ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
ता वां॒ विश्व॑स्य गो॒पा दे॒वा दे॒वेषु॑ य॒ज्ञिया॑ । ऋ॒तावा॑ना यजसे पू॒तद॑क्षसा ॥
स्वर सहित पद पाठता । वा॒म् । विश्व॑स्य । गो॒पा । दे॒वा । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञिया॑ । ऋ॒तऽवा॑ना । य॒ज॒से॒ । पू॒तऽद॑क्षसा ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता वां विश्वस्य गोपा देवा देवेषु यज्ञिया । ऋतावाना यजसे पूतदक्षसा ॥
स्वर रहित पद पाठता । वाम् । विश्वस्य । गोपा । देवा । देवेषु । यज्ञिया । ऋतऽवाना । यजसे । पूतऽदक्षसा ॥ ८.२५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - अब ब्राह्मण और क्षत्रिय के धर्मों को दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
हे मित्रनामक ब्राह्मणप्रतिनिधि ! हे वरुणनामक क्षत्रियप्रतिनिधि ! आप दोनों (विश्वस्य+गोपा) सकल कार्य के रक्षक नियुक्त हैं, (देवेषु+देवा) विद्वानों में भी विद्वान् हैं और (यज्ञिया) विद्वानों में यज्ञवत् पूज्य हैं (ऋतावाना) ईश्वर के सत्य नियम पर चलनेवाले अतएव (पूत+दक्षसा) पवित्र बलधारी हैं । (ता) उन और वैसे (वाम्) आप दोनों को हम प्रजागण (यजसे) सकल कार्यों में सत्कार करते हैं ॥१ ॥
भावार्थ - जो जगत् के जितने अधिक लाभकारी हों, वे उतने ही पूजायोग्य हैं । जो ईश्वरीय नियमों को सदा देश में फैलाते हैं और प्रकृति का अध्ययन करते रहते हैं, सत्यपथ से कदापि पृथक् नहीं होते, इत्यादि विविधगुणयुक्त पुरुष का नाम ब्राह्मण है । प्रजापालन में तत्पर और सत्यादि सर्वगुणसम्पन्न पुरुष का नाम क्षत्रिय है । वैसे महापुरुष निःसन्देह पूज्य, मान्य और अभिनन्दनीय हैं । यही विषय इस सूक्त में दिखलावेंगे ॥१ ॥
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