ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
स हि द्युभि॒र्जना॑नां॒ होता॒ दक्ष॑स्य बा॒ह्वोः। वि ह॒व्यम॒ग्निरा॑नु॒षग्भगो॒ न वार॑मृण्वति ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । द्युऽभिः॑ । जना॑नाम् । होता॑ । दक्ष॑स्य । बा॒ह्वोः । वि । ह॒व्यम् । अ॒ग्निः । आ॒नु॒षक् । भगः॑ । न । वार॑म् । ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि द्युभिर्जनानां होता दक्षस्य बाह्वोः। वि हव्यमग्निरानुषग्भगो न वारमृण्वति ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। हि। द्युऽभिः। जनानाम्। होता। दक्षस्य। बाह्वोः। वि। हव्यम्। अग्निः। आनुषक्। भगः। न। वारम्। ऋण्वति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
विषय - फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
जो (जनानाम्) मनुष्यों की (बाह्वोः) भुजाओं के (दक्षस्य) बल का (होता) देनेवाला (अग्निः) अग्नि (भगः) सूर्य्य के (न) सदृश (आनुषक्) अनुकूलता से (वारम्) स्वीकार करने और (हव्यम्) देने योग्य पदार्थ को (वि, ऋण्वति) विशेष सिद्ध करता है (सः, हि) वही (द्युभिः) धर्मयुक्त कामों से बलवान् होता है ॥२॥
भावार्थ - जो विद्वान् जन अपने आत्मा के सदृश सब मनुष्यों को जान और विद्या को प्राप्त करा के उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे ही भाग्यशाली वर्तमान हैं ॥२॥
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