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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    येषा॑माबा॒ध ऋ॒ग्मिय॑ इ॒षः पृ॒क्षश्च॑ नि॒ग्रभे॑ । उ॒प॒विदा॒ वह्नि॑र्विन्दते॒ वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येषा॑म् । आ॒ऽबा॒धः । ऋ॒ग्मियः॑ । इ॒षः । पृ॒क्षः । च॒ । नि॒ऽग्रभे॑ । उ॒प॒ऽविदा॑ । वह्निः॑ । वि॒न्द॒ते॒ । वसु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येषामाबाध ऋग्मिय इषः पृक्षश्च निग्रभे । उपविदा वह्निर्विन्दते वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येषाम् । आऽबाधः । ऋग्मियः । इषः । पृक्षः । च । निऽग्रभे । उपऽविदा । वह्निः । विन्दते । वसु ॥ ८.२३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (आबाधः) आभिमुख्येन शत्रूणां बाधकः (ऋग्मियः) ऋग्भिरर्चनीयः (वह्निः) सर्वेभ्यो बलेर्वोढा सः (येषाम्) येषां क्रूरजनानाम् (इषः, पृक्षश्च) अन्नादि देयभागांश्च (निग्रभे) निगृह्णाति (उपविदा) स्वराजं प्रति वेदनेन (वसु, विन्दते) तेषां मुख्यरत्नं लभते बलात् ॥३॥

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    विषयः

    ईश्वरन्यायं दर्शयति ।

    पदार्थः

    येषामुपद्रवकारिणाम् । ऋग्मियः=अर्चनीय ईश्वरः । आबाधः=आसमन्तात् बाधको भवति तेषाम् । इषोऽन्नानि । पृक्षश्च=अन्नादिरसांश्च । निग्रभे=निगृह्णाति । ततः=अन्यच्च । वह्निः=स्तुतीनां वोढा=स्तुतिपाठकः । उपविदाः=उपज्ञानेन ईशेन द्वारा । वसु=वसूनि । विन्दते=प्राप्नोति ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (आबाधः) शत्रुओं के सन्मुख बाधा करनेवाला (ऋग्मियः) ऋचाओं से सत्कार योग्य (वह्निः) सब प्रजा से बलि का ग्रहण करनेवाला वह विद्वान् (इषः, पृक्षश्च) जब क्रूर प्रजा से अन्न वा अन्य देय द्रव्य को (निग्रभे) नहीं पाता है, तब (उपविदा) स्व स्वामी के प्रति वेदन करके (येषाम्) जिनका देयभाग नहीं पाया, उनके (वसू, विन्दते) रत्नों को हर लेता है ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि उपर्युक्त कर्मयोगी को जब प्रजाजन उसका देय आप नहीं देते, तब वह बलात् उनके धनों को हर लेता है अर्थात् जब वह यह देखता है कि प्रजाओं में यथोचित व्यवस्था नहीं, तब वह अपनी दण्डरूप शक्ति से दमनीय लोगों को दमन करके समता का शासन फैलाता है, जिससे प्रजाओं को अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं, अतएव प्रजाओं को शासक को बलि देना अति आवश्यक है, जिससे किसी प्रकार का विरोध उत्पन्न न हो ॥३॥

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    विषय

    ईश्वर का न्याय दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (येषाम्) जिन उपद्रवकारी जनों को (आबाधः) ईश्वर सब प्रकार से बाधक होता है, उनके (इषः) अन्नों को (पृक्षः+च) अन्नादि पदार्थ के रसों को (निग्रभे) छीन लेता है, जो ईश्वर (ऋग्मियः) पूज्य है, परन्तु (वह्निः) स्तुतिपाठकजन (उपविदा) सर्वज्ञ परमात्मा के द्वारा (वसु+विन्दते) धन पाता है ॥३ ॥

    भावार्थ

    भगवान् उपद्रवकारी पुरुषों से धन छीन लेता और स्तुतिपाठकजन उन्हीं धनों से धनिक होता है अर्थात् साधुजनों का पोषण करता है ॥३ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( ऋग्मियः ) वेदमन्त्रों से स्तुति करने योग्य, ( वह्निः ) जगत् को धारण करने वाला, ( आ-बाधः ) दुष्ट पुरुषों को सब प्रकार से पीड़ित करने वाला, होकर ( इषः पृक्षः च ) उनकी इच्छा और अन्नादि को भी ( नि-ग्रभे ) रोक देता है, उन पर प्रतिबन्ध लगा देता है। वह (उप-विदा ) विवेक पूर्वक ( वसु विन्दते ) धन प्राप्त करता है। (२) राजा अग्रणी नायक होने से 'अग्नि' है । वह स्तुति योग्य, दुष्टों का बाधक होता, अन्न, सेनादि का निग्रह, व्यवस्था करता, प्रजा के साथ आमन्त्रणा करके कर द्वारा ऐश्वर्य संग्रह करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'खान-पान' का नियन्त्रण

    पदार्थ

    [१] (येषाम्) = जिन उपासकों के ये प्रभु (आवाधः) = समन्तात् शत्रुओं का बाधन करनेवाले होते हैं, वे प्रभु (ऋग्मियः) = उन उपासकों द्वारा ऋचाओं से अर्चनीय होते हैं, स्तुति के योग्य होते हैं। प्रभु इन उपासकों के (इषः) = पेय द्रव्यों को (च) = तथा (पृक्षः) = [food] भोज्य द्रव्यों को (निग्रभे) = नियन्त्रित करते हैं। अर्थात् इनके खान-पान को बड़ा मर्यादित करते हैं। [२] ये (वह्निः) = सब आवश्यक द्रव्यों को प्राप्त करानेवाले प्रभु (उपविदा) = उपवेदन व ज्ञान के साथ (वसु) = धन को (विन्दते) = [वेदयति] प्राप्त कराते हैं। प्रभु धन देते हैं। धन के साथ धन के उपयोग के विषय में ज्ञान भी देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- जो प्रभु का स्तवन करते हैं, प्रभु उन्हें मर्यादित खान-पानवाला बनाते हैं। और ज्ञान के साथ धन को भी प्राप्त कराते हैं। ताकि ये उपासक धन से जीवन यात्रा में आगे बढ़ पायें और ज्ञान के द्वारा धन की हानियों से बचे रहें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those seekers whose inputs of food and energy, the all powerful Agni, adored and served with Vedic formulae, receives, consumes and directs within the dynamic laws of nature, through their investigations receive new wealth and knowledge.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर उपद्रव देणाऱ्यांचे धन हिसकावून घेतो व स्तुतिपाठक त्याच धनाने धनिक होतात. अर्थात तो साधुजनांचे पोषण करतो. ॥३॥

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