ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
अस्मै॑ ते प्रति॒हर्य॑ते॒ जात॑वेदो॒ विच॑र्षणे । अग्ने॒ जना॑मि सुष्टु॒तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअस्मै॑ । ते॒ । प्र॒ति॒ऽहर्य॑ते । जात॑ऽवेदः । विऽच॑र्षणे । अग्ने॑ । जना॑मि । सु॒ऽस्तु॒तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै ते प्रतिहर्यते जातवेदो विचर्षणे । अग्ने जनामि सुष्टुतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । ते । प्रतिऽहर्यते । जातऽवेदः । विऽचर्षणे । अग्ने । जनामि । सुऽस्तुतिम् ॥ ८.४३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
विषय - N/A
पदार्थ -
(जातवेदः) हे सर्वज्ञ हे सर्वधन हे सर्वज्ञानबीजप्रद (विचर्षणे) हे सर्वदर्शिन् (अग्ने) सर्वव्यापिन् भगवन् ! (प्रतिहर्षते) निखिल कामनाओं को देते हुए और उपासकों के कल्याणाभिलाषी (अस्मै+ते) इस आपके लिये मैं (सुष्टुतिम्) अच्छी स्तुति (जनामि) जनाता हूँ, हे भगवन् आप इसे ग्रहण करें ॥२ ॥
भावार्थ - भगवान् स्वयं सर्वज्ञ और सर्वज्ञानमय है । उसी की स्तुति हम लोग अपने कल्याण के लिये करें । वह परमदेव इतना अवश्य चाहता है कि समस्त प्राणी मेरी आज्ञा पर चलें ॥२ ॥
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