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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अत्रिः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा मामि॒मं तव॒ सन्त॑मत्र इर॒स्या द्रु॒ग्धो भि॒यसा॒ नि गा॑रीत्। त्वं मि॒त्रो अ॑सि स॒त्यरा॑धा॒स्तौ मे॒हाव॑तं॒ वरु॑णश्च॒ राजा॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । माम् । इ॒मम् । तव॑ । सन्त॑म् । अ॒त्रे॒ । इ॒र॒स्या । द्रु॒ग्धः । भि॒यसा॑ । नि । गा॒री॒त् । त्वम् । मि॒त्रः । अ॒सि॒ । स॒त्यऽरा॑धाः । तौ । मा॒ । इ॒ह । अ॒व॒त॒म् । वरु॑णः । च॒ । राजा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा मामिमं तव सन्तमत्र इरस्या द्रुग्धो भियसा नि गारीत्। त्वं मित्रो असि सत्यराधास्तौ मेहावतं वरुणश्च राजा ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। माम्। इमम्। तव। सन्तम्। अत्रे। इरस्या। द्रुग्धः। भियसा। नि। गारीत्। त्वम्। मित्रः। असि। सत्यऽराधाः। तौ। मा। इह। अवतम्। वरुणः। च। राजा ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    हे (अत्रे) तीन प्रकार के दुःखों से रहित ! (इरस्या) अन्न की इच्छा से तथा (भियसा) भय से (द्रुग्धः) द्रोह को प्राप्त (इमम्) इसको और (तव) आपके आश्रित (सन्तम्) हुए (माम्) मुझ को (मा) नहीं (नि, गारीत्) निगलिये और जो (त्वम्) आप (मित्रः) मित्र (सत्यराधाः) सत्य आचरण से वा सत्यधन जिनका ऐसे (असि) हो वह आप राजा सब के अधिष्ठाता और (वरुणः) श्रेष्ठ सेना का ईश (च) भी (तौ) वे दोनों (इह) इस संसार में (मा) मेरी (अवतम्) रक्षा करो ॥७॥

    भावार्थ - हे धर्मिष्ठ राजा और सेना के स्वामी ! अन्याय से किसी के पदार्थ को भी न ग्रहण करें, भय और न्याय के अच्छे प्रकार चलाने से राजधर्म से पृथक् न होवें और सदा ही सत्य धर्म में प्रिय हुए मित्र के सदृश प्रजाओं का पालन करो ॥७॥

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