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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पुरुरात्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृ॒हद्वयो॒ हि भा॒नवेऽर्चा॑ दे॒वाया॒ग्नये॑। यं मि॒त्रं न प्रश॑स्तिभि॒र्मर्ता॑सो दधि॒रे पु॒रः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हत् । वयः॑ । हि । भा॒नवे॑ । अर्च॑ । दे॒वाय॑ । अ॒ग्नये॑ । यम् । मि॒त्रम् । न । प्रश॑स्तिऽभिः । मर्ता॑सः । द॒धि॒रे । पु॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहद्वयो हि भानवेऽर्चा देवायाग्नये। यं मित्रं न प्रशस्तिभिर्मर्तासो दधिरे पुरः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत्। वयः। हि। भानवे। अर्च। देवाय। अग्नये। यम्। मित्रम्। न। प्रशस्तिऽभिः। मर्तासः। दधिरे। पुरः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    हे विद्वन् ! (मर्त्तासः) मनुष्य (प्रशस्तिभिः) प्रशंसाओं से (यम्) जिसको (मित्रम्) मित्र के (न) समान (पुरः) प्रथम से (दधिरे) धारण करते हैं, उसको (भानवे) प्रकाश के लिये और (देवाय) श्रेष्ठ गुणवाले (अग्नये) बिजुली आदि के लिये (बृहत्) बड़ा (वयः) प्रदीप्त करनेवाला तेज जैसे हो, वैसे (हि) ही (अर्चा) पूजिये, आदर करिये ॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे मित्र, मित्र को धारण करके सुख की वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को प्राप्त होकर विद्वान् जन आनन्द से वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥१॥

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