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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तं सु॑ष्टु॒त्या वि॑वासे ज्येष्ठ॒राजं॒ भरे॑ कृ॒त्नुम् । म॒हो वा॒जिनं॑ स॒निभ्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । सु॒ऽस्तु॒त्या । वि॒वा॒से॒ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽराज॑म् । भरे॑ । कृ॒त्नुम् । म॒हः । वा॒जिन॑म् । स॒निऽभ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं सुष्टुत्या विवासे ज्येष्ठराजं भरे कृत्नुम् । महो वाजिनं सनिभ्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । सुऽस्तुत्या । विवासे । ज्येष्ठऽराजम् । भरे । कृत्नुम् । महः । वाजिनम् । सनिऽभ्यः ॥ ८.१६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (महः) अति महान् (वाजिनम्) विज्ञान के (सनिभ्यः) लाभों के लिये (भरे१+कृत्नुम्) संग्राम में अथवा संसार में प्रतिक्षण कार्य्यकर्त्ता और (ज्येष्ठराजम्) सूर्य्य, चन्द्र, अग्नि, पृथिवी आदि ज्येष्ठ पदार्थों में विराजमान (तम्) उस इन्द्र को (सुष्टुत्या) शोभन स्तुति से मैं उपासक (विवासे) सेवता हूँ ॥३ ॥

    भावार्थ - इन सूर्य्य चन्द्र पृथिवी आदि पदार्थों में से सदा विज्ञान का लाभ करे । इनके अध्ययन से ही मनुष्य धनवान् होते हैं ॥३ ॥

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