ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
ऋषिः - आसङ्गः प्लायोगिः
देवता - आसंङ्गस्य दानस्तुतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध॒ प्लायो॑गि॒रति॑ दासद॒न्याना॑स॒ङ्गो अ॑ग्ने द॒शभि॑: स॒हस्रै॑: । अधो॒क्षणो॒ दश॒ मह्यं॒ रुश॑न्तो न॒ळा इ॑व॒ सर॑सो॒ निर॑तिष्ठन् ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ । दा॒स॒त् । अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ । अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभि: सहस्रै: । अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥
स्वर रहित पद पाठअध । प्लायोगिः । अति । दासत् । अन्यान् । आऽसङ्गः । अग्ने । दशऽभिः । सहस्रैः । अध । उक्षणः । दश । मह्यम् । रुशन्तः । नळाःऽइव । सरसः । निः । अतिष्ठन् ॥ ८.१.३३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 33
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
विषय - परमात्मा सर्वदानों से श्रेष्ठ दश प्रकार के इन्द्रिय दान देता है, यह इससे दिखलाया जाता है ।
पदार्थ -
(अध) और (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् ! तू (प्लायोगिः) सर्वप्रयोगवित् और (आसङ्गः) सर्वान्तर्य्यामी सर्वगत है । और (अन्यान्+अति) सांसारिक अन्य दाताओं से कहीं बढ़कर (दशभिः) दशगुणित (सहस्रैः) और सहस्रों गुण दानों से युक्त तू इन्द्रियाख्य अनुपम अद्भुत दश पदार्थ (मह्यम्) मुझको देता है । (अध) तथा जो दान (दश) दश=अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय हैं और (उक्षणः) सर्व कार्य के सेचन में परम समर्थ हैं और (रुशन्तः) देदीप्यमान हैं अर्थात् रोगादिकों से दूषित नहीं है, पुनः (सरसः) सरोवर के तटपर निकले हुए (नलाः+इव) नल नाम के तृण के समान (निरतिष्ठन्) इस शरीर से निकलकर शोभायमान हो रहे हैं, इससे बढ़कर कोई अन्य दान नहीं, यह तेरी महती कृपा और महादान है ॥३३ ॥
भावार्थ - यह ईश्वर समस्त प्रयोग जानता है । इस एक पृथिवी पर कई लक्ष कई एक कोटि व्यक्तियाँ दीखती हैं, वे सब ही परस्पर कुछ न कुछ भेद रखती हैं । प्रथम मनुष्य की ओर देखिये । सम्प्रति इस पृथिवी पर जितने मनुष्य हैं, उन सबों के मुखों की आकृति भिन्न-भिन्न है । इसी प्रकार किसी एक ग्राम के समस्त पशुओं को देखिये, सबका मुख एकसा नहीं । सहस्रों पशुओं में से अपने पशु को गवाँर चरवाह भी पहचान लेता है । कहाँ तक मैं लिखूं, सर्वव्यक्ति परस्पर भिन्न-भिन्न मुखाकृति से युक्त है । क्या यह महामहाश्चर्य की बात नहीं । इस विचित्र रचना को जो रचता रहता है, वह कितने प्रयोगों को जानता है, इसको कौन वर्णन कर सकता है । इसी कारण वह वेद में प्लायोगि=प्रयोगविद् कहा गया है । हे मनुष्यो ! वह सर्वज्ञ है । सर्व वस्तुओं में निवास करता है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि विद्वान् उपासकों या सर्व प्राणियों के अभीष्टों को भी जानता है, इसमें सन्देह नहीं । किन्तु यह न्यायवान् है । अतः सबको निज-२ कर्मानुसार वह पुष्कल दान दे रहा है । सबसे बढ़कर वह कृपानिधि मनुष्यों को उन दानों से भूषित कर देता है, जिनके तुल्य अन्य दान जगत् में नहीं हैं । और जिन दानों से ग्रहीता अद्भुत-२ कार्य कर सकते हैं । वे दान कहीं अन्यत्र नहीं । इसी शरीर में विद्यमान हैं । वे पाँच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं । हे मनुष्यो ! इन दशों दानों को यदि तुम कोटिदान समझो, तो भी थोड़ा ही समझते हो । यदि इन दानों को ऐसी-२ कोटि पृथिवी के समान समझते तो भी इस दान के माहात्म्य को नहीं समझते हो । समस्त पृथिवी पर के पदार्थ इस दान के अर्ध खर्वांश के तुल्य नहीं हैं । वे दान तुमको मिले हुए हैं । उनको कार्य में लाकर जितना धन चाहो, उतना कमालो और हे मनुष्यो ! इस अद्भुत दानदाता के निकट सदा कृतज्ञ बने रहो । यह शिक्षा वेद भगवान् इससे देते हैं ॥३३ ॥
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