ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्मि॑न्नु॒क्थानि॒ रण्य॑न्ति॒ विश्वा॑नि च श्रव॒स्या॑ । अ॒पामवो॒ न स॑मु॒द्रे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । उ॒क्थानि॑ । रण्य॑न्ति । विश्वा॑नि । च॒ । श्र॒व॒स्या॑ । अ॒पाम् । अवः॑ । न । स॒मु॒द्रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्नुक्थानि रण्यन्ति विश्वानि च श्रवस्या । अपामवो न समुद्रे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । उक्थानि । रण्यन्ति । विश्वानि । च । श्रवस्या । अपाम् । अवः । न । समुद्रे ॥ ८.१६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
विषय - इन्द्र की महिमा दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(न) यथा=जैसे (समुद्रे) समुद्र में (अपाम्) जल का (अवः) तरङ्गसमूह शोभित होता है, वैसे ही (यस्मिन्) जिस परमदेव में (विश्वानि) समस्त (च) और (श्रवस्या) श्रवणीय=श्रवणयोग्य (उक्थानि) प्राणियों की विविध भाषाएँ (रण्यन्ति) शोभित होती हैं । अर्थात् जिस परमात्मा में समस्त भाषाएँ स्थित हैं, उसको किसी भाषा द्वारा स्तुति कीजिये, वह उस-२ भाषा को और भाव को समझ जायगा । अतः निःसन्देह होकर उसकी उपासना कीजिये ॥२ ॥
भावार्थ - सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामी परमात्मा की जो स्तुति प्रार्थना की जाती है, वह समुद्र की जलतरङ्गवत् शोभित होती है ॥२ ॥
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