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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 27
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    वंस्वा॑ नो॒ वार्या॑ पु॒रु वंस्व॑ रा॒यः पु॑रु॒स्पृह॑: । सु॒वीर्य॑स्य प्र॒जाव॑तो॒ यश॑स्वतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वंस्व॑ । नः॒ । वार्या॑ । पु॒रु । वंस्व॑ । रा॒यः । पु॒रु॒ऽस्पृहः॑ । सु॒ऽवीर्य॑स्य । प्र॒जाऽव॑तः । यश॑स्वतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वंस्वा नो वार्या पुरु वंस्व रायः पुरुस्पृह: । सुवीर्यस्य प्रजावतो यशस्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वंस्व । नः । वार्या । पुरु । वंस्व । रायः । पुरुऽस्पृहः । सुऽवीर्यस्य । प्रजाऽवतः । यशस्वतः ॥ ८.२३.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    हे शूरपते ! (नः) अस्मभ्यम् (पुरु, वार्या) बहुवार्याणि (वंस्व) प्रयच्छ (पुरुस्पृहः, रायः) बहुस्पृहणीयानि धनानि (वंस्व) प्रयच्छ (सुवीर्यस्य) सुवीर्यम् (प्रजावतः) प्रजावन्तम् (यशस्वतः) यशस्वत् प्रयच्छ ॥२७॥

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    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    हे ईश ! नः=अस्मभ्यम् । वार्या=वरणीयानि । पुरु=पुरूणि=बहूनि धनानि । वंस्व=देहि । पुनः । पुरुस्पृहः=बहुभिः स्पृहणीयस्य । सुवीर्यस्य= पुत्रपौत्रादिवीरोपेतस्य । प्रजावतः=सन्ततिमतो जनवतो वा । यशस्वतः=कीर्तिमतः । रायः=सम्पदः । वंस्व=देहि । सर्वत्रात्र कर्मणि षष्ठी ॥२७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे शूरपते ! (नः) आप हमारे लिये (पुरु, वार्या) अनेक वरणीय पदार्थ (वंस्व) प्रदान करें (पुरुस्पृहः, रायः) अनेकों से स्पृहणीय धनों को (वंस्व) प्रदान करें (सुवीर्यस्य) सुन्दर वीर्यवाले (प्रजावतः) प्रजासहित (यशस्वतः) यशसहित सामर्थ्य को प्रदान करें ॥२७॥

    भावार्थ

    उन शूरवीर योद्धाओं को उचित है कि अनेक वरणीय पदार्थ तथा विविध प्रकार का धन, जो उन्होंने अपने अपूर्व बल से दिग्विजय द्वारा उपलब्ध किया है, उसको यज्ञ में आकर समर्पित करें ॥२७॥

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    विषय

    पुनः वही विषय कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे ईश ! (नः) हम लोगों को (वार्या) वरणीय (पुरु) बहुत से धन (वंस्व) दे और (रायः) विविध सम्पत्तियाँ और अभ्युदय (वंस्व) दे, जो सम्पत्तियाँ (पुरुस्पृहः) बहुतों से स्पृहणीय हों, (सुवीर्यस्य) पुत्र-पौत्रादि वीरोपेत (प्रजावतः) सन्ततिमान् (यशस्वतः) और कीर्तिमान् हों ॥२७ ॥

    भावार्थ

    ऐहिक-लौकिक धन वही प्रशस्य है, जो धन सन्तति, पशु, हिरण्य और यश से संयुक्त हो ॥२७ ॥

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    विषय

    अग्नि तुल्य गुणों वाले प्रभु से प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे स्वामिन् ! तू ( नः ) हमें ( पुरु-वार्या ) बहुत से उत्तमोत्तम धनादि ( वंस्व ) प्रदान कर। और तू हमें ( प्रजावतः ) प्रजा का उत्पादक ( सु-वीर्यस्य ) उत्तम वीर्य और ( यशस्वतः ) उत्तम यश, कीत्ति, बल और अन्न से सम्पन्न ( नाना रायः स्व ) अनेक ऐश्वर्य दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सुवीर्य सुसन्तान व सुयशा'

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! आप (नः) = हमारे लिये वार्यावरणीय धनों को (वंस्वा) = दीजिये। और (पुरुस्पृहः) = बहुतों से स्पृहणीय [चाहने योग्य] (रायः) = धनों को (पुरुवंस्व) = खूब ही दीजिये। [२] उस धन को दीजिये जो (सुवीर्यस्य) = उत्तम शक्ति से युक्त है, (प्रजावतः) = उत्तम सन्तानोंवाला है तथा (यशस्वतः) = मुझे यशस्वान् बनानेवाला है। अर्थात् जिस धन के द्वारा भोगों में फँसकर मैं निर्बल नहीं हो जाता, जिस धन के द्वारा मेरे सन्तान बिगड़ नहीं जाते तथा जिस धन से मैं उत्तम कर्मों को करता हुआ यशस्वी जीवनवाला होता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे लिये सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त करायें। उस स्पृहणीय धन को भी बनानेवाला धन प्राप्त करायें, जो मुझे सुवीर्य सुसन्तान व सुयश बनाये।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Give us the gifts of our choice in abundance. Give us wealth and honours of the love and desire of all mankind, give us abundance of brave progeny, honour, excellence and fame.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे धन, संतती, पशू, हिरण्य व यशाने संयुक्त असेल तेच ऐहिक धन प्रशंसनीय आहे. ॥२७॥

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