ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
ऋषिः - नाभाकः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तत्त॑द॒ग्निर्वयो॑ दधे॒ यथा॑यथा कृप॒ण्यति॑ । ऊ॒र्जाहु॑ति॒र्वसू॑नां॒ शं च॒ योश्च॒ मयो॑ दधे॒ विश्व॑स्यै दे॒वहू॑त्यै॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठतत्ऽत॑त् । अ॒ग्निः । वयः॑ । द॒धे॒ । यथा॑ऽयथा । कृ॒प॒ण्यति॑ । ऊ॒र्जाऽआ॑हुतिः । वसू॑नाम् । शम् । च॒ । योः । च॒ । मयः॑ । द॒धे॒ विश्व॑स्यै दे॒वहू॑त्यै॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्तदग्निर्वयो दधे यथायथा कृपण्यति । ऊर्जाहुतिर्वसूनां शं च योश्च मयो दधे विश्वस्यै देवहूत्यै नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठतत्ऽतत् । अग्निः । वयः । दधे । यथाऽयथा । कृपण्यति । ऊर्जाऽआहुतिः । वसूनाम् । शम् । च । योः । च । मयः । दधे विश्वस्यै देवहूत्यै । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.३९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
विषय - अग्नि वयः=अवस्था और अन्न देता है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(अग्निः) वह सर्वगत ईश (तत्+तत्) उस उस शक्ति, खाद्य और वयः क्रम को सर्वत्र (दधे) स्थापित करता है (यथा यथा+कृपण्यति) जो जो प्राणियों की स्थिति के लिये आवश्यक है और वह (ऊर्जाहुतिः) सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य देनेवाला है । पुनः वह (वसूनाम्) पृथिव्यादि पदार्थों के मध्य अथवा धनों के मध्य (शम्+च) कल्याण और (योः+च) रोगादिनिवर्तक (मयः+दधे) सुख स्थापित करता है और (विश्वस्यै+देवहूत्यै) समस्त देवों के आवाहन के स्थान में केवल वही आहूत होता है अर्थात् सब देवों के मध्य नहीं पूज्य होता है ॥४ ॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! आवश्यकता के अनुसार वही सबमें शक्ति और सामर्थ्य दे रहा है, वही जीवों के अन्नों का भी प्रबन्ध कर रहा है, अतः वही पूज्यतम है ॥४ ॥
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