ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 8/ मन्त्र 23
ऋषिः - सध्वंशः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
त्रीणि॑ प॒दान्य॒श्विनो॑रा॒विः सान्ति॒ गुहा॑ प॒रः । क॒वी ऋ॒तस्य॒ पत्म॑भिर॒र्वाग्जी॒वेभ्य॒स्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रीणि॑ । प॒दानि॑ । अ॒श्विनोः॑ । आ॒विः । सन्ति॑ । गुइहा॑ । प॒रः । क॒वी इति॑ । ऋ॒तस्य॑ । पत्म॑ऽभिः । अ॒र्वाक् । जी॒वेभ्यः॑ । परि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणि पदान्यश्विनोराविः सान्ति गुहा परः । कवी ऋतस्य पत्मभिरर्वाग्जीवेभ्यस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठत्रीणि । पदानि । अश्विनोः । आविः । सन्ति । गुइहा । परः । कवी इति । ऋतस्य । पत्मऽभिः । अर्वाक् । जीवेभ्यः । परि ॥ ८.८.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 23
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
विषय - पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ -
जिन (अश्विनोः) राजा और अमात्य वर्गों के (त्रीणि) तीन (पदानि) पद अर्थात् राजसभा, विद्यासभा और धर्मसभारूप स्थान (गुहा+परः) गुप्त नहीं हैं अर्थात् जिन तीन स्थानों की कार्य्यवाही सर्व प्रजाओं पर विदित है, वे ही (ऋतस्य+कवी) सत्यनियम के तत्त्वविद् हैं और वे ही उनहीं (पत्मभिः) राजसभा आदि पदों से (जीवेभ्यः परि) सर्व जीवों के ऊपर (अर्वाग्) सबके सामने पूज्य होते हैं ॥२३ ॥
भावार्थ - स्वसभ्यों के साथ जो राजसभा, विद्यासभा और धर्मसभा स्थापित करके उनकी सम्मति से राज्यकार्य करता है, वही सर्वत्र पूज्य होता है ॥२३ ॥
टिप्पणी -
यह अष्टम मण्डल का अष्टम सूक्त और २९वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥