ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
मि॒त्रा तना॒ न र॒थ्या॒३॒॑ वरु॑णो॒ यश्च॑ सु॒क्रतु॑: । स॒नात्सु॑जा॒ता तन॑या धृ॒तव्र॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रा । तना॑ । न । र॒थ्या॑ । वरु॑णः । यः । च॒ । सु॒ऽक्रतुः॑ । स॒नात् । सु॒ऽजा॒ता । तन॑या । धृ॒तऽव्र॑ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रा तना न रथ्या३ वरुणो यश्च सुक्रतु: । सनात्सुजाता तनया धृतव्रता ॥
स्वर रहित पद पाठमित्रा । तना । न । रथ्या । वरुणः । यः । च । सुऽक्रतुः । सनात् । सुऽजाता । तनया । धृतऽव्रता ॥ ८.२५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
विषय - वे दोनों कैसे हों, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
पुनरपि वे दोनों प्रतिनिधि कैसे हों, (मित्रा) सबके मित्र (तना) धनादिविस्तारक (न) और (रथ्या) सबके सारथि के समान हों, (सुक्रतुः) शोभनकार्यकर्ता (यः+च+वरुणः) जो वरुण हैं और मित्र (सनात्) सर्वदा (सुजाता) अच्छे कुल के (तनया) पुत्र हों, (धृतव्रता) लोकोपकारार्थ व्रत धारण करनेवाले हों ॥२ ॥
भावार्थ - परोपकार करना अति कठिन कार्य्य है, अतः यहाँ इन दोनों के विशेषण में मित्र, सुक्रतु और सुजात आदि पद आए हैं ॥२ ॥
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