ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
तत्सु न॑: सवि॒ता भगो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । शर्म॑ यच्छन्तु स॒प्रथो॒ यदीम॑हे ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । सु । नः॒ । स॒वि॒ता । भगः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । शर्म॑ । य॒च्छ॒न्तु॒ । स॒ऽप्रथः॑ । यत् । ईम॑हे ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सु न: सविता भगो वरुणो मित्रो अर्यमा । शर्म यच्छन्तु सप्रथो यदीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । सु । नः । सविता । भगः । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । शर्म । यच्छन्तु । सऽप्रथः । यत् । ईमहे ॥ ८.१८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
विषय - सब ही उपकार करें, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(सविता) संसार का जनक (भगः) भजनीय (वरुणः) स्वीकरणीय (मित्रः) सर्वस्नेही (अर्य्यमाः) श्रेष्ठों से माननीय परमात्मा (नः) हमको (सप्रथः) सर्वत्र विस्तीर्ण (तत्) वह (शर्म) कल्याण वा गृह (सु+यच्छन्तु) अच्छे प्रकार देवें (यत्) जिसको हम (ईमहे) चाहते हैं ॥३ ॥
भावार्थ - यदि हम धर्मभाव से भावित होकर ईश्वर से प्रार्थना करें, तो वह अवश्य स्वीकृत हो ॥३ ॥
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