४।२।२०), तथा "गार्हपत्याय जागृहि" (अथर्व० १४।१।२१), तथा "गार्हपत्यं सपर्य" (अथर्व० १४।२।१८)। गृहकार्यों में पत्नी की सक्रियता में गृहवासी प्रसन्न रह कर दीर्घायु हो जाते हैं (अथर्व० १४।१।२४)] । [१. कित संज्ञाने। २. दर्शपौर्णमास तथा अष्टमी के यज्ञों में वायु आदि देवों के लिये यज्ञभाग प्रदान।]
विषय
सूर्य और चन्द्र।
भावार्थ
चन्द्र का वर्णन करते हैं। (जायमानः) प्रकट होता हुआ तू हे चन्द्र ! सदा (नवः नवः) नया ही नया (भवसि) हो जाता है। कला के घटने या बढ़ने से प्रतिदिन चन्द्रबिम्ब में नवीनपन ही दीखता है। और (अह्नाम्) दिनों का तू (केतुः) ज्ञापक है। चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार दिनों की गणना की जाती है, प्रथमा, द्वितीया, तृतीया इत्यादि। हे चन्द्र ! तू (उषसाम्) रात्रियों के समाप्ति और सूर्योदय कालों के (अग्रम्) पूर्व काल में (एषि) आया करता है। और (आयन्) आता हुआ तू (देवेभ्यः) देवगण पृथिवी, जल, समुद्र, वायु इनको और इन्द्रियों को (भागम्) इन इन का विशेष आग (वि दधासि) विशेष रूप से प्रदान करता है। चन्द्रोदय के अवसर पर समुद्र वेला आदि नाना प्रकार के वायुपरिवर्तन, ओषधियों का पोषण, ओस आदि का पड़ना आदि क्रियाएं होती हैं। और इस प्रकार हे (चन्द्रमः) चन्द्रमा ! आल्हादकारी शक्तिवाले ! तू (दीर्घम्) लम्बा (आयुः) जीवन (तिरसे) प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सावित्री सूर्याचन्द्रमसौ च देवताः। १, ६ त्रिष्टुप्। २ सम्राट। ३ अनुष्टुप्। ४, ५ आस्तारपंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Two Divine Children
Meaning
O sun, rising anew every day, you become young and ever fresh, flag symbol of the dawns and days, and ascend to the zenith. O moon when you rise you bear the divinities share of energy for them and bring long life for living beings.
Translation
Being’ born, you become new every day. Indicator of days (dates), you precede the dawns. While coming, you deal their share to the bounties of Nature. O moon, you stretch out (our) life-times long. (Also Rg. X.85.19)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.86.2AS PER THE BOOK
Translation
This moon when it is born is ever new, it is the banner of day, it goes before dawn. Disturbing their parts among other physical forces the moon extends further a long life.
Translation
Thou art reborn for ever new: thou marchest, ensign of days, in forefront of the Dawns, marching thou dealest to the gods their portion. Thou lengthenest, Moon! the days of man’s existence.
Footnote
Dealest to the gods their portion: Lustre lent to the Earth, Water, Ocean, Air, Moon nourishes the herbs with frost. Ensign of days: Days are counted according to the waxing and waning of the Moon.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(नवोनवः) पुनःपुनरभिनवः शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु, एकैककलावृद्ध्या (भवसि) (जायमानः) प्रादुर्भवन् (अह्नाम्) चान्द्रतिथीनाम् (केतुः) केतयिता ज्ञापयिता (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (एषि) प्राप्नोषि (अग्रम्) पुरोगतिम् (भागम्) सेवनीयमुत्तमं गुणम् (देवेभ्यः) दिव्यपदार्थेभ्यः (वि) विविधम् (दधासि) ददासि (आयन्) आगच्छन् प्रादुर्भवन् (प्र) प्रकर्षेण (चन्द्रमः) अ० ५।२४।१०। हे चन्द्र (तिरसे) पारयसे (दीर्घम्) अ० १।३५।२। लम्बमानम् (आयुः) जीवनकालम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal