ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 9
यं वै सूर्यं॒ स्व॑र्भानु॒स्तम॒सावि॑ध्यदासु॒रः। अत्र॑य॒स्तमन्व॑विन्दन्न॒ह्य१॒॑न्ये अश॑क्नुवन् ॥९॥
स्वर सहित पद पाठयम् । वै । सूर्य॑म् । स्वः॑ऽभानुः । तम॑सा । अवि॑ध्यत् । आ॒सु॒रः । अत्र॑यः । तम् । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒न् । न॒हि । अ॒न्ये । अश॑क्नुवन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः। अत्रयस्तमन्वविन्दन्नह्य१न्ये अशक्नुवन् ॥९॥
स्वर रहित पद पाठयम्। वै। सूर्यम्। स्वःऽभानुः। तमसा। अविध्यत्। आसुरः। अत्रयः। तम्। अनु। अविन्दन्। नहि। अन्ये। अशक्नुवन् ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
विषय - अब सूर्य और अन्धकार के दृष्टान्त से विद्वान् और अविद्वान् के विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे विद्वानो ! (स्वर्भानुः) ! सूर्य से प्रकाशित (आसुरः) मेघ ही (तमसा) अन्धकार से (यम्) जिस (सूर्यम्) सूर्य्य को (अविध्यत्) ताड़ित करता है (तम्) उसको (वै) निश्चय करके (अत्रयः) विद्या में दक्ष जन (अनु, अविन्दन्) अनुकूल प्राप्त होवें (नहि) नहीं (अन्ये) अन्य इसके जानने को (अशक्नुवन्) समर्थ होवें ॥९॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! जैसे मेघ सूर्य्य को ढाप के अन्धकार को उत्पन्न करता है, वैसे ही अविद्या आत्मा का आवरण करके अज्ञान को उत्पन्न करती है और जैसे सूर्य मेघ का नाश और अन्धकार का निवारण करके प्रकाश करता है, वैसे ही प्राप्त हुई विद्या अविद्या का नाश करके विज्ञान के प्रकाश को उत्पन्न करती है, इस विवेचन को विद्वान् जन जानते हैं, अन्य नहीं ॥९॥ इस सूक्त में इन्द्र मेघ सूर्य विद्वान् अविद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चालीसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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