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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 34
    ऋषिः - शश्वत्याङ्गिरस्यासङ्गस्य पत्नी देवता - आसंङ्गः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अन्व॑स्य स्थू॒रं द॑दृशे पु॒रस्ता॑दन॒स्थ ऊ॒रुर॑व॒रम्ब॑माणः । शश्व॑ती॒ नार्य॑भि॒चक्ष्या॑ह॒ सुभ॑द्रमर्य॒ भोज॑नं बिभर्षि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । अ॒स्य॒ । स्थू॒रम् । द॒दृ॒शे॒ । पु॒रस्ता॑त् । अ॒न॒स्थः । ऊ॒रुः । अ॒व॒ऽरम्ब॑माणः । शश्व॑ती । नारी॑ । अ॒भि॒ऽचक्ष्य॑ । आ॒ह॒ । सुऽभ॑द्रम् । अ॒र्य॒ । भोज॑नम् । बि॒भ॒र्षि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः । शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । अस्य । स्थूरम् । ददृशे । पुरस्तात् । अनस्थः । ऊरुः । अवऽरम्बमाणः । शश्वती । नारी । अभिऽचक्ष्य । आह । सुऽभद्रम् । अर्य । भोजनम् । बिभर्षि ॥ ८.१.३४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 34
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (शश्वती) जीवात्मा के साथ सदा स्थायिनी (नारी) बुद्धिरूपा या वाग्रूपा नारी (अभिचक्ष्य) आत्मा को ईश्वर की ओर आसक्त देखकर (आह) मानो, कहती है कि (अर्य) हे स्वामिन् ! (सुभद्रम्) समाधिरूप कल्याणकारी सुन्दर (भोजनम्) भोजन को आप इस समय (बिभर्षि) धारण किए हुए हैं । (अस्य) उस आपके (पुरस्तात्) आगे वह भोजन (स्थूरम्) स्थूल=बहुत ढेर (अनु+ददृशे) दीखता है । आप इस समय कैसे हैं (अनस्थः) परमात्मा में निमग्न तथा (अवरम्बमाणः) समाधिस्थ होने के कारण अधोमुख । इसी प्रकार आपको सदा रहना चाहिये । और मैं इससे बहुत प्रसन्ना हूँ ॥३४ ॥

    भावार्थ - जब उपासक धीरे धीरे उसी के अनुग्रह से उसकी विभूति को कुछ-कुछ जानने में समर्थ होता है, तब उसके अन्तःकरण में सर्व भाव बदलते जाते हैं । उसके अन्तःकरण से शत्रुता भाग जाती है । ईर्ष्या के सब बीज दग्ध हो जाते हैं । समबुद्धि उपस्थित होती है । यह मेरा देशी और यह विदेशी है, यह भाव प्रलीन हो जाता है । स्वदेशीय पालनीय हैं और विदेशीय घातनीय हैं । तब ही हमारे देश के आदमी सुखी होंगे, ये सर्व प्राणी, पशु, मत्स्य, पक्षी और सरीसृप आदि मनुष्यजाति के कल्याण के लिये सृष्ट हैं । इसलिये ये सफल जीव मनुष्य के कार्य में नियोजनीय हैं । उस मनुष्य जाति के लिये उनके हनन करने में भी कोई दोष नहीं और उनके भक्षण में भी कोई पाप नहीं, इस प्रकार के सब विपरीत विचार नष्ट हो जाते हैं । किन्तु सर्वजीव समान हैं । सर्व परस्पर भाई हैं, यह कल्याणी मति उदित होती है । एवञ्च उस काल में शनैः-शनैः वह उपासक जगत् के समस्त व्यापारों से विरत होकर परमात्मचिन्तन में आसक्त हो जाता है । तब उसको अन्य कुछ कर्तव्य भी नहीं रहता है । तब वह आनन्द का अनुभव करता रहता है । कोई अविद्या उसको व्यथित नहीं कर सकती । इस अवस्था में सब इन्द्रियों का एक ही उद्देश हो जाता है । तब मानो, यह बुद्धिरूपा नारी भी कृतार्था होकर अपने स्वामी जीवात्मा की स्तुति करने लगती है । यही भाव इस ऋचा से वेद दिखलाता है ॥३४ ॥

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