ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
इ॒दं व॑सो सु॒तमन्ध॒: पिबा॒ सुपू॑र्णमु॒दर॑म् । अना॑भयिन्ररि॒मा ते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । व॒सो॒ इति॑ । सु॒तम् । अन्धः॑ । पिब॑ । सुऽपू॑र्णम् । उ॒दर॑म् । अना॑भयिन् । र॒रि॒म । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं वसो सुतमन्ध: पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । वसो इति । सुतम् । अन्धः । पिब । सुऽपूर्णम् । उदरम् । अनाभयिन् । ररिम । ते ॥ ८.२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - सब शुभकर्म परमात्मा को समर्पित करने चाहियें, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
वसु=सर्वव्यापी जो सर्वत्र वसता है, उसको वसु कहते हैं । यद्वा जो सबको वसाता है, वह वसु=वासक । परन्तु यह शब्द धनवाची ही प्रसिद्ध है, अतः जिसके धन हो, वह वसु । इस संसार में जो कुछ धन है, वह ईश्वर का ही है, वही वस्तुतः धनवान् है, अतः यहाँ धनवाची शब्द के द्वारा ही वह पुकारा गया है । जिस हेतु सब अन्न उसी का है, अतः वह अन्न उसी को समर्पित करना उचित है । और भी । ईश्वर इसको बनाकर अन्त में इसका स्वयं संहार करता है, अतः महर्षिगण उपनिषदों में उसको महाभक्षक कहकर गाते हैं । क्योंकि इस सम्पूर्ण जगत् को खाता हुआ भी वह तृप्त नहीं होता । अतः जो अन्न मनुष्य का हितकर नहीं है, वह भी उसी को समर्पणीय है । इत्यादि शिक्षा इस ऋचा से भगवान् देते हैं । अथ ऋगर्थः−(वसो) हे महाधनाढ्य ईश्वर ! (इदम्) यह दृश्यमान (सुतम्) जगत् के पोषणरूप महायज्ञ के लिये स्वयमेव तुझसे शोधित जो (अन्धः) अपने प्रभाव से भक्षक को मोहित करनेवाला अन्न है, उसको स्वयमेव तू (पिब) पी=संहार कर, जिससे (उदरम्) उदर (सुपूर्णम्) सुपूर्ण हो । यह भक्तिवचन है । (अनाभयि१न्) हे भयरहित ! मनुष्यादिकों को सर्व प्रकार अन्नों के भक्षण में भय रहता है । क्योंकि वे खाद्य पदार्थों के गुणों से अपरिचित हैं । परमात्मा वैसा नहीं, अतः वह अनाभयी है । हे निर्भय देव ! वह अन्न (ते) तुझको ही (ररिम) हम उपासकगण देते हैं, कृपया ग्रहण कर ॥१ ॥
भावार्थ - बड़ी भक्ति और श्रद्धा से ईश्वर के नाम पर प्रत्येक वस्तु को प्रथम रख, तब उससे अपना कार्य्य लेवे, इसी नियम के अनुसार नवान्नेष्टि प्रभृति शुभकर्म गृहस्थों के गृहों में हुआ करते हैं ॥१ ॥
टिप्पणी -
१−अनाभयी−भगवान् भयरहित है, हमको भी भयरहित होना चाहिये । पापाचरण, असत्य, द्यूत आदि दुर्व्यसनों से तो अवश्य भय करना उचित ही है, किन्तु पापाचारी, असत्यवादी, सुरापायी, अन्यायी इत्यादि प्रकार के मनुष्यों से न डरकर उनको सुशिक्षित कर सत्पथ में लावें । यहाँ के लोग कल्पित अवस्तु भूत, प्रेत, डाकिनी, शाकिनी, शृगालाक्रोश आदि से डरते रहते हैं, अतः वे दुर्बलेन्द्रिय, कातर, समर के अयोग्य और समुद्र आदिकों की यात्रा करने में असमर्थ हो गये हैं । मनुष्य, इसमें सन्देह नहीं कि हृदय से दुर्बल होता है, अतः तत्तत्समाजस्थ विद्वान् को उचित है कि अपने समाज से भय के कारणों को सदा दूर किया करे । जैसा वेद भगवान् आज्ञा देते हैं−१−वृत्रहा शूर विद्वान् । जहि शत्रून् अपमृधो नुदस्वाथा−भयं कृणुहि विश्वतो नः ॥ यजु० ७ । ३७ ॥ (शूर) हे शूरवीर महापुरुष ! जिस कारण आप (वृत्रहा) निखिल विघ्नों का विनाश कर सकते हैं और आप (विद्वान्) सबको याथातथ्य जाननेवाले हैं, अतः (शत्रून्) भय के कारण निखिल शत्रुओं का (जहि) हनन करें (मृधः+अपनुदस्व) संग्रामों को होने न देवें और (विश्वतः) सब प्रकार से (नः+अभयं+कृणुहि) हमारा अभय करें । पुनः २−बाधतां द्वेषो अभयं कृणोतु सुवीर्य्यस्य पतयः स्याम ॥ यजु० २० । ५१ ॥ (द्वेषः+बाधताम्) वह शूरवीर निखिल द्वेषों को हम लोगों से दूर करके (अभयं+कृणोतु) अभय की स्थापना करे (सुवीर्य्याय) हम लोग महाबलाधिपति होवें ॥१ ॥ यह अष्टम मण्डल का प्रथम सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥