ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 27
वंस्वा॑ नो॒ वार्या॑ पु॒रु वंस्व॑ रा॒यः पु॑रु॒स्पृह॑: । सु॒वीर्य॑स्य प्र॒जाव॑तो॒ यश॑स्वतः ॥
स्वर सहित पद पाठवंस्व॑ । नः॒ । वार्या॑ । पु॒रु । वंस्व॑ । रा॒यः । पु॒रु॒ऽस्पृहः॑ । सु॒ऽवीर्य॑स्य । प्र॒जाऽव॑तः । यश॑स्वतः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वंस्वा नो वार्या पुरु वंस्व रायः पुरुस्पृह: । सुवीर्यस्य प्रजावतो यशस्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठवंस्व । नः । वार्या । पुरु । वंस्व । रायः । पुरुऽस्पृहः । सुऽवीर्यस्य । प्रजाऽवतः । यशस्वतः ॥ ८.२३.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 27
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
विषय - पुनः वही विषय कहते हैं ।
पदार्थ -
हे ईश ! (नः) हम लोगों को (वार्या) वरणीय (पुरु) बहुत से धन (वंस्व) दे और (रायः) विविध सम्पत्तियाँ और अभ्युदय (वंस्व) दे, जो सम्पत्तियाँ (पुरुस्पृहः) बहुतों से स्पृहणीय हों, (सुवीर्यस्य) पुत्र-पौत्रादि वीरोपेत (प्रजावतः) सन्ततिमान् (यशस्वतः) और कीर्तिमान् हों ॥२७ ॥
भावार्थ - ऐहिक-लौकिक धन वही प्रशस्य है, जो धन सन्तति, पशु, हिरण्य और यश से संयुक्त हो ॥२७ ॥
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