ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - आदित्याः
छन्दः - स्वराडार्च्युष्निक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒न॒र्वाणो॒ ह्ये॑षां॒ पन्था॑ आदि॒त्याना॑म् । अद॑ब्धा॒: सन्ति॑ पा॒यव॑: सुगे॒वृध॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒र्वाणः॑ । हि । ए॒षा॒म् । पन्था॑ । आ॒दि॒त्याना॑म् । अद॑ब्धाः । सन्ति॑ । पा॒यवः॑ । सु॒गे॒ऽवृधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनर्वाणो ह्येषां पन्था आदित्यानाम् । अदब्धा: सन्ति पायव: सुगेवृध: ॥
स्वर रहित पद पाठअनर्वाणः । हि । एषाम् । पन्था । आदित्यानाम् । अदब्धाः । सन्ति । पायवः । सुगेऽवृधः ॥ ८.१८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
विषय - आचार्य्य कैसे होते हैं, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
हे मनुष्यों ! (हि) जिस कारण (एषाम्+आदित्यानाम्) इन बुद्धिपुत्र आचार्यों के (पन्थाः) मार्ग (अनर्वाणः) निर्दोष हैं । अतएव (अदब्धाः) सदा किन्हीं मनुष्यों से वे हिंसित नहीं होते, उन मार्गों की लोग रक्षा करते ही रहते हैं । पुनः वे (पायवः) नाना प्रकार से रक्षक होते हैं और (सुगेवृधः) सुख के विषय में सदा बढ़नेवाले होते हैं ॥२ ॥
भावार्थ - विद्वानों और आचार्य्यों से सुरचित धर्मादि मार्ग अतिशय आनन्दप्रद होते हैं । अतः उनकी रक्षा करना मनुष्यमात्र का परम धर्म है ॥२ ॥
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