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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 30
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्त्वा॑ पृ॒च्छादी॑जा॒नः कु॑ह॒या कु॑हयाकृते । ए॒षो अप॑श्रितो व॒लो गो॑म॒तीमव॑ तिष्ठति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वा॒ । पृ॒च्छात् । ई॒जा॒नः । कु॒ह॒या । कु॒ह॒या॒ऽकृ॒ते॒ । ए॒षः । अप॑ऽश्रितः । व॒लः । गो॒ऽम॒तीम् । अव॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वा पृच्छादीजानः कुहया कुहयाकृते । एषो अपश्रितो वलो गोमतीमव तिष्ठति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । त्वा । पृच्छात् । ईजानः । कुहया । कुहयाऽकृते । एषः । अपऽश्रितः । वलः । गोऽमतीम् । अव । तिष्ठति ॥ ८.२४.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 30
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (कुहयाकृते) हे जिज्ञासु ! हे विद्वन् ! (ईजानः) जो पुरुष यज्ञ कर चुका है, वह (कुहया) इस समय कहाँ है । (यत्+पृच्छात्+त्वा) यदि तुझको इस तरह से कोई पूछे, तो इस प्रकार कहना । (एषः+वलः) यह वरणीय यजमान (अपश्रितः) इस स्थान से चला गया और जाकर (गोमतिम्+अपतिष्ठति) गवादिपशुयुक्त भूमि के ऊपर विद्यमान है ॥३० ॥

    भावार्थ - यज्ञों के फलों में सन्देह नहीं करना चाहिये, यह इससे दिखलाते हैं । जो शुभकर्म करते हैं, वे अच्छे फल पाते हैं ॥३० ॥

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