ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
स पू॒र्व्यो म॒हानां॑ वे॒नः क्रतु॑भिरानजे । यस्य॒ द्वारा॒ मनु॑ष्पि॒ता दे॒वेषु॒ धिय॑ आन॒जे ॥
स्वर सहित पद पाठसः । पू॒र्व्यः । म॒हाना॑म् । वे॒नः । क्रतु॑ऽभिः । आ॒न॒जे॒ । यस्य॑ । द्वारा॑ । मनुः॑ । पि॒ता । दे॒वेषु॑ । धियः॑ । आ॒न॒जे ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पूर्व्यो महानां वेनः क्रतुभिरानजे । यस्य द्वारा मनुष्पिता देवेषु धिय आनजे ॥
स्वर रहित पद पाठसः । पूर्व्यः । महानाम् । वेनः । क्रतुऽभिः । आनजे । यस्य । द्वारा । मनुः । पिता । देवेषु । धियः । आनजे ॥ ८.६३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त से इन्द्र की स्तुति की जाती है ।
पदार्थ -
(सः) वह पूर्वोक्त सर्वत्र प्रसिद्ध स्वयंसिद्ध इन्द्र नामधारी परेश (पूर्व्यः) सर्वगुणों से पूर्ण और सबसे प्रथम है और (महानाम्+वेनः) पूज्य महान् पुरुषों का भी वही कमनीय अर्थात् वाञ्छित है । वही (क्रतुभिः) स्वकीय विज्ञानों और कर्मों से (आनजे) सर्वत्र प्राप्त है । पुनः (यस्य+द्वारा) जिसकी सहायता से (पिता) पालक (मनुः) मन्ता, बोद्धा (धियः) विज्ञानों और कर्मों को (आनजे) पाते हैं ॥१ ॥
भावार्थ - देव शब्द सर्वपदार्थवाची है । यह वेद में प्रसिद्ध है । धी इस शब्द के अनेक प्रयोग हैं । विज्ञान, कर्म, ज्ञान, चैतन्य आदि इसके अर्थ होते हैं । अर्धर्च का आशय यह है कि उस ईश्वर की कृपा से ही मननशील पुरुष प्रत्येक पदार्थ में ज्ञान और कर्म देखते हैं । प्रत्येक पदार्थ को ज्ञानमय और कर्ममय समझते हैं । यद्वा प्रत्येक पदार्थ में ईश्वरीय कौशल और क्रिया देखते हैं ॥१ ॥
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